स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव में पढ़ें विभाजन की विभीषिका से जुड़े अनसुलझे प्रश्न
एक बहुत लोकप्रिय कथन है कि जो इतिहास से सबक नहीं लेते वे उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं। इसका अभिप्राय यही है कि ऐतिहासिक गलतियों से सीख कर वर्तमान और भविष्य की राह थोड़ी बेहतर बनाई जा सकती है।
सन्नी कुमार। भारत विभाजन के त्रसद अनुभव को याद करना आज इसलिए आवश्यक है, ताकि हम संबंधित मुद्दों की गहराई को समझें और उन पर कोई विवेकपूर्ण सहमति बना सकें, जो विभाजन के लिए उत्तरदायी थे। क्या हमारी राष्ट्रीय स्मृति में विभाजन की त्रसदी उसी सघनता से रची-बसी है, ताकि इसकी पुनरावृत्ति से बचाव की ऊर्जा भी उतनी ही सघन हो? ऐसे तमाम सवालों से गुजरकर ही विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के औचित्य को परखा जा सकेगा।
सबसे पहले उन प्रश्नों की बात कर लेते हैं जो विभाजन के समय निर्णायक थे। ये प्रश्न थे धार्मिक गोलबंदी और इस आधार पर सत्ता में हकदारी की कवायद और धार्मिक असहमति से उत्पन्न हुईं नैतिक दुविधाएं। इन्हीं ने विभाजन की तस्वीर पैदा की। संक्षेप में आजादी की प्रक्रिया देखें तो राष्ट्रीय आंदोलन में एक तरफ जहां ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ की मांग जोर पकड़ रही थी तो उसी के समानांतर धार्मिक अस्मिता को राजनीतिक शक्ति हासिल करने के लिए भी उकसाया जा रहा था। यह उकसावा दो भागीदारों- हिंदू और मुस्लिम के बीच हो रहा था, जिसके कई प्रतिनिधि संगठन थे। एक तरफ से यह दावा क्रमिक रूप से संगठित होता रहा जिसकी मजबूत शुरुआत 1906 में मुस्लिम लीग के गठन के साथ हुई। इसके बाद इस गोलबंदी ने ‘संवैधानिक दर्जा’ तब प्राप्त कर लिया, जब 1909 में मार्ले मिंटो एक्ट के तहत मुस्लिमों के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की गई।
फिर यह गांधीजी के ‘खिलाफत प्रयोग’ के सहारे आगे बढ़ी जब राष्ट्रीय आंदोलन में नितांत धार्मिक प्रश्न को शामिल कर लिया गया था। एक तरफ मुस्लिम गोलबंदी बढ़ रही थी तो दूसरी तरफ प्रतिक्रिया में हिंदू पुनरुत्थानवाद भी जोर पकड़ने लगा, जिसे मुख्य हवा हिंदू महासभा संगठन द्वारा दी जा रही थी। धीरे-धीरे यह गोलबंदी हिंदू-मुस्लिम के ‘दो अलग राष्ट्र’ होने की सैद्धांतिकी और इसके प्रति नागरिक सहमति में तब्दील होने लगी। चौधरी रहमत अली, इकबाल और जिन्ना के सहारे इस सैद्धांतिकी ने ‘पाकिस्तान के विचार’ को जन्म दिया तो वहीं दूसरी ओर हिंदू राष्ट्र की निर्मिति पर समूहीकरण गंभीर होने लगा। इस बीच अनेक घटनाएं हुईं, लेकिन इसकी अंतिम परिणति राष्ट्र विभाजन के रूप में हुई।
सवाल यह है कि धार्मिक आधार पर हो रही राजनीतिक गोलबंदी को रोकने के लिए तब क्या प्रयास किए गए? वस्तुत: इसके प्रत्युत्तर में ‘सेकुलरवाद’ को आजमाया गया। यह मानकर कि राष्ट्र का प्रश्न समुदाय के प्रश्न से बड़ा है, इसलिए एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था के निर्माण पर जोर दिया गया जहां धार्मिक अंतर खप जाएं। यह आग्रह मूलत: कांग्रेस की ओर से आया था, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसी व्यवस्था बन नहीं पाई। हिंदू पुनरुत्थानवाद पर इससे जुड़ी अलगाव की प्रवृत्तियों पर तो काबू पा लिया गया, लेकिन पाकिस्तान के निर्माण तक पहुंच चुकी मुस्लिम मांग को रोका नहीं जा सका। इसकी एक वजह तो अंग्रेजी नीति थी ही, पर वहीं दूसरी ओर मुस्लिम जनता का व्यापक समर्थन भी इसे प्राप्त था। इसका प्रमाण वर्ष 1946 के चुनावों में मिला, जब मुस्लिम लीग ने एकतरफा ढंग से मुस्लिम मतों को हासिल किया और इसे पाकिस्तान के पक्ष में जनमत संग्रह माना गया।
यद्यपि पाकिस्तान का निर्माण हुआ और भारत ने एक सेकुलर देश होना चुना, लेकिन अगर धार्मिक अंतर पर फिर से राष्ट्र की मांग होने लगे तो हमारे पास कौन से उपकरण हैं जिनसे हम इस प्रक्रिया को रोक सकेंगे? केवल संवैधानिक प्रविधानों के सहारे इसे रोकना संभव नहीं होगा और दूसरा कोई विकल्प दिख भी नहीं रहा। सेकुलरवाद का प्रयोग एक बार विफल हो चुका है। फिर हमने इतिहास से क्या सबक सीखा? शायद कुछ ठोस नहीं।
दूसरा पक्ष है धार्मिक असहमतियों से उपजे नैतिक प्रश्न। वस्तुत: भारत में परस्पर विरोधी सांस्कृतिक मूल्यों के कारण पैदा हुई नैतिक असहमतियों का राजनीतिक हल खोजने की कभी कोशिश नहीं हुई। विविधता के नष्ट हो जाने के डर या बहुसंख्यक संस्कृति के हावी हो जाने के भय से यहां सामाजिक एकीकरण पर बहुत ध्यान नहीं दिया गया तथा सार्वभौम नागरिक निर्माण की परियोजना अधूरी ही रह गई। इसके अलावा वैविध्य बनाए रखने के लिए जो प्रयास हुए उसका एक संदेश यह भी गया कि जानबूझकर बहुसंख्यक के धार्मिक पहचान को बेअसर करने की कोशिश हुई और अल्पसंख्यक को अपनी पहचान धार्मिक रूप से गढ़ने के लिए न केवल छूट दी गई, बल्कि प्रोत्साहित भी किया गया। यही स्थिति विभाजन के समय भी थी कि जब सेकुलर घोषणाएं की जा रही थीं, तब सार्वजनिक जीवन में धार्मिक पहचान को व्यक्त करने की गति और बढ़ गई। यही स्थिति अब भी है। यह अनायास नहीं है कि ‘धार्मिक जुलूस विवाद’ और ‘गोरक्षा’ जैसे प्रश्न तस के तस हैं। तो इस संदर्भ में इतिहास का सबक यही कहता है कि कुछ नए समाधान तलाशने होंगे।
वस्तुत: इतिहास की ध्वनियों को सुनना होगा और कुछ नए और कठिन समाधान तलाशने ही होंगे। वर्तमान के शोर में उस ध्वनि को अनसुना करने से कोई हल नहीं निकलेगा। दोनों समुदायों की चिंताओं और विवेक पर भरोसा करना पड़ेगा। विवाद के विषयों पर संवाद करना होगा। ऐसा करना बहुत मुश्किल नहीं है, क्योंकि जब देश आजाद हुआ और एक नए किस्म का राष्ट्र बना तो जाहिर तौर पर उसके सभी हितधारकों ने कुछ हासिल किया तो कुछ खोया भी। उदाहरण के लिए मुस्लिम समुदाय ने अत्यधिक ध्रुवीकृत समय में अल्पसंख्यक की हैसियत के साथ एक नए राष्ट्र को स्वीकारने का साहस किया तो हिंदू समुदाय ने धर्म के आधार पर नए राष्ट्र बन जाने के बावजूद सेकुलर राज्य की निर्मिति के प्रति अपनी सहमति थी। अब समय वहां से आगे बढ़ने का है। इसमें इतिहास मदद करेगी। और इसलिए ही विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस जैसे प्रयोग आवश्यक हैं।
[अध्येता, इतिहास]