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मानसिक समस्‍या को गंभीरता से लेने की जरूरत, फिर न करे कोई 'सुशांत' आत्‍महत्‍या

चिकित्सा विज्ञान की प्रसिद्ध पत्रिका ‘द लांसेट’ के मुताबिक युवाओं में आत्महत्या की दर भारत में सबसे अधिक है। इनमें अधिकतर विद्यार्थी हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 22 Jun 2020 02:43 PM (IST)Updated: Mon, 22 Jun 2020 02:46 PM (IST)
मानसिक समस्‍या को गंभीरता से लेने की जरूरत, फिर न करे कोई 'सुशांत' आत्‍महत्‍या
मानसिक समस्‍या को गंभीरता से लेने की जरूरत, फिर न करे कोई 'सुशांत' आत्‍महत्‍या

सीमा झा। अवसाद की वजह से अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत द्वारा आत्महत्या की खबर ने हर किसी को स्तब्ध कर दिया है। इस घटना के साथ ही मानसिक सेहत को लेकर खूब बातें होने लगीं, पर यह समय बातें करने का नहीं बल्कि मानसिक सेहत को प्राथमिकता से समझने का है... आमतौर पर लोग किसी बात को तब ज्यादा तवज्जो देते हैं, जब कोई मुश्किल सीमा से परे हो जाए या कोई अनहोनी घट जाए।

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ऐसा ही रुख अख्तियार होता है मानसिक सेहत को लेकर भी। आधुनिकता की तमाम सीढ़ियां पार कर चुका समाज आज भी मानसिक सेहत को लेकर असंवेदनशील ही है। यही वह चीज है जो समाज को मानसिक सेहत की दिशा में प्रभावी रूप से काम करने से रोकती है। पर इंसानियत को संवेदनशीलता ही बचा सकती है, इसलिए संवेदनशील बनना पहली शर्त है।

लोग रोजमर्रा की मुश्किलों में इतने गुम हैं कि अपने ही अंदर क्या मुश्किलें और परेशानियां जन्म ले रही हैं, इसकी अनदेखी करते रहते हैं। पर जब वही समस्या बड़ा रूप ले लेती है तो वे परेशान हो उठते हैं। हमें यह समझना है कि समाधान हमेशा मौजूद रहते हैं, बशर्ते आप मानसिक समस्या को गंभीरता से लें। जैसे शरीर में कोई बीमारी होती है, तो हम उसका पूरा इलाज करवाते हैं, ठीक वैसे ही मानसिक स्वास्थ्य के प्रति रवैया रखें। जानें क्‍या कहते है गुरुग्राम के फोर्टिस हेल्थकेयर के मानसिक स्वास्थ्य व व्यवहार विज्ञान विभाग के वरिष्ठ मनोचिकित्सक एवं निदेशक डॉ. समीर पारिख

परवरिश का बदलें तरीका : भारत ही नहीं, दुनियाभर में युवा बड़ी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं। पर ऐसा क्यों है? दरअसल हम रोजमर्रा के पैटर्न में जीने की आदत में भूल कर रहे हैं। बच्चों के जीवन और उसकी गुणवत्ता पर बात करनी है और अभिभावकों को उस पर अमल भी करना है। यह जरूर देखें कि आप उन्हें जो अच्छी शिक्षा देने के प्रति गंभीर हैं, क्या वह शिक्षा उन्हें व्यावहारिक जीवन की मुश्किलों का सामना करने में सक्षम बना रही है। जब तक हम परवरिश का पारंपरिक तरीका नहीं बदलेंगे, समस्या को रोकना मुश्किल होगा।

किसी को भी हो सकता है अवसाद : अवसाद भी एक बीमारी है जो किसी तरह का भेदभाव नहीं करती। आपको यह नहीं समझना है कि अमुक तो स्वस्थ नजर आ रहा है या उसके पास तो हर तरह की सुख-सुविधा है तो वह अवसाद में कैसे हो सकता है? जबकि अवसाद किसी सुनिश्चित वजह से नहीं होता। उससे संबंधित जानकारी जुटाएं। जब तक जानकारी नहीं होगी, ठीक होने की दिशा में कदम कैसे बढ़ेगा? आपका बढ़ाया एक हाथ शायद किसी अपने को अवसाद के अंधेरे से बाहर निकाल सकता है।

मन की बात कहना कठिन क्यों? : लोग कहते हैं मन में कुछ न रखें। अपनों के साथ सब कुछ साझा करें। पर क्या ऐसा आमतौर पर होता है। लोग खुद में बंद रह जाते हैं, क्योंकि उन्हें इस बात का डर होता है कि लोग उनकी परेशानी नहीं समझ पाएंगे। ऐसे में जरूरी है आप अपनी तरफ से पहल करें। अच्छे और सकारात्मक शब्दों के साथ बात करें। इसे हमने आमतौर पर नहीं समझा है। यह कुशलता विकसित करनी जरूरी है।

सोशल मीडिया पर झलके समानुभूति : यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ सोशल मीडिया यूजर्स किसी भी व्यक्ति के बारे में बिना सोचे-समझे लिख देते हैं। पर उन्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि उनकी एक पोस्ट या विचार से क्या असर हो सकता है। वही लिखें जो सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार करे। हर पोस्ट लिखते समय समानुभूति होनी चाहिए यानी आपको समझना चाहिए कि हर व्यक्ति अपने-अपने संघर्ष से जूझ रहा है। सबको एक-दूसरे की जरूरत है। आपको अपने विचारों को शेयर करने से पहले उन पर गौर करना होगा। क्या लिखें और कैसे लिखें, ये दो बातें पोस्ट लिखने से पहले हमेशा मन में रखें।

आंकड़ों की बात : चिकित्सा विज्ञान की प्रसिद्ध पत्रिका ‘द लांसेट’ के मुताबिक युवाओं में आत्महत्या की दर भारत में सबसे अधिक है। इनमें अधिकतर विद्यार्थी हैं। एनसीआरबी के अनुसार, भारत में आत्महत्या की दर लगातार बढ़ रही है। वर्ष 2016 में 9,478, 2017 में 9,905 और 2018 में 10,159 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की।


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