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Kidney Racket: आपने कभी सोचा है कि किसी को क्यों बेचनी पड़ती है अपनी किडनी

किडनी खरीदने और बेचने के अवैध धंधे का पर्दाफाश होता है और फिर बात आई-गई हो जाती है। कुछ दिन बार फिर नए रैकेट का भंडाफोड़ हो जाता है। अपराधी पकड़े भी जाते हैं लेकिन कानून और प्रशासन इस पर अंकुश लगाने में नाकाम है।

By Brij Bihari ChoubeyEdited By: Published: Fri, 03 Jun 2022 01:37 PM (IST)Updated: Fri, 03 Jun 2022 02:13 PM (IST)
Kidney Racket: आपने कभी सोचा है कि किसी को क्यों बेचनी पड़ती है अपनी किडनी
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ब्रजबिहारी, नई दिल्लीः मानव अंगों का अवैध कारोबार फिर चर्चा में है। पुलिस ने नई दिल्ली और एनसीआर में फैले किडनी रैकेट का पर्दाफाश किया है। किडनी का इंतजार कर रहे मरीजों और अपनी किडनी बेचने के लिए तैयार लोगों के बीच माध्यम का करने वाला यह रैकेट पहली बार नहीं पकड़ा गया है। हर बार एक ही कहानी सामने आती है। किडनी रैकेट के शिकार लोगों की दुख भरी कथा यह सोचने पर मजबूर करती है कि जब तक गरीबी और बेबसी रहेगी, यह अवैध कारोबार फलता फूलता रहेगा।

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अब रघु शर्मा के बारे में ही सोचिए। यह 21 वर्षीय युवक मई में गुजरात से नौकरी की तलाश में दिल्ली आया और दिहाड़ी मजदूरी करने लगा। दिन भर काम करने के बाद वह किसी फुटपाथ पर या गुरुद्वारे में सो जाता था। घर की हालत इतनी खराब थी कि कोई चारा नहीं था। पिता दिहाड़ी मजदूर थे लेकिन वह काम भी जाता रहा। परिवार के पास घर का किराया चुकाने तक के पैसे नहीं थे। मां की डायबिटीज की बीमारी का इलाज भी रघु को ही करवाना था। बड़ी बहन की शादी करने के लिए यह परिवार अपना मकान पहले ही बेच चुका था।

ऐसे में रघु शर्मा बड़ी आसानी से किडनी रैकेट गिरोह के शिकंजे में फंस गया। उसे अपनी किडनी के बदले सिर्फ तीन लाख 20 हजार रुपये मिले जबकि उस किडनी को जरूरतमंद बीमार को बेचकर रैकेट का सरगना 40 से 70 लाख रुपये वसूले जाते थे। इस किडनी रैकेट का काम करने का तरीका काफी फूलप्रुफ था। यह रैकेट जिससे किडनी खरीदता था, उसे अगला शिकार तलाश करने का काम सौंप देता था। ये लोग शिकार को समझाते थे कि किडनी बेचने में कोई जोखिम नहीं है और स्वास्थ्य संबंधी भी कोई समस्या नहीं होती है। इसके लिए वे खुद की मिसाल देते थे।

रघु की ही तरह दिवाकर भी गरीबी के कारण किडनी रैकेट के झांसे में आ गया। वह पहले मोमो बेचकर परिवार का जीवन यापन कर रहा था, लेकिन लाकडाउन में उसका यह काम बंद हो गया। वह न तो अपनी स्कूटी का लोन चुका पा रहा था और न ही अपने बच्चे के स्कूल की फीस। ऐसे कठिन समय में फेसबुक के जरिए वह किडनी रैकेट के संपर्क में आया। उसे असम से दिल्ली बुलाया गया। ट्रेन का टिकट भी रैकेट ने खरीद कर उसे भेजा था। उसकी किडनी निकालने के लिए सारी प्रक्रिया पूरी हो गई थी लेकिन रघु शर्मा के पुलिस से संपर्क करने के कारण ऐन वक्त पर पुलिस ने दिवाकर को बचा लिया।

किडनी खरीदने और बेचने का यह रैकेट संगठित ढंग से चल रहा था। किडनी बेचने के लिए राजी होते ही शिकार को दिल्ली के पश्चिम विहार के फ्लैट में रखा जाता था। उसके बाद उनके टेस्ट कराए जाते थे और फिर हरियाणा के गोहाना ले जाकर उनका आपरेशन कर किडनी निकाल ली जाती थी। इस रैकेट का सरगना 10वीं पास लैब टेक्नीशियन कुलदीप रे विश्वकर्मा निकला। ओटी टेक्नीशियन के रूप में विभिन्न अस्पतालों में 20 साल तक काम करने के दौरान उसने आपरेशन करने की कला सीख ली थी और पूरे आत्मविश्वास के साथ किडनी निकालने और उसे मरीज में ट्रांसप्लांट करने का काम खुद ही करता था। किडनी रैकेट के एजेंट गुरुद्वारे, रैन बसेरे और अस्पतालों के बाहर अपने शिकार की तलाश करते थे। प्लेसमेंट एजेंसियों से भी लिस्ट लेकर वे जरूरतमंद लोगों को खोज लेते थे और फिर उन्हें पैसे का लालच देकर जाल में फंसा लेते थे।


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