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वो सात दिन..! बेहद मुश्किल थी वो रात, नहीं पता कहां गलती हुई जो रूठ गई हमारी मां

सात दिनों के अंदर ही मम्‍मी इस कदर बीमार हो गईं कि उन्‍हें बचापाना ही मुश्किल हो गया। वो चली गईं हमें छोड़कर। अब उनके बिना घर सूना लगता है और नहीं समझ आता कि उनके बिना कैसे क्‍या करेंगे।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sun, 09 May 2021 10:22 AM (IST)Updated: Sun, 09 May 2021 10:22 AM (IST)
वो सात दिन..! बेहद मुश्किल थी वो रात, नहीं पता कहां गलती हुई जो रूठ गई हमारी मां
बिन मां के सूना ही है हमारा मर्दस डे

नई दिल्‍ली (कमल कान्‍त वर्मा)। मां...! दुनिया का एक सबसे प्‍यारा शब्‍द। मां, जो अपने आगोश में बच्‍चे को आखिरी सांस तक दुनिया की बुरी चीजों से बचाकर रखती है। खुद को कुछ हो जाए तो कोई बात नहीं लेकिन औलाद को कुछ नहीं होना चाहिए। अपने बच्‍चों को गलतियों को माफ करती है, क्‍योंकि वो एक मां है। ऐसी ही मां को 29 अप्रैल की रात 11:55 बजे मैंने दिल्‍ली के सफदरजंग अस्‍पताल में खो दिया। जब उन्‍होंने आखिरी सांस ली तो मन व्‍याकुल था। हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे। डॉक्‍टर को देखकर लगता था कि वो केवल अपना एक रुटिन जॉब ही कर रहे हैं। दस दिन पहले तक मम्‍मी बिल्‍कुल ठीक थीं।

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उन्‍हें अस्‍थमा और आर्थराइटिस की जो दिक्‍कत थी उसके अलावा और कुछ नहीं था। मना करते करते भी रसोई में खाना बनाने के लिए पहुंच जाती थीं। लेकिन आखिरी सात दिनों में उनका सांस फूलने लगा और बेचैनी बढ़ने लगी। पूरी-पूरी रात दर्द से कराहते कटने लगी। 22 अप्रैल की रात को उनकी बेचैनी बेहद बढ़ गई। उनका ऑक्‍सीजन लेवल 55 पर पहुंच गया। आनन-फानन में उन्‍हें रात के करीब ढाई बजे अस्‍पताल के लिए लेकर गए। एक के बाद एक कई अस्‍पताल गए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। सुबह एक पुलिस अधिकारी की पहुंच के बाद पटेल चेस्‍ट में दिखाने के लिए लंबी लाइन में लगना पड़ा। मम्‍मी की हालत खराब थी और ओपीडी खुली नहीं थी। इंतजार के बाद भी कोई फायदा नहीं हुआ और आखिर में वहां से मायूस होकर वापस लौटना पड़ा।

राजीव गांधी सुपर स्‍पेशलिटी कैंसर अस्‍पताल में मम्‍मी जी का कोविड एंटीजन टेस्‍ट कराया गया। उसके लिए भी एक की जैक लगानी पड़ी। उसमें रिपोर्ट नेगेटिव आई। कहीं कुछ न होने के बाद मम्‍मी को वापस घर लाना पड़ा। मम्‍मी की हालत लगातार खराब हो रही थी और हम कुछ नहीं कर पा रहे थे। उस वक्‍त तक मम्‍मी धीरे-धीरे चल पा रही थीं। टायलेट में अपने आप चली जाती थीं, भले ही इसमें कुछ देर लगती थी। लेकिन बाद में मम्‍मी के ऊपर मूर्छा छाने लगी थी। दर्द और बेचैनी के साथ आई मूर्छा मम्‍मी जी पर हावी होने लगी थी। कुछ भी नहीं खा रही थीं। पूरे दिन में बामुश्किल एक गिलास जूस बस, और कुछ नहीं।

हालात बिगड़ते दिखाई दे रहे थे। हमारे मन में मम्‍मी जी को लेकर व्‍याकुलता बढ़ने लगी थी। लेकिन बाहर भी कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। जितने डॉक्‍टर जान पहचान या रिश्‍तेदारी में थे कुछ नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में फिर एक बार अस्‍पताल लेकर जाने के बारे में विचार किया गया और उनको इभास अस्‍पताल की इमरजेंसी में दिखाया गया। वहां पर पता चला कि मम्‍मी जी के दिमाग में ऑक्‍सीजन की कमी होने की वजह से कई सारी दिक्‍कतें आ चुकी हैं। वहां पर डॉक्‍टरों ने सिटी स्‍कैन करने की कोशिश की लेकिन मम्‍मी जी इस कदर बेचैन थी कि वो स्थिर नहीं हो पा रही थीं। वहां पर हुए और टेस्‍ट में पता चला कि उनके शरीर में सोडियम की मात्रा खतरनाक स्‍तर पर पहुंच चुकी है। वहां से उन्‍हें सफदरजंग अस्‍पताल भर्ती कर दिया गया। इभास के एंटीजन टेस्‍ट में भी मम्‍मी नेगेटिव आई थीं।

रात करीब 9 बजे सफदरजंग अस्‍पताल की इमरजेंसी में दिखाने के बाद उन्‍हें भर्ती कर लिया गया। वो एक जनरल वार्ड था। वहां पर कोकरॉच इतने थे कि जिसको बयां करना भी मुश्किल है। साफ-सफाई के नाम पर कुछ नहीं था। मम्‍मी का बेड भी ऐसी जगह पर था जहां पंखे की हवा तक नहीं आ रही थी। नर्स देखने को तैयार नहीं थीं। पूरी रात मम्‍मी जी एक गंदगी में रहीं। उनके कपड़े भी पूरी तरह से गंदे हो चुके थे। नर्स हाथ लगाने तक के लिए तैयार नहीं थीं। अगले दिन सुबह मम्‍मी को हमनें साफ कर उन्‍हें डाइपर पहनाया और उनके कपड़े बदले। बैड की चादर तक वहां पर नहीं मिल सकी। अगले दिन जब डाक्‍टर आए तो उन्‍होंने बताया कि मम्‍मी की हालत बेहद खराब है और कुछ नहीं कहा जा सकता। ऑक्‍सीजन उनको तुरंत लगा दी गई थी।

उनको कई बार मम्‍मी का कोविड टेस्‍ट करने को कहा लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। पूरे दिन में एक बार डॉक्‍टर का आना और एक बार सिस्‍टर का आना होता था। उनको जो सोडियम की ड्रिप लगाई थी उसको कायदे में एक दिन में खत्‍म होना चाहिए था, लेकिन वो उनकी अंतिम सांस तक भी आधी ही रही। इसकी वजह थी कि वो चल ही नहीं रही थी। कई बार सिस्‍टर को इसके बारे में कहा गया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। 28 अप्रैल की पूरी रात मम्‍मी बेचैन रहीं। पूछने पर मम्‍मी ने बताया कि दर्द हो रहा है, लेकिन कहां वो नहीं बता सकीं। 29 अप्रैल को सीनियर डॉक्‍टर ने बताया कि कोई रिपोर्ट अच्‍छी नहीं। इसलिए इन्‍हें वेंटिलेटर पर रखना होगा। उस वक्‍त डॉक्‍टर को दोबार कोविड-19 की जांच के लिए आरटीपीसीआर टेस्‍ट करने को कहा तो वो मान गया और सैंपल ले लिया गया। दोपहर आते आते हालात खराब होते गए। शाम छह बजे मम्‍मी जी को सीनियर डॉक्‍टर की मौजूदगी में वेंटिलेटर लगाने की कवायद शुरू की गई।

लेकिन ये हमारी खराब किस्‍मत थी या वहां की खराब व्‍यवस्‍था कि वहां पर एक एक कर 4-5 वेंटिलेटर खराब रखे थे। किसी तरह से एक वेंटिलेटर का जुगाड़ किया गया। लेकिन जब डॉक्‍टर ने उसको लगाया तो मम्‍मी के मुंह से इतना खून बाहर आया कि जिसको संभाल पाना हमारे लिए मुश्किल था। लेकिन डॉक्‍टर केवल वेंटिलेटर को किसी तरह से लगाने की कोशिश में ही लगे रहे उनकी कोई तवज्‍जो खून पर नहीं थी। वेंटिलेटर लगाने के बाद जब उनसे खून आने की वजह पूछी गई तो उन्‍होंने बताया कि कोई दांत टूटने से ऐसा हुआ होगा। मुंह से खून आ रहा था और मम्‍मी तड़प रही थीं। खून पूछने को भी कोई तैयार नहीं था। एक नर्स ने इसकी कोशिश तो की लेकिन गंदी रूई को भी वहीं बैड के पास फेंक दिया। बाद में हमनें ही उसको साफ किया। इसके बाद तो धीरे-धीरे मम्‍मी की चलती सांसें कम होने लगीं।

रात करीब 10 बजे बार बार कहने पर एक डाक्‍टर ने उन्‍हें एक इंजेक्‍शन दिया। लेकिन कोई असर दिखाई नहीं दिया। रात करीब सवा ग्‍यारह बजे मैंने उन्‍हें सीपीआर देने की कोशिश की। साढ़े ग्‍यारह बजे डॉक्‍टर को उन्‍हें इलेक्ट्रिक शॉक देने की गुजारिश की गई। ये आखिरी कोशिश थी जो बेकार साबित हुई। रात 11:56 पर मम्‍मी जी हमें छोड़कर चली गईं। वहां पर पार्थिव देह को सही से कवर करने के भी इंतजाम नहीं थे। देर रात हम वहां से उनके पार्थिव शरीर को लेकर अपने गांव गढ़- गंगा की तरफ चल दिए और शाम तक सब कुछ कर-कराकर वापस पहुंचे। तब पता चला कि मम्‍मी की कोविड रिपोर्ट पॉजीटिव आई है और पूरा अस्‍पताल स्‍टाफ फिलहाल क्‍वारंटीन हो गया है।

मम्‍मी चली गईं और घर का एक कोना बिल्‍कुल खाली हो गया। उसको हम नहीं भर सकते। बच्‍चे बीच बीच में उठकर रोने लगते हैं। भैया को लगता है कि हमनें अस्‍पताल ले जाकर बड़ी गलती कर दी। ऐसा नहीं करते तो शायद कुछ और दिन मम्‍मी हमारे बीच होती। मम्‍मी के यूं जाने के बाद ऐसा लगने लगा है कि आगे कैसे होगा। हमारा घर तो उन पर ही टिका हुआ था। वही घर की मजबूत नींव थीं। मुझे याद है मुझे अपनी पीठ पर लेकर वो अस्‍पताल लेकर जाती थीं। मेरे लिए कई कष्‍ट उन्‍होंने सहे। और जब उनकी बारी आई तो हम कुछ नहीं कर सके। दो साल पहले तक जब पापा जी थे तब तक हमारे बारी बारी से अस्‍पताल के चक्‍कर लगते रहे। कभी मम्‍मी तो कभी पापाजी। आलम ये था कि अस्‍पताल का स्‍टाफ भी हमसे वाकिफ हो चुका था। लेकिन पापा जी के जाने के बाद मम्‍मी को कभी अस्‍पताल ले जाने की जरूरत नहीं पड़ी। मम्‍मी जी ने शायद जाते जाते भी इस बात का ध्‍यान रखा कि उनके बच्‍चों को ज्‍यादा मुश्किल दौर का सामना न करना पड़े। महज सात दिन में सारी कहानी ही बदल गई।


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