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ड्रेनेज सिस्‍टम में बह गए करोड़ों रुपये, सैकड़ों वर्ष पहले कुछ शहरों में थी बेहतर व्‍यवस्‍था, अब हुई तबाह

वर्षों पहले देश के कुछ शहरों मेंड्रेनेज सिस्‍टम की बेहतर व्‍यवस्‍था थी लेकिन अब वह पूरी तरह से खत्‍म हो चुकी है। नई व्‍यवस्‍था में करोड़ों खर्च होने के बाद भी कोई फायदा नहीं हुआ।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 07 Sep 2020 10:09 AM (IST)Updated: Mon, 07 Sep 2020 10:09 AM (IST)
ड्रेनेज सिस्‍टम में बह गए करोड़ों रुपये, सैकड़ों वर्ष पहले कुछ शहरों में थी बेहतर व्‍यवस्‍था, अब हुई तबाह
ड्रेनेज सिस्‍टम में बह गए करोड़ों रुपये, सैकड़ों वर्ष पहले कुछ शहरों में थी बेहतर व्‍यवस्‍था, अब हुई तबाह

नई दिल्‍ली (जेएनएन)। तेज शहरीकरण ने वहां की जल निकासी व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया है। देश के दस लाख आबादी से अधिक शहरों की बानगी तो कम से कम यही कहानी कह रही है। अगले दस साल में देश की 40 फीसद आबादी शहरों में रहने लगेगी। ऐसे में नीति-नियंताओं को चेतना होगा।

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दफन होते गए नाली-नाले

लखनऊ: उत्तर प्रदेश में दस लाख से अधिक आबादी के हर शहर की एक जैसी कहानी है। उदाहरण प्रयागराज और वाराणसी है जहां ड्रेनेज सिस्टम के लिए करोड़ों रुपये बहाए गए, लेकिन व्यवस्था आज तक नहीं बन सकी। मेरठ शहर में भी जरा सा पानी बरसा और सड़कें लबालब। यही हाल अलीगढ़, बरेली, आगरा, मुरादाबाद व अन्य शहरों का है। गोरखपुर में अभी मास्टर प्लान तैयार हो रहा है तो वाराणसी में शाही नाले के जीर्णोद्धार पर काम हो रहा है।

बेहतर व्यवस्था हुई बदतर

कोलकाता: सन 1690 में जब एक अंग्रेज व्यापारी जॉब चार्नाक ने यहा ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक मुख्यालय की नींंव रखी थी, तब यह एक छोटा सा गांव था। उस समय न तो ड्रेनेज और न ही सीवरेज था। हालांकि, कोलकाता के इर्द-गिर्द ऐसी भौगोलिक स्थिति थी, जिससे यहां जल निकासी व्यवस्था की शुरू में जरूरत ही नहीं पड़ी। परंतु, जैसेजैसे जनसंख्या बढ़ती गई और शहर फैला तो ड्रेनेज सिस्टम की जरूरत भी महसूस हुई। इसके बाद कोलकाता के आसपास के इलाकों में बड़े नाले (जिसे यहां खाल भी कहा जाता है) तैयार किए गए। फिर, आबादी अधिक बढ़ी तो 1878 में 180 किमी भूमिगत ड्रेनेज विकसित की गई, जिसमें 88 किमी ऐसे ड्रेन थे, जिसमें मानव-प्रवेश कर सकता था और 92 किमी ईंट से तैयार ड्रेन थे जिसमें लोग नहीं घुस सकते थे। इसके बाद भी कई और बड़े नाले बनाए गए। इसी ड्रेनेज व्यवस्था पर आज भी कोलकाता निर्भर है। परंतु, अब स्थिति काफी बिगड़ गई है। अंग्रेजों के जमाने में बने ड्रेनेज में से 2015 में महज 26 किमी भूमिगत ईंट ड्रेनेज लाइनों को ही पाइप लाइनों में बदला जा सका है।

दो तिहाई नाले हुए खत्म

जम्मू: जम्मू-कश्मीर की शीतकालीन राजधानी जम्मू को राजा जंबूलोचन ने 9वीं शताब्दी में बसाया था। उस समय जम्मू करीब पांच वर्ग किलोमीटर में फैला था। अब शहर की आबादी 16 लाख है। बरसात का पानी नालों के जरिए तवी नदी में जाता है। आबादी बढ़ने के साथ पक्के मकान भी बढ़ते गए। चौदह बड़े नाले शहर के बीच आ गए। तब ये नाले 50 से 60 फीट चौड़े थे जो अतिक्रमण के कारण अब 10-20 फीट ही रह गए हैं। जम्मू पश्चिम में सीवरेज शुरू होने से शहर के करीब 20 प्रतिशत हिस्से में जल निकासी में थोड़ा सुधार हुआ, लेकिन निचले क्षेत्र आज भी तेज बारिश में जलभराव समस्या झेलते हैं। जम्मू शहर में करीब 1800 किलोमीटर नालियां और करीब 200 किलोमीटर लंबे नाले हैं। 76 ड्रेनेज योजनाएं हैं। इनमें से 8 योजनाएं प्रस्तावित हैं।

पांच हजार साल पहले बसे श्रीनगर की आबादी इस समय 12 लाख से ऊपर पहुंचने के बावजूद यहां 60 फीसद क्षेत्र में ड्रेनेज व्यवस्था ही नहीं है। 1960 के बाद ड्रेनेज प्रणाली तैयार की गई। उस समय श्रीनगर की आबादी ढाई लाख थी। 1991 के मास्टर प्लान में ड्रेनेज प्रणाली को बेहतर बनाने का खाका बुना गया, लेकिन इसे अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका। इस वर्ष 54.7 करोड़ रुपये की लागत वाली स्टार्म वाटर ड्रेनेज परियोजना शुरू की गई है। इसमें 40.23 किलोमीटर लंबा स्टार्म वाटर नेटवर्क तैयार किया जा रहा है। 1400 किमी लंबी नालियां हैं और नगर निगम 750 किमी लंबी नालियों का जिम्मा संभाल रहा है।

झील के सहारे रहा हरियाणा

चंडीगढ़: प्रदेश में दस लाख से अधिक आबादी वाले दो बड़े शहर गुरुग्राम और फरीदाबाद हैं। फरीदाबाद शहर 1607 में मुगल शासक जहांगीर के खजांची शेख फरीद ने शेरशाह सूरी मार्ग के पूर्व में बसाया था। 1949 के बाद इस शहर का विकास हुआ। नई ड्रेनेज लाइन 1970 के दौरान नए सेक्टरों में तो डाली गई मगर यह लाइन कहां से शुरू हुई और किस नदी-नाले में मिलेगी, इसका छोर या अंत किसी को नहीं पता। 2010 में पुराना फरीदाबाद में 30.64 करोड़ रुपये की लागत से जवाहर लाल नेहरू अर्बन रिन्यूवल मिशन के तहत ड्रेनेज लाइन डाली गई थी मगर यह लाइन भी बरसाती पानी की निकासी के लिए कभी कारगर साबित नहीं हुई।

अब बरसाती पानी या तो सीवरेज लाइन में समाहित होकर डिस्पोजल केंद्रों तक पहुंचता है या फिर अतिक्रमणों से टकराता हुआ दो-चार दिन में अपने आप नदी-नालों की तरफ निकल जाता है। वहीं, पूरा गुरुग्राम निचले क्षेत्र में बसा है। यह कभी 1000 किलोमीटर में फैली हुई दिल्ली की नजफगढ़ झील का हिस्सा था। जयपुर अलवर तक का बरसाती नदियों का पानी रेवाड़ी रोहतक से होते हुए इस झील में आता था। जब नजफगढ़ झील में क्षमता से अधिक पानी हो जाता तो साहिबी नदी नजफगढ़ झील के पानी को यमुना नदी में प्रवाहित कर देती थी। अब यहां साहिबी नदी का कहीं अता-पता नहीं है। शहर के अनुरूप ड्रेनेज सिस्टम विकसित नहीं किया गया।

परवान नहीं चढ़ा प्लान

देहरादून : दून की भौगोलिक संरचना कुछ ऐसी थी कि यहां जल भराव कभी समस्या ही नहीं रहा। एक दर्जन से ज्यादा नहरें जल निकासी का प्राकृतिक स्नोत थीं। साल 2000 से तब शहर में बदलाव शुरू हुआ जब उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड अस्तित्व में आया और देहरादून को नए राज्य की अस्थायी राजधानी बनाया गया। इसके बाद न केवल आबादी में भारी वृद्धि हुई, अनियोजित निर्माण की भी बाढ़ आ गई। बीस साल पहले शहर का क्षेत्रफल 53 वर्ग किमी था, जो अब 185 वर्ग किमी हो गया है।

वर्ष 2001 में दून शहर की आबादी चार लाख 26 हजार थी जो अब करीब नौ लाख पर जा पहुंची है। बीते 20 वर्ष में 1000 नई कालोनियों में से केवल 82 ही योजनाबद्ध तरीके से बसाई जा सकीं। शहर की प्रमुख नदियां बिंदाल और रिस्पना के तट कब्जों की भेंट चढ़ गए। सड़क की चौड़ाई बढ़ाने के लिए नहरों को भूमिगत कर दिया गया। वर्ष 2008 में पेयजल निगम ने समस्या से निपटने के लिए ड्रेनेज का मास्टर प्लान तैयार किया, लेकिन अब तक यह परवान नहीं चढ़ सका।

अतिक्रमण बनी बड़ी समस्या

रांची : रांची शहर 1834 में बसाया गया था। तब शहर की आबादी कुछ हजार थी। 1985 में ड्रेनेज सिस्टम का खाका तैयार हुआ और इसके तहत रांची में नौ बड़े नाले और 35 नालियां बनाई गईं। 1995 में फिर 45 बड़े नाले और 68 नालियों का निर्माण किया गया। लेकिन, अब रांची की आबादी काफी बढ़ गई है। रांची नगर निगम ने जोनल डेवलपमेंट प्लान तैयार करते समय शहर में ड्रेनेज सिस्टम पर एक सर्वे कराया था। जिसमें सामने आया कि शहर को अभी 35 और बड़े नालों और 125 नालियों की जरूरत है।

सिस्टम ने तोड़ा दम

इंदौर: मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में नवाब के समय स्विट्जरलैंड की तर्ज पर तालाबों को लिंक कर ड्रेनेज सिस्टम बनाया गया था। यह सिस्टम अब पूरी तरह खत्म हो गया है। नालों पर अतिक्रमण होते गए, पानी रुकने लगा। यही हाल इंदौर का भी है। यहां तीन हजार किमी लंबी सड़कें हैं, लेकिन 10 फीसद में भी बारिश के पानी की निकास की व्यवस्था नहीं है। जबलपुर में नालों का सुधार कार्य बाकी है। ग्वालियर में स्टेट काल के जमाने के ड्रेनेज सिस्टम के भरोसे ही काम चल रहा है।

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