मिट्टी के खोने से प्रभावित होता है सामान्य जीवन और स्वास्थ्य, यही सहती है क्लाइमेट चेंज का बोझ
हमें समझना चाहिए कि मिट्टी पृथ्वी पर उसकी त्वचा के समान है और इस संसार में अनगिनत प्रजातियां हैं जिनका पृथ्वी और उत्पादन से एक गहन संबध होता है। जरूरी है कि अब हम पर्यावरण नीति के तहत मिट्टी को बचाने के सारे रास्ते तैयार करें...
डॉ. अनिल प्रकाश जोशी। हम कई मुद्दों के पीछे एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे को लेकर उदासीन हो जाते हैं और उनमें से एक मिट्टी भी है। आज मृदा संरक्षण बहुत जरूरी है क्योंकि मिट्टी खोने का मतलब सिर्फ इसे ही खोना नहीं होता बल्कि इससे जुड़े तमाम उद्योग, सामान्य जीवन व स्वास्थ्य कहीं न कहीं मिट्टी के खोने से प्रभावित होते हैं। सही बात तो यह है कि जलवायु परिवर्तन की परिस्थितियों में सबसे बड़ा बोझ मिट्टी को ही झेलना पड़ता है।
दुनियाभर में सीधा असर
यूरोपियन यूनियन ज्वॉइंट रिसर्च सेंटर के शोधकर्ताओं ने यह पाया कि जीडीपी सहित तमाम महत्वपूर्ण आर्थिकी सूचक पूरी तरह मिट्टी से प्रतिक्रियात्मक रूप से प्रभावित होते हैं। उन अध्ययन में मिट्टी से जुड़े नुकसान को अन्य पारिस्थितिकी परिवर्तन से जोड़कर देखने की कोशिश की और इसमें फसल का नुकसान और बाजार व उससे जुड़ी तमाम सेवाएं शामिल रहीं। सभी को एक साथ समझने की कोशिश की गई और देखा गया कि जिन देशों में मिट्टी के कटाव की दर सबसे ज्यादा है वहां खेती बहुत ज्यादा प्रभावित हुई है। जलवायु परिवर्तन भी इससे सीधा जुड़ा है और यही नहीं इस तरह के तमाम पारिस्थितिकी असंतुलन से दुनिया में सीधा असर दिखाई पड़ता है।
हर आयवर्ग को है नुकसान
समुद्र जलस्तर का ऊंचा होना, बीमारियों के घटनाक्रम का बढ़ना और कृषि भूमि के नुकसान होने में कहीं न कहीं मिट्टी का तेजी से समुद्र में पहुंचना एक प्रमुख वजह है। जिन देशों की जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा खेती से आता है (भारत उनमें शामिल है), वहां मिट्टी के तेजी से बहने के कारण इनकी जीडीपी में 0.1 फीसद विपरीत परिणाम दिखे और अगर खाद्य मूल्य सूचकांक को भी देखें तो इन देशों में भी यह करीब 2 फीसद ऊपर चला गया क्योंकि मिट्टी को खोने का सीधा मतलब है रासायनिक खादों का ज्यादा उपयोग और यह उत्पादों पर विपरीत असर डालता है। अंत में दामों में बढ़ोत्तरी दिखाई देती है। खाद्य मूल्य सूचकांक मध्यम आयवर्ग श्रेणी के परिवारों को ज्यादा प्रभावित करता है क्योंकि उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा भोजन के बिलों पर ही जाता है। इस प्रकार मध्यम आयवर्ग श्रेणी के परिवार, जो कि दुनिया का बड़ा हिस्सा हैं, वो मिट्टी के इस तरह बह जाने से सीधे तौर पर प्रभावित होते हैं।
पृथ्वी की त्वचा है मिट्टी
हमें मान लेना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिट्टी का क्षरण उत्पादन के लिए सबसे हानिकारक है इसीलिए किसी भी रूप में मिट्टी से जुड़े सभी तरह के वर्गों को मिट्टी बचाने को लेकर पहल करनी होगी। जब हालात गंभीर होने शुरू हो जाते हैं तब फसल बीमा और रासायनिक उर्वरक जैसे अन्य मुद्दे नए रूप में सामने आ जाते हैं। मिट्टी पृथ्वी पर उसकी त्वचा के समान है और इस संसार में अनगिनत प्रजातियां हैं, जिनका पृथ्वी और उत्पादन से एक गहन संबध होता है, जिसके संसाधन मनुष्य के जीवन के लिए सबसे ज्यादा लाभकारी सिद्ध हुए हैं। जरूरी है कि अब हम पर्यावरण नीति के तहत मिट्टी को बचाने के सारे रास्ते तैयार करें। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम कृषि में रसायन उत्पादों का कम से कम उपयोग करें क्योंकि यह तमाम सूक्ष्मजीवों का हिस्सा नहीं बन पाती, जिसके चलते हम पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को बिगाड़ देते हैं। मिट्टी बचाने का सबसे बड़ा रास्ता देश के किसान और वनों की पर्याप्त संख्या है। इनको जोड़कर ही हम मिट्टी की नई परिभाषा और उसके सुधार की रणनीति तय कर सकते हैं।
समझा रहे माटी का मोल
मनसुख भाई प्रजापति उन गिने-चुने लोगों में से एक हैं जो मिट्टी से जाने जाते हैं। गुजरात के एक किसान परिवार में जन्मे मनसुख को अपना गांव इसलिए छोड़ना पड़ा क्योंकि वहां का माचो बांध टूट गया था। पारंपरिक रूप में उन्हें सिर्फ कुम्हार के चाक की कला आती थी। मिट्टी का उपयोग करके उन्होंने इसे एक नया अंदाज दिया और वो मिट्टी की प्लेट से जुड़ी फैक्ट्री लगा पाए। उनकी कंपनी मिट्टीकूल क्ले क्रिएशंस में वे मिट्टी के नॉन स्टिक तवा,प्लेट आदि बनाते हैं। इसके लिए उन्होंने हैंडप्रैस मशीन बनाई जो एक दिन में 700 प्लेटें बनाती है। इसके बाद उन्होंने मिट्टी के बने फिल्टर व दैनिक उपयोग में काम आने वाले अन्य सामानों का निर्माण किया। आज मिट्टीकूल का अपना स्थायी नाम है। 40 देशों से इनके पास मिट्टी के बने पे्रशर कुकर, कड़ाही, चम्मच, गिलास आदि के ऑर्डर आते हैं। वर्ष 2010 में फोब्र्स की शीर्ष 7 ग्रामीण उद्यमियों की सूची में उनका नाम दर्ज है। इनके मिट्टी से बने उत्पाद ऑनलाइन बाजार में भी उपलब्ध हैं। सही मायनों में मिट्टी की कीमत और माटी का मोल मनसुख भाई प्रजापति ही जान चुके हैं।
(लेखक पद्म भूषण से सम्मानित प्रख्यात पर्यावरण कार्यकर्ता हैं)