अनुसूचित जाति के आरक्षण वर्गीकरण पर कई बड़े राज्यों ने साधी चुप्पी, सुप्रीम कोर्ट में होनी है सुनवाई
दलित आरक्षण के वर्गीकरण के लिए चु्नाव से पहले 2013 में संप्रग काल मे तैयारी तो हुई थी लेकिन परवान नहीं चढ़ सकी क्योंकि राज्यों से विचार विमर्श नहीं हो पाया था।
अरविंद पांडेय, नई दिल्ली। यूं तो आरक्षण पर खूब बहस छिड़ती है लेकिन हाल में अनुसूचित जाति के आरक्षण में वर्गीकरण के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर राजनीतिक दलों में चुप्पी है। किसी को यह रास आया, किसी को नहीं भाया लेकिन किसी ने भी जुबान नहीं खोली। मामला अब सात जजों की पीठ के समक्ष है और उसका फैसला अहम होगा। हालांकि इसे लेकर रायशुमारी का दौर बीते छह-सात साल से चल रहा है। उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र जैसे कुछ अतिसंवेदनशील राज्यों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर ने अपनी राय भी दे दी है। यह और बात है कि खुलकर समर्थन करने वाले राज्यों की संख्या कम है, विरोध या चुप्पी साधने वालों की ज्यादा। दिसंबर 2019 में फिर से रिमाइंडर भेजा गया है लेकिन ज्यादातर राज्य अभी भी मौन है।
ओबीसी में वर्गीकरण के लिए मोदी सरकार के पिछले काल में ही आयोग का गठन हो चुका है। जबकि अनुसूचित जाति आरक्षण के वर्गीकरण के लिए चु्नाव से पहले 2013 में संप्रग काल में तैयारी तो हुई थी लेकिन परवान नहीं चढ़ सकी क्योंकि राज्यों से विचार विमर्श नहीं हो पाया था। बताते हैं कि राजग काल में इसे बढ़ाया गया और राज्यों से रायशुमारी अब लगभग पूरी हो चुकी है। संभव है जब सात जज वाली पीठ इस पर विचार करे तो केंद्र सरकार भी पार्टी बने। केंद्रीय समाज अधिकारिता मंत्रालय में फाइलें फिर से पलटने का काम शुरू हो गया है।
आंध्र प्रदेश के फार्मूले पर मांगी गई थी राय
दरअसल, केंद्र की ओर से आंध्र प्रदेश के फार्मूले पर राय मांगी गई थी जिसके अनुसार अनुसूचित जाति आरक्षण को चार श्रेणियों में बांट दिया गया था। यह बंटवारा सात, छह और एक-एक फीसद किया गया है। इसका पूरा मकसद अनुसूचित जाति की उन जातियों को भी आरक्षण का ज्यादा लाभ देना था जो पीछे रह गए हैं। लेकिन तब सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने ही इसे सही माना है।
उड़ीसा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने साध रखी है चुप्पी
रायशुमारी का काम 2013 से चल रहा है और अब तक कुछ राज्यों में सरकारें बदल चुकी हैं। लेकिन केंद्र के पास जो आंकड़ा है उसके अनुसार पंजाब, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, झारखंड और चंडीगढ़ वर्गीकरण के पक्ष में हैं। जबकि असम, गोवा, दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, बंगाल जैसे राज्यों ने इसका विरोध किया है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, तमिलनाडु, उड़ीसा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने चुप्पी साध ली है। खास बात यह है कि यह सभी ऐसे राज्य हैं, जहां अनुसूचित जाति की बड़ी आबादी है। जाहिर है कि चुनावी नफा नुकसान हर किसी को डराता है। खासकर उन दलों के लिए यह बड़ा संकट है जो जातिगत राजनीति करते हैं। इसी के तोड़ में बिहार में नीतीश कुमार की ओर से महादलित वर्ग का गठन तुरुप का पत्ता साबित हुआ था।
अनुसूचित जाति आरक्षण के बंटवारे का यह विवाद 1975 के आसपास तब शुरू हुआ था, जब पंजाब सरकार ने मजहबी सिखों और बाल्मीकि समाज के लोगों को अनुसूचित जाति आरक्षण में अलग से कोटा देने का फैसला लिया। हालांकि बाद में यह कानूनी विवाद में फंस कर रह गया।