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जब चीन के 1500 सैनिकों के लिए काल बन गई थी शैतान की छोटी सी टुकड़ी

1962 में हुई चीन से हुए युद्ध में भारत को काफी कुछ नुकसान उठाना पड़ा था। लेकिन इसके बावजूद कई मोर्चों पर भारतीय जांबाज ने अपनी उत्‍कृष्‍ठ वीरता का परिचय देते हुए दुश्‍मन पर काल बनकर टूटे थे।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sat, 17 Nov 2018 12:47 PM (IST)Updated: Sun, 18 Nov 2018 09:52 AM (IST)
जब चीन के 1500 सैनिकों के लिए काल बन गई थी शैतान की छोटी सी टुकड़ी
जब चीन के 1500 सैनिकों के लिए काल बन गई थी शैतान की छोटी सी टुकड़ी

नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। 1962 में हुई चीन से हुए युद्ध में भारत को काफी कुछ नुकसान उठाना पड़ा था। लेकिन इसके बावजूद कई मोर्चों पर भारतीय जांबाज ने अपनी उत्‍कृष्‍ठ वीरता का परिचय देते हुए दुश्‍मन पर काल बनकर टूटे थे। इनमें से ही एक मोर्चा था चुशूल की पहाडि़यां। यह जम्‍मू कश्‍मीर के लद्दाख में स्थित है। रेजांग ला यहां का एक दर्रा है, जहां से चुशूल घाटी में प्रवेश मिलता है। यह वही पहाडि़यां थी जहां 17-18 नवंबर 1962 को मेजर शैतान सिंह की छोटी सी टुकड़ी तैनात थी और दुश्‍मन पर अपनी पैनी निगाह रखे हुए थी। भारतीय जांबाजों के पास गोलाबारूद कम था, चीन के मुकाबले टुकड़ी भी बेहद छोटी थी, लेकिन उनका हौसला चट्टान की तरह मजबूत था। इस जगह पर भारतीय सेना के जांबाजों ने चीन के सैनिकों के दांत खट्टे कर दिए थे।

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एक परिचय
शैतान सिंह का जन्म 1 दिसम्बर 1924 को राजस्थान के जोधपुर जिले के बंसार गांव में हुआ था। उनके पिता लेफ्टिनेंट कर्नल हेम सिंह थे जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ्रांस में भारतीय सेना के साथ सेवा की और ब्रिटिश सरकार द्वारा ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर (ओबीई) से सम्मानित किए गए थे। मेजर सिंह स्नातक स्तर की पढ़ाई पूरी करने पर सिंह जोधपुर राज्य बलों में शामिल हुए। जोधपुर की रियासत का भारत में विलय हो जाने के बाद उन्हें कुमाऊं रेजिमेंट में स्थानांतरित कर दिया गया। उन्होंने नागा हिल्स ऑपरेशन तथा 1961 में गोवा के भारत में विलय में हिस्सा लिया था। 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान, कुमाऊं रेजिमेंट की 13वीं बटालियन को चुशूल सेक्टर में तैनात किया गया था। सिंह की कमान के तहत सी कंपनी रेज़ांग ला में एक पोस्ट पर थी। चीन से बढ़ते खतरे को भांपते हुए उन्‍हें वहां पर छोटी सी टुकड़ी के साथ तैनात किया गया था। यह स्‍थान समुद्र तल से 5,000 मीटर (16,000 फीट) की ऊंचाई पर स्थित था।

1962 की वो जंग
वह 17-18 नवंबर, 1962 की रात थी। बहुत तेज बर्फीला तूफान रेजांग ला की पहाड़ियों पर छाया था। लगभग तीन घंटों के बाद यह थम तो गया, लेकिन चारों तरफ अंधेरा बना रहा। सुबह के 3.30 बजे मौसम थोड़ा साफ हुआ और 600 मीटर तक दिखाई देने लगा। ड्यूटी पर तैनात संतरी ने चीनियों को बड़ी संख्या में आते देखा। यह बहुत विचित्र हरकत थी और इससे पहले कि कुमुक आगे भेजी जाए, चीनी सैनिक इलाके में आ चुके थे। 13-कुमाऊं की चार्ली कंपनी अब स्टैंड टू पर आ चुकी थी। मंजे हुए कंपनी कमांडर मेजर शैतान सिंह ने रेडियो पर सबको तैयार रहने को कहा। पूरी चार्ली कंपनी अपनी खंदकों में राइफल के ट्रिगर पर उंगुली लगाए साफ मौसम का इंतजार कर रही थी। सुबह के पांच बजते-बजते मौसम साफ हो गया। शत्रु खराब मौसम का फायदा उठाकर नजदीक आने में कामयाब तो हो गया, लेकिन अब वे पूरी तरह से सामने थे। चीनी सैनिक झुंडों में आकर हमला करने लगे।

चीनी सैनिकों का मोर्टार से हमला
भारतीय सैनिकों ने उनपर एलएमली, एमएमजी और मोर्टार से हमला शुरू कर दिया था। कई सैनिकों के मारे जाने के बाद भी चीन की तरफ से एक के बाद एक टुकड़ी लगातार मोर्चा संभाल रही थी। मेजर शैतान सिंह की कंपनी पर चारों तरफ से चीनी सैनिक हमला शुरू कर चुके थे। वह जानते थे कि शैतान सिंह की छोटी सी टुकड़ी को खत्‍म किए बिना यहां से आगे बढ़पाना नामुमकिन है। इसलिए उनके निशाने पर खुद शैतान सिंह पहले नंबर पर थे। लगातार घंटों से चली आ रही लड़ाई के बाद एक समय ऐसा आया जब शैतान सिंह की टुकड़ी के पास असलाह कम होता जा रहा था, लेकिन चीन के सैनिक लगातार बढ़ रहे थे। ऐसे में सामने आकर अपनी राइफल्‍स से सीधे उनपर हमला करने के अलावा कोई और चारा नहीं बचा था।

भारतीय जवानों ने 1500 सैनिकों की बिछा दी थी लाशें
शत्रु की पांचवीं टुकड़ी भी वहां पर आ चुकी थी और लगातार फायर कर रही थी। ऐसे में भारतीय वीर सैनिकों ने बाहर आकर चीनी सैनिकों पर बेनट से हमला कर दिया। उनके इस हौसलों के आगे चीनी सैनिक बेबस होकर किसी मिट्टी के ढेर की तरह जगह जगह बिखरे पड़े थे। चीनियों का सामने से किया हुआ हमला 5:45 बजते-बजते फेल हो चुका था। इस लड़ाई में करीब 1,500 चीनी सैनिक या तो मारे जा चुके थे या अपनी अंतिम घड़ियां गिन रहे थे। चीन की सेना के आला अधिकारियों को इसकी खबर भी लग चुकी थी। ऐसे में चीन ने अपनी रणनीति में बदलाव लाते हुए रेजांग ला के ऊपर तोपों, मोर्टार, 106 आरसीएल और 132 एमएम रॉकेटों से अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। दुर्भाग्य से मेजर शैतान सिंह की कंपनी के पास न तो कोई तोपखाने या मोर्टार का सपोर्ट था और न ही कहीं से भी किसी प्रकार की सहायता मिल पाई थी।

लगातार हो रहे थे चीनी सैनिकों के हमले
भारतीय सैनिकों की इस छोटी सी टुकड़ी की यह कमी उजागर होने के बाद चीनी सैनिकों ने फिर से हमले की तैयारी शुरू कर दी। इस बार पहले से कहीं ज्‍यादा संख्‍या में चीनी सैनिक उस तरफ बढ़ रहे थे। भारतीय सैनिकों के पास गोला बारूद खत्‍म हो चुका था और उन्‍हें रोकने के लिए अब केवल हाथों का ही सहारा बाकी था। ऐसे में भारतीय सैनिक दुश्‍मन पर निहत्‍थे ही काल बनकर टूट पड़े। लेकिन चीनी सैनिकों की निगाहें मेजर शैतान सिंह पर टिकी थीं, लिहाजा चीनी सैनिकों को यह आदेश दिया गया था कि सबसे पहले शैतान सिंह को ही निशाना बनाया जाए। इस आमने सामने की जंग में मेजर शैतान सिंह के हाथ में एलएमजी की गोली लगी, लेकिन उन्होंने भारतीय जवानों का जोश और आत्मविश्वास को कम नहीं होने दिया।

चीनी सैनिकों के निशाने पर थे शैतान सिंह
उन्हें अपनी जान की कोई परवाह नहीं थी और जवानों का हौसला बढ़ाते रहे। तभी शत्रु की एमएमजी की एक गोली उनके पेट में लगी। इससे बेपरवाह उन्‍होंने खुद अपनी पट्टी की, लेकिन उनका बहुत ज्यादा खून बह चुका था। ऐसे में उन्होंने अपने जवान को उन्‍हें वहीं छोड़ कर बटालियन हेडक्वार्टर तुरंत जाकर सूचना देने का आदेश दिया। यह ऐसा समय था जब हैडक्‍वार्टर से रेडियो संपर्क भी टूट चुका था और फोन लाइन कट चुकी थी। लेकिन उन्‍होंने अपनी अंतिम सांस तक दुश्‍मन को आगे नहीं आने दिया और वीरगति को प्राप्‍त हो गए। यहां मिली हार के बाद चीन ने 21 नवंबर, 1962 को एकतरफा युद्ध-विराम की घोषणा कर दी।

आज भी है रेजांग कंपनी
युद्ध विराम के बाद जब 13-कुमाऊं रेजिमेंट एक बार फिर इकट्ठा तो हुई तो वहां पर चार्ली कंपनी नहीं थी। इस युद्ध में भारत के 123 में से 109 सैनिक शहीद हुए थे। इस कंपनी के जवानों की वीरता को देखते हुए इसका नाम बदलकर ‘रेजांग ला कंपनी' कर दिया गया। आज भी 13-कुमाऊं रेजिमेंट में चार्ली कंपनी नहीं है, सिर्फ ‘रेजांग ला कंपनी' है। 1963 फरवरी में इंटरनेशनल रेड क्रॉस के तत्वावधान में एक ग्रुप रेजांग ला गया था। सभी वीर जवानों के शव बर्फ से ढके पाए गए। मेजर शैतान सिंह का शरीर भी वहीं मिला। 1963 में मेजर शैतान सिंह को सर्वोच्‍च वीरता पुरस्‍कार मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।

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