National Education Policy: मातृभाषा में सीखने से बच्चों का होगा तेज विकास
स्कूलों में कक्षा पांच तक अनिवार्य रूप से मातृभाषा और स्थानीय भाषा में पढ़ाई का बच्चों को इसका क्या फायदा होगा उनके मानसिक और शारीरिक विकास पर इसका कितना असर पड़ेगा।
नई दिल्ली, [धीरेंद्र पाठक]। नई शिक्षा नीति को स्कूली शिक्षा में एक महत्वपूर्ण बदलाव के रूप में देखा जा रहा है। खासकर भाषा के स्तर पर 3 लैंग्वेज फॉर्मूले की बात की गई है। स्कूलों में कक्षा पांच तक अनिवार्य रूप से मातृभाषा और स्थानीय भाषा में पढ़ाई का बच्चों को इसका क्या फायदा होगा, उनके मानसिक और शारीरिक विकास पर इसका कितना असर पड़ेगा, जाने हमारे शिक्षा एक्सपर्ट जेपीएस, नोएडा के प्रधानाचार्य डॉ. डीके सिन्हा की राय...
नई शिक्षा नीति में कक्षा 5वीं तक मातृभाषा में पढ़ाने का कॉन्सेप्ट एक सराहनीय कदम है। इससे बच्चों को समझाने में आसानी होगी। यह वैज्ञानिक तरीके से भी सही माना गया है कि अपनी मातृभाषा में समझ ज्यादा आती है बच्चों को। अगर आप जर्मनी, फ्रांस, रूस जैसे देशों को देखें तो वे भी अपनी मातृभाषा में ही बच्चों को पढ़ाते हैं।
बॉयोलॉजिकली यह साबित भी हो चुका है कि हमारी जो भी भाषा है, जिसमें हमने जन्म लिया है। अगर उसी में पढ़ाया जाए, तो आसानी से चीजें सीख और समझ सकते हैं। वैसे भी देखा जाए तो बोर्डिंग या क्रिश्चियन स्कूलों को छोड़कर कहीं भी संपूर्ण रूप से आज इंग्लिश में नहीं पढ़ाया जाता है।
यहां तक कि डीएबी या डीपीएस जैसे प्रमुख स्कूलों में भी निचले लेवल की कक्षाओं में हिंदी/इंग्लिश दोनों में पढ़ाया जाता है। इसलिए जब स्कूल में अध्यापक मातृभाषा में पूरी तरह से पढ़ाएगा तो बच्चे की भाषा पर पकड़ भी ज्यादा होगी और इसका दूरगामी नतीजा भी सामने आएगा।
यह बहुत सोच-विचार कर उठाया गया कदम है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष के कस्तूरीरंगन, बाला सुब्रमण्यम और इसके अन्य सदस्यों का भी यही मत था कि जिसके माता पिता जो भाषा बोल रहे हैं, उसे उसमें नई चीजें सीखने, समझाने में आसानी होगी। दरअसल, कक्षा 5वीं तक बच्चा मानसिक रूप से थोड़ा मैच्योर हो जाता है। वह इस कक्षा तक पहुंचने तक 10 से 12 वर्ष की अवस्था में आ जाता है।
यह माना जाता है कि 10 से 14 वर्ष के बीच में बच्चों का लैंग्वेज लर्निंग बहुत अच्छा होता है। इस दौरान बच्चे फ्रेमिंग करने लगते हैं, बोलने का प्रयास करते हैं। उस समय बच्चा चाहे तो कोई भी लैंग्वेज सीख सकता है। हमारे स्कूल का उदाहरण लीजिए। हमारे यहां कक्षा 3 से फ्रेंच सिखाया जाता है। मैंने यह महसूस किया है कि कक्षा 3 और 4 तक बच्चा इसे बहुत अच्छा नहीं सीख पाता है।
लेकिन जैसे ही वह 5वीं में आता है, वह बड़ी आसानी से फ्रेंच सीख लेता है। भाषा हमारे दिमाग के बाए हिस्से पर असर डालती है। यह प्रमाण है आज तक जितने भी महान खोज हुए हैं, वह दिमाग के दाये हिस्से के प्रभाव से हुआ है, और यह दाया हिस्सा तभी जीवित रख सकते हैं जब आपका लैंग्वेज पर फोकस होगा, क्योंकि यह हिस्सा लैंग्वेज से प्रभावित होता है।
यही वजह है कि जो बच्चो तीसरी कक्षा तक भाषा को सीखने में जूझता दिखाई देता है, वही चौथी से छठी के बीच बड़े अच्छे ढंग से लैंग्वेज सीखने लग जाता है। इससे पहले वह सिर्फ रटता है। इसलिए मेरा यही मानना है कि स्कूल के हिंदी या इंग्लिश मीडियम होने से कुछ नहीं होता है।
आप पूर्वाचंल को देखिए। यहां हिंदी मीडियम वाले बच्चों का आइएएस, आइआइटी या आइआइएम में रिजल्ट देखिए। साथ ही कान्वेंट वाले बच्चों का रिजल्ट देखिए। आखिर क्यों यूपी, बिहार, बंगाल, उड़ीसा या पूर्वांचल के बच्चे गांव की पृष्ठभूमि के रहते हुए भी इतने बड़े-बड़े वैज्ञानिक बने हुए हैं। इसलिए कि लैंग्वेज का कोई फर्क नहीं पड़ता।
इस नई शिक्षा नीति का एक फायदा यह भी होगा कि बच्चों को लैंग्वेज के दबाव से छुटकारा मिलेगा, क्योंकि अभी तक बच्चों पर इंग्लिश थोपा जा रहा था। इससे कहीं न कहीं उन पर स्ट्रेस पड़ रहा था, जो उनके मानसिक और शारीरिक दोनों अवस्थाओं के विकास को प्रभावित कर रहा था।
यह अब रुकेगा। मेरा विश्वास है अगर यह नीति वाकई में क्रियान्वित हो गई तो अगले पांच वर्षों में इसका बड़े दूरगामी और अच्छे परिणाम सामने आएंगे। इससे न सिर्फ अंकों का दबाव हटेगा, बल्कि आत्महत्या या हिंदी-इंग्लिश के बच्चों में असमानता जैसी चीजें भी नहीं रह जाएंगी।
(डॉ. डीके सिन्हा वरिष्ठ शिक्षाविद एवं जागरण पब्लिक स्कूल, नोएडा के प्रिंसिपल हैं)