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पुरुष संकल्प लें नवरात्र में वे जिस आदर-भाव से कन्याओं का पूजन करते हैं, वही भाव हर स्त्री के प्रति मन में बनाए रखें

वर्तमान समय में उनसे कुछ यही अपेक्षा है। रहे पुरुष तो वे इतना ही संकल्प ले लें कि नवरात्र में जिस आदर-भाव से कन्याओं का पूजन करते हैं वह भाव वर्ष के अन्य दिनों में भी जीवन में मिलने वाली हर स्त्री के प्रति मन में बनाए रखेंगे।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Wed, 21 Oct 2020 03:51 PM (IST)Updated: Wed, 21 Oct 2020 03:51 PM (IST)
पुरुष संकल्प लें नवरात्र में वे जिस आदर-भाव से कन्याओं का पूजन करते हैं, वही भाव हर स्त्री के प्रति मन में बनाए रखें
शक्ति की उपासना का यह उत्सव स्त्री के सम्मान और सुरक्षा की भावना का व्यापक अर्थो में संयोजन किए है।

पीयूष द्विवेदी। भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर विभिन्न संदर्भो में यह एक तथ्य समान रूप से स्पष्ट होता है कि हमारे मनीषी पूर्वजों ने भारतीय पर्वो-अनुष्ठानों के माध्यम से प्राणिमात्र के कल्याण के अनेक उद्देश्यों को साधने एवं उनसे संबंधित संदेश देने का प्रयास किया है। भारतीय पर्व कोई रूढ़ परंपरा नहीं हैं, अपितु इस राष्ट्र और समाज को समय-दर-समय उसके विभिन्न कर्तव्यों के प्रति सजग कराने वाले जीवंत संदेश हैं। नवरात्र भी इस विषय में अपवाद नहीं है। आज स्त्रियों के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं, तब तो नवरात्र की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। कारण कि शक्ति की उपासना का यह उत्सव स्त्री के सम्मान और सुरक्षा की भावना का व्यापक अर्थो में संयोजन किए हुए है।

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भारतीय संस्कृति सदैव से नारी के सम्मान और सुरक्षा की भावना से पुष्ट रही है। हमारे पौराणिक एवं महाकाव्यात्मक इतिहास के ग्रंथों में ऐसे अनेक प्रसंग एवं उदाहरण उपस्थित हैं, जिनसे इस कथन की पुष्टि होती है। एक प्रमुख उदाहरण यह है कि हमारे पुराण सृष्टि की आद्योपांत संपूर्ण व्यवस्था का संचालन करने वाले त्रिदेवों की महत्ता का प्रतिपादन करते हैं, परंतु साथ ही यह भी बताते हैं कि अपनी शक्तियों के बिना त्रिदेव कुछ भी करने में असमर्थ हैं। इन्हीं त्रिदेवों की शक्तियां असुरों के विनाश के लिए विभिन्न रूप धारण करती हैं और उन्हीं रूपों की पूजा का अवसर नवरात्र होता है। शक्ति के उन रूपों की कल्पना कन्याओं में की जाती है, क्योंकि भारतीय परंपरा में नारी को देवी माना गया है। इस पृष्ठभूमि के बाद क्या अलग से यह बताने की आवश्यकता रह जाती है कि भारत में नारी के स्थान, सम्मान को लेकर कैसी दृष्टि रही है। हमारे देश में एक से बढ़कर एक तेजस्विनी और विद्वान नारियों की भी परंपरा रही है, लेकिन अब प्रश्न यह है कि आज क्यों समाज में नारियों के प्रति अपराध का बढ़ रहे हैं? ऐसा क्या हो गया कि कन्याओं का पूजन करने वाले समाज में लड़कियों के साथ अमानवीयता की घटनाएं दिखाई-सुनाई देने लगी हैं?

विचार करें तो यह स्थिति केवल आज के काल की ही नहीं है, अपितु हर काल में बहुसंख्यक अच्छे लोगों के बीच कुछ दुष्ट तत्व भी सक्रिय रहे हैं, जो नारी को अपना शिकार बनाते रहे हैं। प्राचीन कथाओं में भी ऐसे प्रसंग मिलते हैं कि असुर किस प्रकार स्त्रियों का अपहरण कर लेते थे, उनके साथ दुष्कर्म करते थे और उन्हें अपमानित किया जाता था। यहां तक कि देवी द्वारा जिन असुरों का विनाश किया गया है, वे भी देवी के प्रति ऐसी ही कुत्सित भावना रखते थे। ऐसे में आज यदि नारी के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं तो इसका हर मोर्चे पर प्रतिकार करने की आवश्यकता है। कानूनी कठोरता एक मोर्चा है, लेकिन इससे पूरी तरह से इस अपराध को रोका नहीं जा सकता। अन्य मोर्चो पर भी काम करने की आवश्यकता है। इस संबंध में वर्तमान समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि हर नारी भीतर से देवी दुर्गा बने। जो सामान्यत: तो शांत रहती हैं और अपने स्नेही जनों के प्रति मातृभाव रखती हैं, परंतु यदि कोई दुष्ट आ जाता है तो उसका विनाश करने में भी सक्षम हैं। आज उसी प्रकार नारी को आत्मरक्षा के लिए तन और मन दोनों से तैयार होना होगा। यह समय देवी के उस रूप को पूजने के साथ-साथ आत्मसात करने का भी है। इसके लिए आवश्यक साहस और दृढ़ता जैसे गुण तो स्त्रियों में हैं ही और जिन क्षेत्रों में भी उन्हें अवसर मिला है, उनमें स्त्रियां अपने इन गुणों को सिद्ध भी कर रही हैं, परंतु अब इसे हर स्त्री को अपनाना होगा।

यह ठीक है कि स्त्री की एक श्रृंगार-केंद्रित छवि रही है, लेकिन अब श्रृंगार के साथ-साथ उन्हें शौर्य को भी धारण करना होगा। शौर्य और श्रृंगार कोई विरोधी तत्व नहीं हैं कि एकसाथ इन्हें साधा नहीं जा सकता। अत: नारी को इस दिशा में बढ़ना चाहिए, क्योंकि यह समय की मांग है और शक्ति की आराधना का सर्वश्रेष्ठ मार्ग भी यही है। सरकार भी स्त्रियों को आत्मरक्षा के लिए तैयार करने हेतु कोई राष्ट्रव्यापी अभियान आरंभ करे, जिससे कि हर स्त्री के भीतर उपस्थित शक्ति को जागृत किया जा सके।

‘शक्ति’ के अतिरिक्त देवी का एक ‘मां’ का भी रूप होता है। इस रूप में नारी अपनी संतान में संस्कार के ऐसे बीज यदि रोप सकें कि संसार का हर प्राणी सम्माननीय है तो स्त्रियों के सम्मान और सुरक्षा से जुड़ी समस्याओं का शायद पूर्णत: समाधान हो सकता है। ये अपेक्षाएं स्त्रियों से इसलिए हैं, क्योंकि आज के समय में वे ही ‘शक्ति’ की प्रतीक हैं। उनके बिना न केवल पुरुष, अपितु पूरा समाज शक्तिहीन ही है। अत: समाज में जो विकृतियां हैं, उनका शमन करने के लिए उनके जुटे बिना बात नहीं बनेगी। यह देश अनेक वीरांगनाओं से भरा रहा है। उनकी प्रेरणा और संकल्पों ने परिवार और समाज को समय-समय पर ऊर्जा प्रदान की है। वर्तमान समय में उनसे कुछ यही अपेक्षा है। रहे पुरुष तो वे इतना ही संकल्प ले लें कि नवरात्र में जिस आदर-भाव से कन्याओं का पूजन करते हैं, वह भाव वर्ष के अन्य दिनों में भी जीवन में मिलने वाली हर स्त्री के प्रति मन में बनाए रखेंगे। स्त्रियां बाकी सब अर्जति करने में समर्थ हैं, पुरुष केवल उन्हें सम्मान दें, इतना ही पर्याप्त होगा।

[कला-संस्कृति मामलों के जानकार]


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