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हिंदुओं को ही नहीं, कट्टरता की 'आग' बांग्लादेश को भी झुलसाकर तालिबान बना देगी- तसलीमा नसरीन

लेखिका तसलीमा नसरीन और बांग्लादेश की आजादी के घोषणापत्र का ड्राफ्ट तैयार करने वाले आमीर उल इस्लाम ने कहा-ऐसी घटनाएं चिंताजनक। हिंदू-मुस्लिम के दायरे से परे वे सब लोग सही मायने में बांग्लादेश के नागरिक हैं। क्या उनके बगैर बांग्लादेश अपनी पहचान बचा पाएगा?

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 13 Nov 2021 03:52 PM (IST)Updated: Sat, 13 Nov 2021 04:15 PM (IST)
हिंदुओं को ही नहीं, कट्टरता की 'आग' बांग्लादेश को भी झुलसाकर तालिबान बना देगी- तसलीमा नसरीन
हमलों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आवाज उठनी चाहिए।

रुमनी घोष, नई दिल्ली। बांग्लादेश में हिंदुओं के मंदिरों पर हमले कर और उनके घर जलाकर जो माहौल बनाया जा रहा है, वह सिर्फ हिंदू या गैर मुस्लिम समुदाय में ही डर पैदा नहीं कर रहा है, बल्कि देश की हर महिला (हिंदू-मुस्लिम) को आशंकित कर रहा है। धीरे-धीरे कट्टरता की यह आग उन्हें झुलसा देगी...और इसकी शुरुआत हो चुकी है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यदि इसे नहीं रोका गया तो बांग्लादेश को तालिबान बनते देर नहीं लगेगी। अपनी किताब लज्जा के जरिये बांग्लादेश में महिलाओं पर हुए अत्याचारों को दुनिया के सामने लाने वाली लेखिका तसलीमा नसरीन इस पूरे घटनाक्रम को बांग्लादेश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण मानती हैं। इस कट्टरता की वजह से ही ह 27 साल से बांग्लादेश से निर्वासित जीवन जी रही हैं।

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वह कहती हैं कि बांग्लादेश का जन्म बांग्ला भाषा और संस्कृति को बचाने के लिए हुआ था। वह उद्देश्य असफल होता नजर आ रहा है। इन घटनाओं के लिए कहीं न कहीं बांग्लादेश की सभी सरकारें ही जिम्मेदार हैं। चूंकि हर सरकार ने धर्म को हथियार बनाकर सत्ता तक पहुंचने का रास्ता चुना। कट्टरपंथी ताकतें सरकारों की इसी मजबूरी का फायदा उठाती आ रही हैं। यही वजह है कि जब बांग्लादेश के विकास के लिए अभियांत्रिकी, मेडिकल और प्रबंधन कालेज की जरूरत है, तब हां बड़ी संख्या में मदरसे खुलते जा रहे हैं। जेहाद के नाम पर युवा पीढ़ी को धर्मांधता की ओर धकेला जा रहा है।

...और इसका असर दिखने लगा है। ढाका विद्यालय संभवत: विश्व का एकमात्र ऐसा विवि होगा, जहां से किसी देश की संस्कृति व अस्तित्व को बचाने के लिए युद्ध का शंखनाद हुआ। आज वहां महिलाएं हिजाब में नजर आ रही हैं। वह कहती हैं कि हिजाब पहनना गलत नहीं है, लेकिन इसके लिए मजबूर करना गलत है। हमले हिंदू समुदाय पर हो रहे हैं और धीरे-धीरे इसका असर वहां की महिलाओं (हिंदू--मुस्लिम) पर होना शुरू हो गया है। इसे अभी नहीं रोका गया तो अन्य कत्र्रपंथी देश की तरह बांग्लादेश की महिलाओं को भी वापस पर्दे में धकेल दिया जाएगा।

धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर आमीर उल इस्लाम। सौ. स्वयं

हमारे देश की छवि धूमिल हो रही: बांग्लादेश में इस तरह की हमलों की घटनाएं चिंताजनक है। छोटी-छोटी घटनाएं बड़ा रूप ले रही हैं। बांग्लादेश का बड़ा प्रगतिशील मुस्लिम वर्ग इसके खिलाफ है। वे इसकी लगातार निंदा कर रहे हैं और इसके खिलाफ आवाज भी उठा रहे हैं। यह कहना है बांग्लादेश के संविधान का मसौदा तैयार करने वाली समिति के सदस्य व भारत-बांग्ला मैत्री समिति के सभापति बैरिस्टर आमीर उल इस्लाम का। उन्होंने बांग्लादेश की आजादी के घोषणा पत्र (1971) का मसौदा भी तैयार किया था। पेशे से वकील आमीर उल इस्लाम का मानना है कि सरकार को कमजोर करने के लिए कुछ कट्टरपंथी ताकतें बांग्लादेश में इस तरह के हालात पैदा कर रही हैं। मुक्ति संग्राम के बाद जब बांग्लादेश का संविधान बना तो हमने धर्म निरपेक्षता को अपनाया।

हमारा संविधान बहुत हद तक भारत के संविधान से प्रेरित है। बांग्लादेश का संविधान इस देश के हर नागरिक (मुस्लिम, हिंदू, बौद्ध, ईसाई या अन्य किसी भी धर्म के अनुयायी) को बराबरी का अधिकार देता है। उनके संवैधानिक अधिकार व कर्तव्य बराबर हैं। धर्म या जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है। बांग्लादेश के संविधान में शिक्षा को सबसे ज्यादा महत्व दिया गया है। यही वजह है कि इस देश में किसी भी शिक्षण संस्थान में किसी भी धर्म या जाति के व्यक्ति को प्रवेश की पात्रता है। उसे धर्म के आधार पर रोका नहीं जा सकता है। यह स्वाधीनता बहुत कम देशों में है। इन घटनाओं का असर सिर्फ हिंदुओं पर ही नहीं हो रहा है, बल्कि बांग्लादेश की छवि भी धूमिल हो रही है। अविभाजित हो या विभाजित, बांग्लादेश की माटी में धर्म से बड़ी साहित्य, संस्कृति और प्रगतिशील सोच रही है।

पद्मश्री से सम्मानित काजी मासूम अख्तर। सौ. स्वयं

विदेशी ताकतों की साजिश है: बांग्लादेश में जो घटनाएं घट रही हैं, वे भारत-बांग्लादेश के रिश्तों को कमजोर करने के लिए कराई जा रही है। पाकिस्तान व अन्य विदेशी ताकतें कत्र्रपंथी सोच को बढ़ावा देकर नई पीढ़ी को गुमराह करने की कोशिश कर रही हैं। धीरे-धीरे ये घटनाएं बांग्लादेश का डीएनए बदल देंगी। यह कहना है हाल ही में पद्मश्री से सम्मानित हुए शिक्षक काजी मासूम अख्तर का। वह तब चर्चा में आए, जब उन्होंने बंगाल की राजधानी कोलकाता में स्थित 99.99 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले मेटिया बुर्ज के सरकारी मदरसे में जन-गण-मन का वाचन लागू करवाया। बच्चियों के लिए वोकेशनल गीत संगीत, नाटक का मंचन शुरू करवाया था। बाल विवाह बंद कराया। दो साल में मदरसे का कायाकल्प किया था।

हालांकि उसके बाद उन पर जानलेा हमला हुआ, धमकियां मिलीं, बावजूद इसके अपने सिद्धांतों पर डटे रहे। वह कहते हैं कि बांग्लादेश में धार्मिक शिक्षा के नाम पर छात्रों को गुमराह किया जा रहा है। इसे बंद किया जाना चाहिए। किसी भी देश के लिए उसका संविधान किसी भी धर्म से बड़ा होता है और बांग्लादेश का संविधान इसकी इजाजत नहीं देता है। बांग्लादेश में जो भी क्रूर समूह इस तरह की घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं या फिर समर्थन कर रहे हैं, उन्हें सोचना चाहिए कि विभाजन के दौरान हर हिंदू के पास बांग्लादेश छोड़ने का अवसर था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने अपने देश को नहीं छोड़ा। उसे बचाने के लिए पाकिस्तान से युद्ध किया। हिंदू-मुस्लिम के दायरे से परे वे सब लोग सही मायने में बांग्लादेश के नागरिक हैं। क्या उनके बगैर बांग्लादेश अपनी पहचान बचा पाएगा? हमलों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आवाज उठनी चाहिए।

(समाप्त)


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