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पुडुचेरी: पिछले चुनाव के बाद ही चढ़ गई थी सियासी उबाल की हांडी, स्थानीय नेतृत्व को किया था दरकिनार

दक्षिण में कांग्रेस का आखिरी किला भी ढह जाने से पार्टी को मुश्किल तो बहुत होने वाली है। यूं तो यहां पर सरकार गिरने से पहले ही वो अपनों के बीच समर्थन खो चुकी थी। उसके कई नेता पार्टी छोड़ चुके थे।

By Kamal VermaEdited By: Published: Thu, 25 Feb 2021 09:00 AM (IST)Updated: Thu, 25 Feb 2021 07:44 PM (IST)
पुडुचेरी: पिछले चुनाव के बाद ही चढ़ गई थी सियासी उबाल की हांडी, स्थानीय नेतृत्व को किया था दरकिनार
दक्षिण में पुडुचेरी था कांग्रेस का आखिरी किला

प्रणव सिरोही। पिछले चालीस वर्षो में यह पहला अवसर है जब कांग्रेस दक्षिण के किसी भी राज्य की सत्ता पर काबिज नहीं रह गई है। गत 22 फरवरी को केंद्रशासित प्रदेश पुडुचेरी में नारायणसामी के नेतृत्व वाली सरकार गिरने के साथ ही दक्षिण में कांग्रेस का अंतिम दुर्ग भी ध्वस्त हो गया। देश की सबसे पुरानी पार्टी की ऐसी दुर्गति तो आपातकाल के बाद हुए उस चुनाव के बाद भी नहीं हुई थी जब शेष भारत में उसका सूपड़ा साफ होने के बावजूद दक्षिण भारत ने उसकी नैया को पूरी तरह डूबने से बचाया था।

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यह वही दक्षिण है जहां उत्तर भारत में अपनी पारंपरिक सीट से किनारा करके इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक जीवन की नई पारी (चिकमगलूर-कर्नाटक, 1978) शुरू की थी। सोनिया गांधी ने भी उत्तर भारत की पुश्तैनी सीटों के बजाय दक्षिण को ही अपने राजनीतिक जीवन का आगाज (बेल्लारी-कर्नाटक), 1998) करने के लिए चुना। और तो और कांग्रेस का वर्तमान और भविष्य माने जाने वाले राहुल गांधी को भी उत्तर से अपना सियासी तंबू उखाड़कर उसे दक्षिण (वायनाड-केरल, 2019) में ही गाड़ना पड़ा।

अब केरल में मजबूरी वाले राजनीतिक विकल्प के रूप में शेष बची कांग्रेस आंध्र और तेलंगाना में लगभग लुप्तप्राय अवस्था में पहुंच गई है। इससे पहले उसने कर्नाटक में अपनी सरकार गंवाई और अब दक्षिण का आखिर किला पुडुचेरी भी उसके हाथ से फिसल गया गया है। इसके क्या राजनीतिक निहितार्थ हैं? कांग्रेस के साथ यह मात्र संयोग है या फिर पिछली गलतियों से कोई सबक न सीखने का परिणाम?

आरंभ से ही असहज: चंद रोज पहले पुडुचेरी विधानसभा में जो हुआ वह यकायक घटित होने वाली राजनीतिक घटना नहीं थी। इस सियासी उबाल की हांडी पिछले चुनाव नतीजों के बाद ही चढ़ गई थी जब स्थानीय नेतृत्व को दरकिनार करते हुए आलाकमान ने वेलू नारायणसामी को इस केंद्रशासित प्रदेश की कमान सौंपी थी। प्रदेश के नेता तबसे उनके खिलाफ मोर्चाबंदी किए हुए थे, लेकिन नारायणसामी कांग्रेस के प्रथम परिवार का भरोसा दिल्ली में संप्रग सरकार के दौरान प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री रहने के दौरान ही जीत चुके थे। इसलिए स्थानीय नेताओं की घेराबंदी के खिलाफ सोनिया, राहुल और प्रियंका का वरदहस्त नारायणसामी के लिए वरदान साबित होता गया। यहां तक कि राहुल अगले चुनाव में भी नारायणसामी को ही मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर चुके थे। इससे अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे कांग्रेसी नेताओं का धैर्य जवाब दे गया और इसकी परिणति चुनाव से चंद महीने पहले ही कांग्रेस सरकार के पतन के रूप में हुई।

भौगोलिक और राजनीतिक रूप से पुडुचेरी भले ही छोटा और पूर्ण राज्य न हो, लेकिन यहां कांग्रेस में गुटबाजी का पुराना इतिहास रहा है। राज्य के लोकप्रिय नेताओं में शामिल और फिलहाल नेता-प्रतिपक्ष एवं कांग्रेस-एनआर के मुखिया एन. रंगास्वामी इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं। उन्हें आंतरिक गुटबाजी के चलते मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया, जिसके चलते वह न केवल कांग्रेस से बाहर निकल गए, बल्कि अपनी राजनीतिक इकाई गठित कर उसके लिए कड़ी चुनौती भी बन गए। वहीं कांग्रेस आलाकमान नेताओं के परिश्रम से अधिक परिक्रमा को ही महत्व देता गया और इसी खूबी के चलते नारायणसामी स्थानीय नेतृत्व को दरकिनार करके मुख्यमंत्री की कुर्सी पर न केवल काबिज होने, बल्कि उस पर कायम रहने में भी सफल रहे।

नारायणसामी की बढ़ती पकड़ के कारण पार्टी की प्रदेश इकाई के पूर्व अध्यक्ष और लोक निर्माण मंत्री रहे ए. नमाशिवायम जैसे नेता इसी साल जनवरी में भाजपा में शामिल हो गए। केवल वही नहीं, बल्कि ई. थिम्पयन जैसे नेता भी उनके साथ हो लिए। यह सिलसिला दर्शाता है कि नारायणसामी सरकार ने विश्वासमत भले ही अभी खोया हो, लेकिन उस पर से अपनों का भरोसा बहुत पहले से ही उठने लगा था। स्पष्ट है कि कांग्रेस आलाकमान दीवार पर लिखी इबारत को भांप नहीं पाया। यहां तक कि हालिया पुडुचेरी दौरे पर गए राहुल गांधी को भी इसकी कोई भनक नहीं लग पाई या फिर वह किसी निर्णायक फैसले की घड़ी में भी अनिर्णय की स्थिति के ही शिकार हुए।

भाजपा के सधे कदम: जहां कांग्रेस आलाकमान इस राजनीतिक घटनाक्रम पर दुविधा और भ्रम का शिकार हुआ, वहीं भाजपा ने बहुत सधी हुई बिसात बिछाई। चूंकि पुडुचेरी केंद्रशासित प्रदेश है तो वहां तमाम महत्वपूर्ण अधिकार उपराज्यपाल के पास होते हैं। नारायणसामी और पूर्व उपराज्यपाल किरण बेदी में इसे लेकर अक्सर खटपट की खबरें भी आती रही हैं। संभावित राजनीतिक परिदृश्य को भांपते हुए भाजपा के नेतृत्व वाली मोदी सरकार ने अप्रत्याशित रूप से यकायक बेदी को वापस बुलाने का फैसला किया। अचानक लिए गए इस फैसले के पीछे राजनीतिक विश्लेषकों का यही मानना रहा कि मोदी सरकार नारायणसामी को केंद्र पर हमला बोलने या अपनी राजनीतिक नियति का ठीकरा फोड़ने का कोई अवसर नहीं देना चाहती थी।

इतना ही नहीं बेदी के स्थान पर मोदी सरकार ने पुडुचेरी का अतिरिक्त प्रभार तमिलनाडु के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित या आंध्र के राज्यपाल विश्व भूषण हरिचंदन के बजाय तेलंगाना की राज्यपाल तमिलसाई सुंदरराजन को सौंपा। असल में सुंदरराजन तमिल मूल की हैं और इसके माध्यम से मोदी सरकार ने स्थानीय जनता को एक संदेश देने का ही काम किया है। इससे भाजपा को तमिल जनता को साधने में मदद मिल सकती है। वैकल्पिक सरकार के गठन को लेकर भी कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई गई है। संभव है कि इस मसले पर विधि विशेषज्ञों और राजनीतिक मंडली में कुछ मंत्रणा चल रही हो, लेकिन अभी तक के संकेत यही मिले हैं कि मोदी सरकार इस प्रकरण का पटाक्षेप पुडुचेरी में तार्किक तरीके से ही करना चाहती है। वह नहीं चाहेगी कि इसकी तपिश दिल्ली तक महसूस हो।

भगवा खेमे का बढ़ा हौसला: पुडुचेरी भले ही छोटा राज्य हो, लेकिन यहां बदली राजनीतिक करवट का असर चेन्नई तक महसूस किया जाएगा। इससे पड़ोसी तमिलनाडु में द्रमुक-कांग्रेस गठजोड़ के दरकने का ही संदेश जाएगा जो चुनाव से ठीक पहले उसकी संभावनाओं पर असर दिखाएगा। तमिल राजनीति पहले से ही बहुत जटिल है और इन बदले हुए हालात से कांग्रेस एवं द्रमुक में कुछ अनबन की आशंका बढ़ेगी। इसके संकेत मिलने भी लगे हैं। द्रमुक के लोकसभा सदस्य जगतरक्षकन ने तीखे तेवर दिखाए हैं। उन्होंने करीब-करीब दो-टूक लहजे में कह दिया है कि कांग्रेस के साथ पुडुचेरी में उनका गठजोड़ अब अनिश्चित पड़ाव पर है।

स्वाभाविक है इसका असर तमिलनाडु में आसन्न विधानसभा चुनाव पर भी पड़ सकता है कि दोनों सहयोगी ही परस्पर विश्वास के संकट से जूझ रहे हैं। इसके उलट पुडुचेरी में कांग्रेस-द्रमुक सरकार गिरने के बाद भाजपा और अन्नाद्रमुक के बीच स्पष्ट लक्ष्य की रेखा के साथ उनके गठजोड़ में आपसी विश्वास बढ़कर उसे और स्थायित्व मिलने के आसार हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि भाजपा फिलहाल पुडुचेरी पर ध्यान केंद्रित करने पर जोर देगी और उसके माध्यम से तमिलनाडु में अपनी पैठ बनाने के मिशन में जुटी रहेगी। वहीं भाजपा के कुछ बदले हुए फोकस से अन्नाद्रमुक तमिलनाडु में अपनी पूरी ऊर्जा लगा सकती है और वहां दोनों के बीच संभावित खींचतान की आशंका घटेगी।

मोदी पर निगाहें: दक्षिण के इन दोनों राज्यों में एक तरह से राजनीतिक अस्पृश्य समझी जाने वाली भाजपा की पूरी उम्मीदें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे पर टिकी हुई हैं। मोदी का चेहरा, केंद्र सरकार के कार्यक्रम और अन्नाद्रमुक के सांगठनिक आधार पर ही भाजपा की समूची संभावनाएं टिकी हुई हैं। फिर भी पुडुचेरी में भाजपा के लिए राह अपेक्षाकृत आसान है। यहां 30 सदस्यीय विधानसभा है जबकि तीन सदस्यों को मनोनीत करने का प्रविधान है, जो केंद्रशासित प्रदेश होने के नाते केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में है।

चुनावी रण में भी भाजपाई खेमे के लिए यहां उतनी मुश्किलें नहीं हैं। नारायणसामी सरकार के खिलाफ सत्ताविरोधी रुझान का लाभ उसे मिल सकता है तो एन. रंगास्वामी जैसे लोकप्रिय नेता उसके पाले में हैं। बस जरूरी ही है कि नमाशिवायम और रंगास्वामी के बीच किसी किस्म की आंतरिक प्रतिद्वंद्विता की ग्रंथि न पली रह जाए, क्योंकि दोनों नेताओं की नजर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर है। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण ही नमाशिवायम ने कांग्रेस से किनारा कर भाजपा का दामन थामा है।

अब सबकी निगाहें प्रधानमंत्री मोदी के 25 फरवरी को होने वाले पुडुचेरी दौरे पर टिकी हैं, जिसमें वह इस केंद्रशासित प्रदेश के लिए अन्नाद्रमुक, एनआर कांग्रेस और भाजपा के गठबंधन की औपचारिक घोषणा करने के साथ ही राज्य के मतदाताओं को लुभाने के लिए कुछ लोकलुभावन घोषणाएं कर सकते हैं। वह नमाशिवायम और रंगास्वामी को लेकर संतुष्टिपरक समायोजन का कोई समीकरण भी तैयार कर सकते हैं। व्यापक रूप से यही माना जा रहा है कि भाजपा के इस गठजोड़ को आसानी से बहुमत का जादुई आंकड़ा मिल सकता है। पुडुचेरी में मिली यह कामयाबी भाजपा के लिए तमिलनाडु की कुंजी बनने की क्षमता रखती है।

कुल मिलाकर पुडुचेरी में जो परिदृश्य आकार ले रहा है वह भाजपा और उसके सहयोगियों के पक्ष में कुछ झुका हुआ है। इसके लिए भाजपाई खेमे की ताकत कम, बल्कि विपक्ष के बिखराव और अंतर्कलह से उपजी कमजोरी अधिक जिम्मेदार दिखती है। ऐसे में भगवा खेमे को बस सही बिसात बिछाने की दरकार है। यदि भाजपा ने सभी पक्षों को साधकर सटीक समीकरण बैठा लिया तो दक्षिण के इस सूबे में उसके गठबंधन की सरकार आसानी से बन सकती है, जो उसकी मूल विचारधारा के प्रखर पुरोधाओं में से एक माने जाते हैं। मोदी के आज के पुडुचेरी दौरे से काफी कुछ तय और स्पष्ट होने की उम्मीद है।


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