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एमएसपी का चतुराई से उपयोग करने की जरूरत, हरित क्रांति वाले क्षेत्र में फसल विविधीकरण पर देना होगा जोर

वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक पद्मश्री डॉक्टर आरबी सिंह का कहना है एमएसपी को समग्र व नई सोच के साथ लागू करने की जरूरत है। इसे छोटे किसानों के लिए उन राज्यों में लागू किया जाना चाहिए जहां इसकी जरूरत महसूस की जा रही हो।

By Dhyanendra Singh ChauhanEdited By: Published: Sat, 23 Jan 2021 06:53 PM (IST)Updated: Sat, 23 Jan 2021 06:58 PM (IST)
एमएसपी का चतुराई से उपयोग करने की जरूरत, हरित क्रांति वाले क्षेत्र में फसल विविधीकरण पर देना होगा जोर
वर्तमान में भारत सरप्लस खाद्यान्न वाला देश बन चुका है

सुरेंद्र प्रसाद सिंह, नई दिल्ली। देश के किसानों को जहां खेती को उन्नत बनाने और अन्य ढांचागत सुविधाओं के लिए पर्याप्त सब्सिडी की जरूरत है, वहीं न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के केवल रणनीतिक उपयोग पर भी जोर देना होगा। मांग आधारित खेती को प्रोत्साहित करने में एमएसपी और सरकारी खरीद प्रणाली कारगर साबित हो सकती है। फसल विविधीकरण (डायवíसटी) को हरित क्रांति वाले राज्यों में तत्काल विशेष सब्सिडी के साथ लागू करने की जरूरत है। इससे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में मदद मिलेगी वहीं किसानों को सीधा लाभ होगा। वहीं, वैश्विक बाजार में अपनी पैठ बनाने के लिए कृषि सब्सिडी के स्वरूप में बदलाव करना होगा। इसका सीधा लाभ पूरे देश के किसानों के साथ-साथ उद्योग, व्यापार और आम उपभोक्ताओं को भी मिलेगा।

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दरअसल एमएसपी की पूरी मंशा और उपयोगिता इसके चयन पर निर्भर करती है कि किन किसानों और किन फसलों पर एमएसपी दी जाए। उदाहरण के तौर पर, गेहूं व चावल में हम सरप्लस हैं और दलहन व तिलहन में अभी भी आयात पर निर्भर हैं। आयात पर यह निर्भरता उसी गति से घटती जा रही है जिस गति के साथ हम दलहन और तिलहन का एमएसपी बढ़ाते गए। चने का एमएसपी 2010 में 2100 रुपये था, जो 2019 तक बढ़कर 4875 रुपये हो गया। इस दौरान उत्पादन भी आठ मिलियन टन से बढ़कर 11 मिलियन टन को पार कर गया। यानी एमएसपी एक टूल है जिसके जरिये हम जरूरी फसलों के उत्पादन को बढ़ावा दे सकते हैं। यह और बात है कि विशेषज्ञ एमएसपी के बजाय प्रोत्साहन राशि और ग्रीन सब्सिडी को ज्यादा उपयुक्त मानते हैं।

वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक पद्मश्री डॉक्टर आरबी सिंह का कहना है, 'एमएसपी को समग्र व नई सोच के साथ लागू करने की जरूरत है। इसे छोटे किसानों के लिए उन राज्यों में लागू किया जाना चाहिए, जहां इसकी जरूरत महसूस की जा रही हो।'

एमएसपी को मांग आधारित खेती के साथ जोड़ना होगा

वर्तमान में भारत सरप्लस खाद्यान्न वाला देश बन चुका है, जिससे खुले बाजार में खाद्यान्न के मूल्य एमएसपी के मुकाबले नीचे हो गए हैं। पूर्व केंद्रीय खाद्य मंत्री शांता कुमार कमेटी की सिफारिशों में भी यही बात कही गई है कि एमएसपी की सार्थकता पर एक बार फिर से समग्रता के साथ पुनर्विचार की सख्त जरूरत है। फिलहाल मात्र छह फीसद किसानों तक ही एमएसपी की पहुंच है। इसका दायरा बढ़ाने के बजाय इसे शिफ्ट करने की जरूरत है। देश के प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर और दूसरी हरित क्रांति के लिए तैयार पूर्वी राज्यों में एमएसपी का उपयोग किया जाना चाहिए। साफ है कि एमएसपी को मांग आधारित खेती के साथ जोड़ना होगा।

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खुले बाजार में खरीद से बनेगा संतुलन

पीडीएस के लिए चावल व गेहूं जैसी फसलों की सरकारी खरीद एमएसपी के बजाय खुले बाजार में होने लगे तो मांग व आपूíत का संतुलन बनेगा। सरकारी एजेंसी को अपने मन मुताबिक गुणवत्तापूर्ण अनाज खरीदने की छूट मिल जाएगी, तो उपभोक्ताओं को अच्छा अनाज मिल सकता है। इससे एमएसपी की आड़ में हजारों करोड़ रुपये की बर्बादी से बचा जा सकता है, जिसका उपयोग किसानों को अन्य तरीके से सब्सिडी देने में किया जा सकता है। देश में 87 फीसद किसान लघु व सीमांत हैं। ऐसे किसानों की 60 फीसद जरूरतें ही खेती से पूरी हो पाती हैं। उन्हें अपनी बाकी जरूरतों के लिए सह उद्यमों पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे किसानों को उसका लाभ दिया जा सकता है।

फसल विविधीकरण की जरूरत

विशेषज्ञ लगातार कहते रहे हैं कि एमएसपी से मुक्ति और फसल विविधीकरण समय की सबसे बड़ी जरूरत है। धान व गेहूं की सघन खेती से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्राकृतिक संसाधनों का जबर्दस्त दोहन हुआ है। हरियाणा में धान की जगह मक्का अथवा अन्य फसल की खेती पर प्रति हेक्टेयर 17 हजार रुपये की सब्सिडी दी जा रही है। लगभग 40 हजार हेक्टेयर भूमि में इस बार धान की खेती नहीं की गई। ऐसे उपाय अपनाए जाने की ज्यादा जरूरत है।

सीधी सब्सिडी पर कई पेच

चीनी पर निर्यात सब्सिडी देने के मामले में भारत के खिलाफ चीनी उत्पादक देशों के संगठन ने शिकायत दर्ज करा रखी है। इसी तरह दो तीन साल पहले गेहूं पर सीमा शुल्क लगाने को लेकर भी विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में गेहूं उत्पादक देशों ने आपत्ति दर्ज कराई है। वैश्विक बाजार में अपनी पैठ मजबूत बनाने के लिए उसके नियमों को मानना भी मजबूरी है। इसके लिए अपने कृषि उत्पादों को प्रतिस्पर्धी बनाने की सख्त जरूरत है।

सब्सिडी का स्वरूप बदलने की जरूरत

डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुरूप कृषि सब्सिडी के तरीके को बदलने का दबाव है। इसके तहत किसानों को ग्रीन सब्सिडी देने की शुरुआत कर दी गई है। पिछले बजटों में कई क्षेत्रों में सब्सिडी का स्वरूप बदला गया है। इसीलिए सिंचाई के लिए बिजली और डीजल पंपों पर दी जाने वाली सब्सिडी की जगह सौर ऊर्जा पंप लगाने के लिए प्रधानमंत्री कुसुम योजना प्रारंभ की गई है। देश में तकरीबन 10 लाख ऐसे सौर ऊर्जा पंप लगाए भी जा चुके हैं। बीएचयू के कृषि अर्थशास्त्र के प्रोफेसर राकेश सिंह ने कहा, 'भारत के मुकाबले दूसरे विकसित देशों में किसानों को कई गुना अधिक सब्सिडी दी जाती है। लेकिन सब्सिडी देने का उनका तरीका भारत से भिन्न है। कृषि क्षेत्र में ग्रीन बाक्स वाली सब्सिडी देने का प्रावधान है।' आगामी आम बजट में इसे और आगे बढ़ाया जा सकता है।

नकदी सहायता सही कदम

दुनिया के ज्यादातर विकसित देशों में किसानों को भारी सब्सिडी दी जाती है। सरकार भी डब्ल्यूटीओ के नियमों के तहत उन्हीं रास्तों को अख्तियार कर रही है। प्रत्येक किसान को इनकम सपोर्ट सब्सिडी के तौर पर सालाना 6000 रुपये की नकदी दी जा रही है। इससे सरकारी खजाने पर सालाना 75000 करोड़ रुपये का बोझ आ रहा है। कृषि की लागत को घटाकर अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपनी कीमतों को प्रतिस्पर्धी बनाने की दिशा में प्रयास भी शुरू कर दिए गए हैं। जैविक कृषि उपज की बढ़ती निर्यात मांग को देखते हुए इसे प्रोत्साहन दिया जा रहा है।


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