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अब कालीन के अपशिष्ट से बन सकेंगी टाइल्स, प्रदूषण से भी मिलेगी राहत

गोरखपुर विश्वविद्यालय के मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डा. आरके वर्मा ने अपने शिष्यों के सहयोग से कालीन के अपशिष्ट से हल्के वजन का ऐसा पालीमर कंपोजिट मैटीरियल तैयार किया है जिससे ताप व ध्वनिरोधी शीट्स और दीवारों पर लगाई जाने वाली टाइल्स बनाई जा सकती हैैं।

By Sanjeev TiwariEdited By: Published: Thu, 19 Aug 2021 06:40 PM (IST)Updated: Thu, 19 Aug 2021 06:40 PM (IST)
अब कालीन के अपशिष्ट से बन सकेंगी टाइल्स, प्रदूषण से भी मिलेगी राहत
कालीन के अपशिष्ट से हल्के वजन का ऐसा पालीमर कंपोजिट मैटीरियल तैयार (फोटो जागरण)

डा. राकेश राय, गोरखपुर। वह दिन दूर नहीं जब कालीन निर्माताओं को अपशिष्ट निस्तारण के लिए परेशान नहीं होना पड़ेगा। गोरखपुर के मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के शोधार्थियों ने इसका हल निकाल लिया है। विश्वविद्यालय के मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डा. आरके वर्मा ने अपने शिष्यों के सहयोग से कालीन के अपशिष्ट से हल्के वजन का ऐसा पालीमर कंपोजिट मैटीरियल तैयार किया है, जिससे ताप व ध्वनिरोधी शीट्स और दीवारों पर लगाई जाने वाली टाइल्स बनाई जा सकती हैैं।

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अंतरराष्ट्रीय जर्नल में भी प्रकाशन

सेंट्रल इंस्टीट्यूट आफ प्लास्टिक इंजीनियरिंग एंड टेक्नालाजी लखनऊ और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) रुड़की ने भी परीक्षण के बाद इस शोध पर मुहर लगा दी है। नीदरलैंड के रिसर्च जर्नल 'एल्सवीयर' के साथ ही चीन के रिसर्च जर्नल में भी इसके प्रकाशन से शोध को अंतरराष्ट्रीय मान्यता भी मिली है।

प्रदूषण की समस्या का भी रखा ध्यान

डा. वर्मा ने बताया कि गोरखपुर, वाराणसी और मिर्जापुर मंडल में कालीन उद्योग के अपशिष्ट निस्तारण में आ रही समस्या और उससे हो रहे पर्यावरण प्रदूषण ने उन्हेंं इस विषय पर शोध के लिए प्रेरित किया। इसके अलावा उनका ध्यान कालीन के इस्तेमाल की अवधि समाप्त हो जाने के बाद उसके निस्तारण में आ रही समस्या पर भी गया। खराब हो चुकी कालीन या तो जला दी जाती है या जल में प्रवाहित कर दी जाती है। निस्तारण के दोनों ही तरीके पर्यावरण के लिए नुकसानदायक है। कालीन जलाने से उसमें इस्तेमाल नायलान या पालिस्टर भी जलता है, जिससे वायु प्रदूषण होता है। जल में प्रवाहित करने से उसमें इस्तेमाल होने वाले केमिकल उसे प्रदूषित कर देते हैं। समस्या के निदान के लिए उन्होंने जैसे ही भारत सरकार के वस्त्र मंत्रालय के हस्तशिल्प विभाग को शोध प्रस्ताव भेजा, उसे तत्काल मंजूर कर लिया गया और धनराशि भी आवंटित कर दी गई। उस धनराशि की मदद से ही वह अपने शोध कार्य को एक निर्णायक मुकाम तक पहुंचा चुके हैं। डा. वर्मा अब अपने शोध के औद्योगिक इस्तेमाल के लिए पेटेंट कराने की प्रक्रिया भी शुरू कर चुके हैं।

पालीमर कंपोजिट बनाने के लिए अपनाई यह विधि

कालीन के अपशिष्ट से पालीमर कंपोजिट बनाने के लिए डा. वर्मा ने वैक्यूम असिस्टेड ट्रांसफर मोल्डिंग सेटअप का इस्तेमाल किया है। इस सेटअप में मौजूद एक डाई में वह कालीन का अपशिष्ट पूरी तरह सुखाकर डालते हैं और फिर वैक्यूम की स्थिति में पाइप के माध्यम से इपाक्सी रेजीन (एक तरह का लिक्विड पालीमर) और ट्रेटामाइन हार्डनर (पालीमर को मजबूती देने वाला केमिकल) का प्रवाह सुनिश्चित करते हैं। इससे कालीन का अपशिष्ट पालीमर कंपोजिट मैटीरियल में बदल जाता है। अपने शोध में उन्होंने नायलान, पालिस्टर, पालीप्रिपलीन और ऊन के इस्तेमाल से तैयार कालीन के अपशिष्ट से पालीमर कंपोजिट में बनाने में सफलता पाई है।

नैनोटेक्नालाजी के इस्तेमाल से बढ़ाएंगे गुणवत्ता

इस शोध के अगले चरण में डा. वर्मा ने नैनोटेक्नोलाजी का इस्तेमाल कर कालीन के अपशिष्ट से तैयार पालीमर कंपोजिट की गुणवत्ता बढ़ाने की दिशा में कार्य शुरू कर दिया है। इसके लिए उन्होंने कंपोजिट के निर्माण में कार्बन नैनोटेक्नोलाजी, कार्बन नैनोशीट्स और ग्रेफीन आक्साइड के इस्तेमाल की योजना बनाई है।

कालीन के अपशिष्ट से कंपोजिट मैटीरियल बनाया जाना उपलब्धि

डा. वर्मा द्वारा कालीन के अपशिष्ट से कंपोजिट मैटीरियल बनाया जाना उनकी ही नहीं बल्कि विश्वविद्यालय की बड़ी उपलब्धि है। मैं उन्हेंं इस सफलता के लिए बधाई देता हूं और शोध प्रक्रिया को आगे भी बढ़ाते रहने की शुभकामना देता हूं।

-प्रो. जेपी पांडेय, कुलपति, एमएमएमयूटी


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