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वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकता है तय समयसीमा से पुराने वाहनों को सड़कों से हटाना

केंद्र सरकार ने हाल ही में नेशनल आटोमोटिव स्क्रैपेज नीति का एलान किया है। निश्चित तौर पर सरकार का यह एक बड़ा कदम है जिससे देश के आटो सेक्टर और परिवहन व्यवस्था में व्यापक बदलाव होने की उम्मीद है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 24 Aug 2021 10:06 AM (IST)Updated: Tue, 24 Aug 2021 10:09 AM (IST)
वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकता है तय समयसीमा से पुराने वाहनों को सड़कों से हटाना
वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए महत्वपूर्ण साबित तय समयसीमा से पुराने वाहनों को सड़कों से हटाना। फाइल

अविनाश चंचल। वायु प्रदूषण भारत के लिए आज एक बड़ी समस्या है। देश की एक बड़ी आबादी आज दूषित हवा में सांस लेने को मजबूर है। देशभर में सालाना करीब दस लाख लोगों की मौत जीवाश्म ईंधन जनित वायु प्रदूषण के कारण हो रही है। इसका हमारी अर्थव्यवस्था पर भी गहरा असर पड़ रहा है। वायु प्रदूषण की वजह से देश की जीडीपी को पांच से छह प्रतिशत तक अतिरिक्त बोझ उठाना पड़ रहा है। जाहिर है, सरकारों के लिए भी वायु प्रदूषण एक बड़ी समस्या बन गई है।

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ऐसे में सरकार हालिया जारी स्क्रैपेज नीति से कई उद्देश्य पूरे करना चाह रही है। इस नीति का मकसद न केवल वायु प्रदूषण को कम करना है, बल्कि यह भारत की जलवायु प्रतिबद्धता की राह को भी आसान बनाएगा और इससे ईंधन की क्षमता बेहतर होगी। सड़क सुरक्षा को सुनिश्चित करने के साथ ही यह आटो, स्टील व इलेक्ट्रानिक उद्योगों के लिए कच्चे माल की उपलब्धता को भी बढ़ाएगा। फिलहाल पुराने वाहनों को स्क्रैप करने की कोई नीति नहीं है और यह क्षेत्र ज्यादातर असंगठित ही है। इस नीति में सरकार द्वारा पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप की तर्ज पर वाहनों को स्क्रैप करने के लिए केंद्र खोलने की भी बात की गई है जिससे स्क्रैपिंग करते वक्त पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो और यह सेक्टर बेहतर तरीके से संगठित हो सके।

वायु प्रदूषण के लिहाज से देखें तो जीवाश्म ईंधन से चलने वाले निजी वाहन वायु प्रदूषण की एक बड़ी वजह हैं। दिल्ली समेत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ही खराब हवा के लिए 30-35 प्रतिशत तक परिवहन सेक्टर का योगदान है। भारत में 50 लाख से ज्यादा ऐसे वाहन हैं जो बीस साल से पुराने हैं, वहीं 34 लाख वाहन 15 साल से अधिक पुराने हैं। ये वाहन नए की तुलना में अधिक प्रदूषण फैलाते हैं। वहीं दूसरी तरफ भारत में तेल की खपत में निरंतर बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है। कारों की संख्या में भी लगातार वृद्धि हो रही है। एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1951 से 2015 के बीच वाहनों की संख्या में 700 गुना वृद्धि हुई है।

ऐसा नहीं है कि हमारे देश में कारों का इस्तेमाल करने वाले ही बड़ी संख्या में हैं। जनगणना 2011 के मुताबिक, भारत में 24 प्रतिशत लोग काम के लिए सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करते हैं, वहीं 50 प्रतिशत ऐसे लोगों की संख्या है जो पैदल या फिर नान मोटराइज्ड यानी साइकिल से काम पर जाते हैं। लेकिन अगर हम शहरों की तरफ देखें तो यहां बनाए जा रहे ज्यादातर इंफ्रास्टक्चर सिर्फ कार चलाने वालों की सुविधा के लिए बनाए जा रहे हैं। चाहे वह फ्लाईओवर हो या फिर चौड़ी सड़कें हों। ऐसे में साइकिल और पैदल चलने वालों के लिए शहरों में जगह सिकुड़ती जा रही है। सार्वजनिक परिवहन के बड़े साधन के रूप में बसों की संख्या में कमी होना भी बड़ी समस्या है। पांच भारतीय शहरों के एक विश्लेषण के अनुसार नगर निकाय अपने बजट का करीब 25 प्रतिशत हिस्सा परिवहन पर खर्च करते हैं। इसमें 45 प्रतिशत मोटराइज्ड वाहनों के इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे सड़क बनाना या सड़क को ठीक करने पर किया जाता है, वहीं सिर्फ 15 प्रतिशत सार्वजनिक परिवहन पर खर्च होता है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि कैसे सार्वजनिक परिवहन या नान मोटराइज्ड परिवहन को हमारे शहर नजरअंदाज कर रहे हैं, जबकि देश की एक बड़ी आबादी आज भी इस पर निर्भर है। सार्वजनिक परिवहन के बेहतर न होने की वजह से लोगों का रुझान निजी वाहनों की तरफ जाता है, जो न सिर्फ ट्रैफिक समस्या बढ़ा रहा है, बल्कि वायु प्रदूषण का भी एक बड़ा कारण बन गया है।

कोविड के दौरान हमने देखा कि बड़ी संख्या में शहरी लोग साइकिल की तरफ मुड़े। साइकिल की एडवांस बुकिंग की खबरें आने लगीं। जाहिर है, लोगों ने साइकिल का महत्व समझा, स्वास्थ्य से जुड़े उसके फायदे को समझते हुए उसकी तरफ लौटने लगे। लेकिन यह बदलाव ज्यादा वक्त तक टिकाऊ नहीं बन पाया, क्योंकि हमारे शहरों में साइकिल चलाने के लिए सुरक्षित जगह नहीं बनाई जा सकी है। जिन शहरों में थोड़े बहुत साइकिल लेन दिखते भी हैं वहां या तो साइकिल ट्रैक खराब हो चुके हैं या फिर उन पर लोगों ने कब्जा कर रखा है। दूसरी तरफ सार्वजनिक परिवहन एक चुनौती भरे दौर से गुजर रहा है। कोविड के बाद सार्वजनिक परिवहन पर संकट और गहरा हुआ है। इसमें होने वाली भीड़ की वजह से लोगों में इसके इस्तेमाल को लेकर शंका उत्पन्न हुई है। लेकिन अभी भी एक बड़ी आबादी इसका इस्तेमाल कर रही है, क्योंकि वह निजी वाहन का खर्च वहन नहीं कर सकती है। ऐसे में राज्य सरकारों को चाहिए कि वो सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में कोविड से जुड़े सुरक्षा के सभी उपाय करे, ताकि सार्वजनिक परिवहन पर लोगों के विश्वास को फिर से हासिल किया जा सके। सार्वजनिक परिवहन न सिर्फ पर्यावरण के लिहाज से फायदेमंद है, बल्कि हमारे शहरों में कार की वजह से कम पड़ती जगह की समस्या का भी समाधान कर सकती है।

परिवहन व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव तभी संभव है जब स्क्रैपिंग जैसी नीतियों के साथ साथ सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था के ढांचे को भी दुरुस्त किया जाए। आम लोग कार से इतर साइकिल और बस-मेट्रो जैसी ज्यादा पर्यावरण अनुकूल परिवहन व्यवस्था को वरियता दें। आज शहरी विकास मंत्रलय साइकिल और सार्वजनिक परिवहन को लोकप्रिय बनाने के लिए शहरों को प्रोत्साहित कर रहा है, कई तरह के ऐसे कार्यक्रम चला रहा है जिसके तहत परिवहन व्यवस्था को ज्यादा समावेशी और पर्यावरण के अनुकूल बनाया जा सकता है। इसके लिए स्थानीय निकायों को अपने शहरों में इंफ्रास्ट्रक्चर ठीक करने के साथ ही उन्हें अपने नागरिकों को भी इन कार्यक्रम में शामिल करना होगा, ताकि उनके व्यवहार को सकारात्मक तरीके से बदला जा सके और वह भी शहरों के लिए बेहतर परिवहन व्यवस्था बनाने में अपना योगदान दे सकें।

[पर्यावरण मामलों के जानकार]


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