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यहां से भड़की थी 1857 की पहली चिंगारी, दुनियाभर के क्रिकेट खिलाड़ियों के लिए भी है खास

मेरठ से शुरू 1857 की क्रांति के 162 वर्ष होने के मौके पर चलते हैं देश की राजधानी दिल्ली के करीब स्थित इस शहर के सफर पर...

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 09 May 2019 01:40 PM (IST)Updated: Fri, 10 May 2019 08:57 AM (IST)
यहां से भड़की थी 1857 की पहली चिंगारी, दुनियाभर के क्रिकेट खिलाड़ियों के लिए भी है खास
यहां से भड़की थी 1857 की पहली चिंगारी, दुनियाभर के क्रिकेट खिलाड़ियों के लिए भी है खास

प्रवीण वशिष्ठ। मेरठ (उ. प्र.) का जिक्र होते ही देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की यादें ताजा हो जाती हैं। यहीं से उस महान संघर्ष की पहली चिंगारी (10 मई, 1857 को) उठी थी। स्पोर्ट्स सिटी के रूप में पहचाने जाने वाले इस शहर में गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक नौचंदी मेला आज भी लगता है। पहली नजर में अस्त-व्यस्त और तंग नजर आने वाले शहर मेरठ से जैसे-जैसे आपकी पहचान बढ़ेगी, यह अपनी खासियतों के साथ आपको अपने आगोश में बिठा लेगा। आज आधुनिकता की तरफ बढ़ते हुए इस ऐतिहासिक शहर ने बड़ी खूबसूरती से अपनी पुरानी पहचान को भी बचाए- बनाए रखा है। यह मेहनतकश और अलबेलों का शहर है। खेल उद्योग हो या फिर बैंड बनाने का कारोबार, आज के मेरठ की ये दो बड़ी पहचान हैं, जिनकी बदौलत यह दुनियाभर में अपनी धमक रखता है। मई का महीना इस शहर के लिए खास है और देश के लिए भी, क्योंकि ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल 10 मई, 1857 को यहीं से बजा था।

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इतिहासकारों के मुताबिक, 9 मई, 1857 को घुड़सवार सेना के 85 भारतीय सिपाहियों का कोर्ट मार्शल कर दिया गया था। इसके बाद 10 मई, 1857 को सिपाहियों ने खुली बगावत कर दी थी। इस क्रांति के महानायक शहीद धन सिंह कोतवाल की जन्मभूमि पांचली खुर्द भी मेरठ में ही है।

वक्त के साथ बदलता शहर
मेरठ क्रांति का शहर रहा है, तो मान्यताओं का भी। यहां आपको नया-पुराना हर रंग राह चलते नजर आ जाएगा। शहर की चाल ही ऐसी है कि सड़क पर चमचमाती बीएमडब्ल्यू के साथ ही भैंसा-बुग्गी भी आपको नजर आ जाएगी। आज के दौर में मॉल, बड़े-बड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठान, एक-दूसरे से आगे निकलने की जिद में जुटे लोग शहर को तेजी से बदल रहे हैं। यह शहर दिल्ली के करीब है तो जाहिर है कि यह कॉरपोरेट जगत को रिझाने का प्रयास भी कर रहा है।

रौनक नौचंदी मेले की
मेरठ की बड़ी पहचान यहां लगने वाला नौचंदी मेला भी है, जो शहर की गंगा-जमुनी तहजीब की गवाही देता है। इस मेले का पुराना नाम था नवचंडी, जो समय के साथ नौचंदी हो गया। हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक रूप में इस मेले की शुरुआत साल 1672 के आसपास हुई थी। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पहले यह मेला केवल एक रात के लिए होता था। फिर दो-दिन और 1880 के बाद यह मेला एक सप्ताह तक चलने लगा, जो अब एक माह तक लगताहै। दरअसल, 1883 में तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर एफ.एन.राइट ने चंडी मंदिर और बाले मियां की मजार दोनों का महत्व समझते हुए नौचंदी मेले की अवधि बढ़ा दी। इस मेले के आयोजक मार्च से मई के बीच कभी भी इसकी शुरुआत तय करते हैं। मेले में देशभर से आये कलाकार और दुकानदार शामिल होते हैं। इससे मेले की बहु-सांस्कृतिक छटा देखते ही बनती है। खानपान के शौकीनों को यह मेला खास तौर पर लुभाता है। हलवा-पराठा और नान-खताई इसका खास आकर्षण है। हालांकि यहां के रंगकर्मी भारत भूषण शर्मा कहते हैं, ‘एक वक्त था, जब इस मेले में कवि सम्मेलन और मुशायरे खूब हुआ करते थे और हरिवंशराय बच्चन, कैफी आजमी जैसी शख्सीयतें इनकी रौनक बनती थीं। यदि आयोजक प्रयास करें तो निश्चित तौर पर इसकी पुरानी रौनक लौट सकती है।’

दुनियाभर में बजता है यहां का ‘बैंड’
मेरठ बैंड बनाने में भी उस्ताद है। इसका कारोबार भी यहां ब्रिटिश जमाने से चला आ रहा है। ब्रिटिश आर्मी में बैंड लीडर रहे नादिर अली ने 1885 में रिटायरमेंट लेकर 24 कलाकारों की एक टीम बनाई थी। इस टीम ने ब्रिटिश बैंड को पहली बार स्थानीय शादियों में बजाने का प्रयोग किया था। ब्रिटिश आर्मी हाई पिच ए-452 पर बैंड बजाती थी। नादिर अली ने 1905 में नया बैंड बनाना शुरू किया और जब इसमें कामयाबी मिली तो उन्होंने अपने चाचा इमाम बख्श के साथ मिलकर यूरोप से हाई पिच वाले बैंड के आयात का काम भी शुरू कर दिया। मेरठ का बैंड ब्रास का होता है, जो अपनी तकनीक की वजह से विकसित देशों से टक्कर लेता रहा है। 1970 में जापान एवं 1981 में अमेरिका में यहां का बैंड पहुंचा था। इस समय मेरठ में करीब डेढ़ सौ बैंड कंपनियां कारोबार कर रही हैं। इस उद्योग में आज भी 90 फीसदी से अधिक काम हाथ से होता है।

धारदार कैंची की धार बरकरार
कहा जाता है कि सबसे पहले बेगम समरू विदेश से एक उपकरण लेकर आई थीं, जो हूबहू कैंची की तरह था। कारीगरों ने इसे जब पिघलते लोहे पर आजमाया तो एक नया उपकरण सामने आया, जिसे कैंची नाम दिया गया। अल्ला बक्श व मौला बक्श समेत दर्जनों कारीगरों के हाथों से होते हुए यह और धारदार बनती गई। देशभर में कपड़ों की कटाई, टेक्सटाइल इंडस्ट्री, कागज काटने वाली कैंची एवं अत्याधुनिक सैलूनों का मेरठ की कैंची के बिना काम नहीं चलता। दरअसल, स्प्रिंग स्टील और पुरानी गाड़ियों की कमानी को पिघलाकर इसका ब्लेड बनाया जाता है, तो पुराने पीतल, एल्युमिनियम से कैंची का हैंडल बनाया जाता है। यहां की कैंचियां श्रीलंका, नेपाल, भूटान, सऊदी अरब एवं अफ्रीकी देशों को भी भेजी जाती हैं।

पांडवों-कौरवों का गवाह हस्तिनापुर!
मेरठ जिला मुख्यालय से 37 किमी. की दूरी पर स्थित है हस्तिनापुर। मान्यता है कि यह पांडवों-कौरवों के संघर्ष का गवाह रहा है। यहां जंबूद्वीप भी देखना न भूलें। जैन धर्म से संबंधित सुमेरु पर्वत एवं कमल मंदिर का पूरा परिसर भ्रमण योग्य है। गुरु गोविंद सिंह जी के पंच प्यारों में से एक भाई धर्मसिंह जी की जन्मस्थली हस्तिनापुर के निकट गांव सैफपुर कर्मचंदपुर में है।

बरनावा का लाक्षागृह!
मेरठ से करीब 40 और बागपत जिला मुख्यालय से लगभग 30 किलोमीटर दूर हिंडन और कृष्णा नदी के संगम पर स्थित है बरनावा। मान्यता है कि यहीं पांडवों को जलाकर मारने के लिए कौरवों ने लाक्षाग़ृह का निर्माण कराया था। इस लाक्षागृह और सुरंग के अवशेष आज भी यहां मौजूद हैं, जिन्हें देखने के लिए पर्यटकों की भीड़ रहती है। वर्तमान में टीले के पास एक गोशाला, श्रीगांधी धाम समिति, वैदिक अनुसंधान समिति तथा महानंद संस्कृत विद्यालय है।

औघड़नाथ मंदिर
मेरठ कैंट स्थित यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। ब्रिटिश आर्मी में भारतीय सैनिकों को ‘काली पलटन’ कहा जाता था। इसी मंदिर के आसपास भारतीय सैनिक रहते थे, इसलिए इस मंदिर को ‘काली पलटन मंदिर’ के नाम से भी जाना जाता है।

खेल-उत्पादों का बादशाह
1950 के दशक से ही मेरठ में खेल-उद्योग पनपने लगा था। देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए खेलउद्यमियों ने मेरठ में डेरा डाला और देखते ही देखते यह शहर देश की खेल-राजधानी में तब्दील हो गया। इससे बड़ी बात क्या होगी कि आज ओलंपिक खेलों और क्रिकेट की विश्व प्रतियोगिताओं में भी मेरठ के खेल-उत्पादों का राज चलता है। यहां करीब दो हजार छोटी-बड़ी इकाइयां हैं, जिन्होंने खेल उपकरणों के निर्माण में बादशाहत कायम की है। क्रिकेट, टेबल-टेनिस, फुटबॉल आदि सभी खेलों के अंतरराष्ट्रीय गुणवत्ता के उपकरणों का निर्माण यहां हो रहा है। यहां बैट, बॉल, स्टंप, टेबल टेनिस, बैडमिंटन, फुटबाल, वालीबॉल, डिजिटल घड़ी के साथ-साथ एथलेटिक्स उत्पाद, फिटनेस संयंत्र, ट्रैक सूट, स्पोट्र्स शूज व तैराकी सूट समेत करीब डेढ़ सौ प्रकार के उत्पाद निर्मित होते हैं।

मेरठ की बीडीएम, एसजी, एसएस, एचआरएस इंटरनेशनल जैसी नामी कंपनियों के क्रिकेट बैट का प्रयोग दुनियाभर के क्रिकेटर करते रहे हैं, वे चाहे सुनील गावस्कर, दिलीप वेंगसरकर, सचिन तेंदुलकर, वीरेंद्र सहवाग,विराट कोहली जैसे भारतीय दिग्गज हों या फिर गार्डन ग्रीनिज, कुमारा संगकारा, क्रिस गेल, माइकल स्लेटर, मैथ्यू हेडन जैसे विदेशी खिलाड़ी। टेबल टेनिस में मेरठ के स्टैग इंटरनेशनल का जलवा है। यहां के टेबल टेनिस उत्पाद विश्व की लगभग सभी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में इस्तेमाल किए जा रहे हैं।

शहीद स्मारक
मेरठ सिटी रेलवे स्टेशन से छह किलोमीटर एवं भैंसाली बस अड्डे से मात्र 200 मीटर की दूरी पर स्थित है शहीद स्मारक। 1857 की क्रांति के शहीदों को समर्पित हरे-भरे परिसर में स्थित इस स्मारक में 30 मीटर ऊंचा शहीद स्तंभ है।

गांधी बाग
मेरठ कैंट में स्थित गांधी बाग ब्रिटिशकालीन है, जिसकी स्थापना प्रमुख पार्क के रूप में की गई थी। उस दौर में इसे ‘कंपनी गार्डन’ कहा जाता था। त्योहारों के मौके पर यहां सबसे अधिक भीड़ होती है।

शाहपीर का मकबरा
17वीं शताब्दी के आसपास लाल पत्थर से बना था संत शाह पीर का मकबरा। इंदिरा चौक के पास स्थित यह मुगलकालीन वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। एक ऊंचे चबूतरे पर बना यह भव्य मकबरा भारत सरकार द्वारा संरक्षित इमारत है।

कौन थीं बेगम समरू?
कोताना कस्बे (बागपत) के रहने वाले लतीफ अली खां की बेटी थी फरजाना। भरतपुर के राजा जवाहर सिंह के यहां सेनापति वाल्टर रेनार्ड उर्फ समरू ने मुस्लिम रस्मों के मुताबिक फरजाना से शादी की थी। समरू की मौत के बाद फरजाना बेगम ने ही सरधना में उनकी गद्दी संभाल वर्ष 1778 से हुकूमत का आगाज किया। बेगम ने कैथोलिक धर्म अपना लिया था।

बेगम समरू ने बनवाया भव्य चर्च
सरधना मेरठ से तकरीबन 22 किमी. दूर है। यहां आप देख सकते हैं वह भव्य चर्च, जिसे मदर मरियम का तीर्थस्थान माना जाता है। इस चर्च के कारण सरधना का नाम विश्व स्तर पर प्रसिद्ध है। इसका निर्माण कराया था सरधना की बेगम समरू ने। ऐतिहासिक और भव्य होने के कारण चर्च को तत्कालीन पोप ने 1961 में ‘माइनर बसिलिका’ का दर्जा प्रदान किया। इसे तैयार करने में 11 वर्ष लग गए थे। बेगम ने चर्च के निर्माण कार्य की कमान सैन्य अधिकारी मेजर एंथोनी रेगीलीनी को सौंपी थी। गुंबददार छत और खास मेहराब कई प्रकार की कारीगरी से सजे हुए हैं। चर्च के भारी बरामदे को संभाले 18 चौड़े और खूबसूरत खंभे और इन सबके पीछे आसमान को छूती दो मीनारें हैं। चर्च से कुछ ही दूरी पर बेगम समरू का सुंदर महल भी है।

आबूलेन है यहां का कनॉट-प्लेस
मेरठ के कुछ बाजार बड़े मशहूर हैं। आबूलेन को यहां का कनॉट- प्लेस कहा जा सकता है, जहां बड़े ब्रांडेड आउटलेट्स मिल जाते हैं। शहर के सराफा बाजार का भी विशेष महत्व है। यहां का सराफा कारोबार करीब चार सौ साल पुराना बताया जाता है। यहां की कई दुकानें तो सौ साल से भी अधिक पुरानी हैं। बेगम समरू के नाम पर बेगम पुल बाजार से भी खरीदारी की जा सकती है। बेगम पुल के पास स्थित लालकुर्ती पैठ बाजार हर वर्ग के लोगों की खरीदारी का प्रमुख केंद्र है। यहां वाजिब दाम पर कपड़े, जूते, शृंगार का सामान आदि मिल सकते हैं। खेल सामानों की खरीदारी के लिए आपको सूरजकुंड मार्केट जाना चाहिए।

ऐतिहासिक मेरठ छावनी
भारत में सेना की करीब 62 छावनियां हैं, लेकिन ऐतिहासिक महत्व के मामले में मेरठ कैंट दूसरों से कहीं आगे है। मेरठ को मुगलों से जीतकर अंग्रेजों ने यहां वर्ष 1803 में छावनी बनाई थी। दिल्ली से नजदीक होना यहां छावनी बनाने का प्रमुख कारण माना जाता है। सन् 1857 में यहां तीन भारतीय (नेटिव) और तीन ब्रितानी पलटन तैनात थीं। ये दोनों मिलकर मेरठ गैरिसन (सेना) कहलाती थीं। ब्रिटिश शासन के तहत सीधे आने से पहले ये सभी पलटनें ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन थीं। आज यहां सेना के भर्ती कार्यालय से लेकर उम्दा प्रशिक्षित श्वानों (कुत्तों) और घोड़ों के लिए भी अलग-अलग सेंटर हैं। पाइन डिवीजन, 510 वर्कशॉप, वॉर मेमोरियल आदि सैन्य केंद्र मेरठ छावनी को अलग पहचान देते है।

मशहूर है रेवड़ी, गजक और नान खताई
सराफा बाजार की कचौड़ी, जलेबी, सदर बाजार में मिलने वाला दालसमोसा, आबूलेन की चाट और छोले-भटूरे यानी शहर का हर बाजार, हर गली किसी न किसी खास व्यंजन के लिए लोकप्रिय है। आपने मेरठ की गजक के बारे में जरूर सुना होगा। गुड़ व चीनी की चाशनी में देसी घी व अन्य कई चीजों को मिलाकर जब एक जानदार मसाला तैयार किया जाता है, फिर बनती है मेरठ की लाजवाब गजक। इनमें काजू वाली गजक, पट्टी वाली गजक, रामकला गजक, चॉकलेट गजक, मशरूम गजक, पिज्जा गजक, मूंगफली गजक और प्योर मक्खन की बनी गजक स्वाद के कद्रदानों के बीच खासी लोकप्रिय हैं। मेरठ में सन् 1904 में रामचंद्र सहाय ने यह काम शुरू किया था, तब से रेवड़ी- गजक यहां की पहचान बन गई। मेरठ की रेवड़ी भी स्वाद में लाजवाब होती है। हां, मेरठ आने पर नान खताई खाना भी न भूलें।

कैसे और कब जाएं?
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से करीब 70 किलोमीटर दूर स्थित मेरठ सड़क और रेल मार्ग से बखूबी जुड़ा है। उड़ान योजना के तहत अब यहां हवाई सेवा उपलब्ध कराने की दिशा में भी तेजी से काम हो रहा है। पूरे वर्ष इस शहर में आ सकते हैं, लेकिन मानसून में या फिर सर्दियों में यहां का मौसम अधिक अनुकूल होता है।

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