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प्रिंस ऑफ आरकोट को सरकारी ग्रांट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई याचिका

याचिका में कानूनी सवाल उठाते हुए कहा गया है कि ब्रिटिश सरकार द्वारा एक पत्र द्वारा किसी परिवार या व्यक्ति को दिया गया टाइटल क्या भारत का संविधान लागू होने के बाद जारी रह सकता है।

By Dhyanendra SinghEdited By: Published: Sun, 31 May 2020 08:25 PM (IST)Updated: Sun, 31 May 2020 08:32 PM (IST)
प्रिंस ऑफ आरकोट को सरकारी ग्रांट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई याचिका
प्रिंस ऑफ आरकोट को सरकारी ग्रांट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई याचिका

जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल हुई है जिसमें आरकोट के नवाब यानी प्रिंस ऑफ आरकोट को सरकारी ग्रांट देने और उन्हें वंशानुगत प्रिंस आफ आरकोट का टाइटल दिये जाने को चुनौती दी गई है। याचिका में कहा गया है कि देश के स्वतंत्र होने और भारतीय संविधान लागू होने के बाद प्रिंस ऑफ आरकोट का वंशानुगत टाइटल दिया जाना संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 (कानून के समक्ष समानता) के खिलाफ है। यह भी कहा गया है कि प्रिंस ऑफ आरकोट के महल के रखरखाव पर सालाना 2 करोड़ से ज्यादा सरकारी धन खर्च किया जाना भी गैरकानूनी है।

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सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका तमिलनाडु चेन्नई में रहने वाले एस कुमारवेलु ने वकील विष्णु शंकर जैन के जरिये दाखिल की है। कुमारवेलु ने मद्रास हाईकोर्ट से जनहित याचिका खारिज होने के बाद सुप्रीम कोर्ट में यह विशेष अनुमति याचिका दाखिल की है।

उठाए गए कई सवाल

याचिका में कानूनी सवाल उठाते हुए कहा गया है कि ब्रिटिश सरकार द्वारा एक पत्र द्वारा किसी परिवार या व्यक्ति को दिया गया टाइटल क्या भारत का संविधान लागू होने के बाद जारी रह सकता है। क्या संविधान लागू होने के बाद किसी का स्पेशल स्टेटस और और वंशानुगत टाइटल संविधान के भाग तीन के मुताबिक जारी रह सकता है। क्या संविधान का अनुच्छेद 14,15 और 16 प्रिंस ऑफ आरकोट का टाइटल जारी रखने और राजमहल व पेंशन देने की इजाजत देता है।

संविधान के अनुच्छेद 18 का उल्लंघन नहीं

याचिका में यह भी कानूनी सवाल उठाया गया है कि ब्रिटिश सरकार के प्रिंस ऑफ आरकोट का टाइलटल देने वाले 2 अगस्त 1870 के पत्र के 1952 में जब कोई भी पुरुष उत्तराधिकारी नहीं रहा उसके बाद भारत सरकार का नये सिरे से 23-24 अक्टूबर 1952 को प्रिंस ऑफ आरकोट के टाइटल को मान्यता देना संविधान के अनुच्छेद 18 का उल्लंघन नहीं है। कहा गया है कि जब 26वें संविधान संशोधन के जरिए 7 सितंबर 1979 को प्रिवि पर्स (राजाओं को मिलने वाली पेंशन और ग्रांट) समाप्त कर दिया गया तो फिर उसके बाद भी कुछ लोगों के लिए इसे जारी रखना संविधान संशोधन की मंशा के खिलाफ नहीं है।

याचिका में कहा गया है कि क्या जिन लोगों को ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी दिखाने पर लेटर पेटेन्ट जारी कर दिया गया टाइटल और बिल्डिंग का अधिकार आजाद भारत में भी जारी रह सकता है। प्रिंस ऑफ आरकोट का टाइटल जारी रहने और महल का रखरखाव सरकारी खर्च पर होने को चुनौती देते हुए कहा गया है कि सरकार इसे जारी रखते समय यह भूल गई है कि संविधान के अनुच्छेद 372(1) के तहत लागू कानून में वही लागू होगा जो संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16 व 18 सहित भाग तीन के प्रावधानों के अनुकूल होगा।


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