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जो अपनी शर्तों पर चाहते हैं जीवन जीना, उनके साथ खड़ा है सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस बात पर बल देकर कि जीवन के अधिकार में सम्मान के साथ मरने का अधिकार भी शामिल है। यह दोहराया है कि एक व्यक्ति को अपने शरीर पर पूर्ण अधिकार है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Tue, 13 Mar 2018 10:47 AM (IST)Updated: Tue, 13 Mar 2018 11:20 AM (IST)
जो अपनी शर्तों पर चाहते हैं जीवन जीना, उनके साथ खड़ा है सुप्रीम कोर्ट
जो अपनी शर्तों पर चाहते हैं जीवन जीना, उनके साथ खड़ा है सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली [शाहिद ए चौधरी] सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक व महत्वपूर्ण फैसले में इस तथ्य पर बल देकर कि जीवन के अधिकार में सम्मान के साथ मरने का अधिकार भी शामिल है और लिविंग विल यानी जीवन संबंधी वसीयत व पैसिव यूथेनेशिया यानी निष्क्रिय इच्छामृत्यळ् को कानूनी वैधता प्रदान करके यह दोहराया है कि एक व्यक्ति की अपने शरीर पर पूर्ण ‘प्रभुसत्ता’ है। इस प्रकार से व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रदान करने के अपने सिलसिले को जारी रखते हुए उसने अन्य अनेक चीजों के लिए भी आधारशिला रखी है, जैसे आत्महत्या के प्रयास को अपराध की श्रेणी से बाहर रखना। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कुछ बुनियादी प्रश्न भी उठाए हैं, जैसे-क्या मृत्यु के अधिकार से इन्कार किया जा सकता है जब स्वास्थ्य के अधिकार की गारंटी नहीं दी गई है?

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अपराध की श्रेणी से बाहर आत्महत्या

इस निर्णय का महत्व इस दृष्टि से अधिक बढ़ जाता है कि सरकार आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर निकालने के संदर्भ में कदम उठा चुकी है व पैसिव यूथेनेशिया को औपचारिक करने के लिए विधेयक ड्राफ्ट कर चुकी है, लेकिन वह लिविंग विल के सिलसिले में बहुत विरोधाभासी संकेत दे रही थी। लिविंग विल का अर्थ है कि अपने पूर्ण होशोहवास और मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य के होते हुए एक बालिग व्यक्ति ऐसी वसीयत तैयार करे कि भविष्य में अगर वह किसी लाइलाज बीमारी से ग्रस्त हो जाए या वेजिटेटिव (अक्रियाशील) स्थिति में फिसल जाए या अपरिवर्तनीय कोमा (अचेतनावस्था) में चला जाए तो डॉक्टर व उसके रिश्तेदार उसे ‘जिंदा’ रखने के लिए दिए जा रहे सहारों (लाइफ सपोर्ट) को हटा दें, जिससे वह ‘अपनी इच्छा’ से अपने जीवन का अंत कर सके, इसे पैसिव यूथैंसिया कहते हैं।

बिल संसद में पेश

गौरतलब है कि 2016 में सांसद बैजयंत पांडा ने आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिए एक प्राइवेट बिल संसद में पेश किया था, जिसमें प्रस्तावित है कि जनाक्रोश व कानून व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न करने वाली आत्महत्याओं को छोड़कर बाकी आत्महत्याओं को अपराध न माना जाए। भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के तहत आत्महत्या का प्रयास करना दंडनीय अपराध है, जिसमें एक वर्ष की कैद या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में ज्ञान कौर मामले में कहा था कि सम्मान के साथ जीवन के अधिकार में प्राकृतिक जीवन पर विराम लगाने का अधिकार शामिल नहीं है, लेकिन अब अपने निर्णय में सळ्प्रीम कोर्ट ने कहा कि बदली हुई घरेलू व अंतरराष्ट्रीय स्थितियों को देखते हुए यह अदालत भविष्य में ज्ञान कौर निर्णय की पुनर्समीक्षा कर सकती है।

हो सकता है दुरुपयोग

बहरहाल लिविंग विल को कानूनी वैधता न देने के संदर्भ में सरकार का यह तर्क रहा है कि लालची रिश्तेदार इसका दुरुपयोग कर सकते हैं। दबे शब्दों में सरकार यह भी कहती है कि हिंदू, मुस्लिम व ईसाई धर्म पैसिव यूथेनेशिया के विरोध में हैं। (बौद्ध व जैन धर्म में इच्छा मृत्यु या संथारा स्वीकार्य है)। लेकिन सरकार का यह तर्क आधारहीन प्रतीत होता है। पैसिव यूथेनेशिया व लिविंग विल के विरोधियों को खामोश करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया कि क्या यह अतार्किक नहीं है कि सरकार स्वास्थ्य के अधिकार की संवैधानिक गारंटी का तो सम्मान कर नहीं पा रही और व्यक्ति को सम्मान के साथ मरने भी नहीं देना चाहती? अपने फैसले में न्यायाधीश एके सीकरी ने कहा, ‘स्वास्थ्य का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 का हिस्सा है। साथ ही यह भी कड़वा सच है कि गरीबी आदि के कारण हर कोई इस अधिकार का उपयोग नहीं कर पाता है।

कठोर शर्ते भी तय

राज्य सभी नागरिकों को यह अधिकार देने की स्थिति में नहीं है। इसलिए जब नागरिकों को स्वास्थ्य के अधिकार की गारंटी नहीं है तो क्या उन्हें सम्मान के साथ मरने के अधिकार से वंचित किया जा सकता है?’ यहां यह दोहराना भी आवश्यक है कि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र के नेतृत्व वाली सळ्प्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक खंडपीठ ने 9 मार्च के अपने निर्णय में यह तो अवश्य कहा कि रोगी का हित राज्य के हित को निरस्त कर देता है, लेकिन उसने साथ ही लिविंग विल को लागू करने के लिए कठोर शर्ते भी तय की हैं, जिससे पैसिव यूथेनेशिया के दुरुपयोग की आशंकाएं काफी हद तक कम हो जाती हैं। पैसिव यूथेनेशिया में किसी भी व्यक्ति को जीवन लेने के असीमित अधिकार नहीं दिए गए हैं और जो सुरक्षा कवच हैं उनमें न्यायिक जांच व मेडिकल बोर्ड (जिसमें डॉक्टरों की टीम होगी) की सिफारिश आवश्यक रूप से शामिल हैं।

व्यक्तिगत निर्णय

मृत्यु को चुनना, जन्म देना, गर्भपात, प्रेम करना, भोजन करना, कपड़े पहनना और कोई धर्म अपनाना अति व्यक्तिगत निर्णय हैं। इसलिए राज्य को मालूम होना चाहिए कि उसकी सीमाएं क्या हैं? जब लाइलाज बीमारी के कारण दर्द व परेशानी असहनीय हो रही हो तो कृत्रिम रूप से जीवन को खींचते रहना बेवकूफी है। इसलिए ऐसे जीवन पर अपनी इच्छा से विराम लगा देना मानव अधिकार व मानवीय इच्छा है। सरकार को इस अधिकार का सम्मान करना चाहिए। पैसिव यूथेनेशिया विधेयक जिसमें लिविंग विल को शामिल नहीं किया गया है वह आधा-अधूरा है, बल्कि अर्थहीन है। जो व्यक्ति कोमा में चला गया है उसके लिए उसके दोस्त या रिश्तेदार क्यों फैसला करें? लिविंग विल में व्यक्ति का अपना निर्णय होता है कि वह बेकार हो चुके ‘जीवन’ को लंबा न खींचे, इसलिए उसमें एक नैतिक बल है।

ऐतिहासिक निर्णय

मेडिकल नैतिकता की मांग है कि डॉक्टर रोगियों व उनके रिश्तेदारों को लाइफ सपोर्ट सिस्टम्स जैसे वेंटीलेटर के उद्देश्य व असर के बारे में सही जानकारी दें। बहरहाल इस ऐतिहासिक निर्णय का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह ‘सम्मान के साथ मृत्यु के अधिकार’ को ‘प्राइवेसी के अधिकार’ के साथ जोड़ता है, क्योंकि मृत्यु बुनियादी तौर पर मानव जीवन चक्र को प्रभावित करती है। न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने लिखा, ‘जिस तरह जन्म, सेक्स व विवाह से संबंधित निर्णय प्राइवेसी के अधिकार के तहत होने के कारण संविधान द्वारा सुरक्षित हैं, यही हाल मृत्यु से संबंधित निर्णय का भी है।’ दूसरे शब्दों में सम्मान के साथ मरने का अधिकार देकर सुप्रीम कोर्ट उन लोगों के समर्थन में खड़ा है जो अपनी शर्तो पर अपना जीवन व्यतीत करना चाहते हैं।

(लेखक इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर से जुड़े हैं)

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