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Migrant Labourers Crisis: भरोसा टूटा तो घर की ओर बढ़े प्रवासी श्रमिकों के कदम, जानिए आपबीती

दो माह में जो भी जमापूंजी थी वह खाने और घर का किराया देने में खत्म हो चुकी है। सबके दावे खोखले ही साबित हुए।

By Arun Kumar SinghEdited By: Published: Fri, 29 May 2020 02:02 AM (IST)Updated: Fri, 29 May 2020 02:02 AM (IST)
Migrant Labourers Crisis:  भरोसा टूटा तो घर की ओर बढ़े प्रवासी श्रमिकों के कदम, जानिए आपबीती
Migrant Labourers Crisis: भरोसा टूटा तो घर की ओर बढ़े प्रवासी श्रमिकों के कदम, जानिए आपबीती

नई दिल्ली, जेएनएन। कोरोना वायरस के कारण रोजी-रोटी के लिए दिल्ली-एनसीआर आए प्रवासी श्रमिकों का पलायन थमने का नाम नहीं ले रहा है। लॉकडाउन-1 शुरू होते ही श्रमिकों ने अपने घरों को लौटना शुरू कर दिया था। इसके बाद भी लाखों कामगार इस आस में रुके रहे कि हालात सुधरेंगे और दोबारा काम मिलेगा। अब दो माह बाद यह उम्मीद भी टूटने लगी है।

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लॉकडाउन-4 में छूट तो मिली, लेकिन कच्चे माल व पर्याप्त मानव संसाधन की कमी के कारण उद्योग-धंधे पूरी तरह शुरू नहीं हो सके हैं। रहा-सहा मनोबल राज्यों की सीमाओं और नाकों पर होने वाली सख्ती तोड़ रही है। दो माह में जो भी जमापूंजी थी, वह खाने और घर का किराया देने में खत्म हो चुकी है। सबके दावे खोखले ही साबित हुए। भविष्य को लेकर अनिश्चितता श्रमिकों को इस कदर डरा रही है कि वे किसी भी सूरत में अपने घर लौट जाना चाहते हैं। इस दुआ के साथ कभी वापस न आना पड़े।

रोटी-रोजी की चिंता और भविष्य की अनिश्चितता के कारण नहीं रुक रहे श्रमिकों के कदम

दिल्ली के वजीरपुर में जेजे कॉलोनी में रहने वाले रामचंद्र बताते हैं, 'मैं बिहार का रहने वाला हूं और यहां फैक्ट्री में काम करता था। फैक्ट्री मालिक ने कहा था कि जल्द काम शुरू करेंगे। अब दो माह उन्होंने मना कर दिया है। ऐसे में यहां रुकने की कोई वजह नहीं बची।' मध्य प्रदेश के रहने वाले दिहाड़ी मजदूर मिथुन का कहना है कि कब तक किसी से मांग कर खाएं। काम मिल नहीं रहा। सरकार से भी कोई मदद नहीं मिली। इसलिए घर जाने का फैसला किया है।

कब तक बिना काम किए रह सकते हैं, घर जाना ही ठीक रहेगा 

वहीं, बिहार के अररिया के राजेश गुरुग्राम में फास्ट फूड का स्टाल लगाते थे। उन्होंने बताया, 'लोग कह रहे हैं कि अब पहले की तरह काम नहीं कर सकते। लॉकडाउन में घर बैठकर बचाए गए पैसों से काम चलाया। इस तरह कब तक रह सकते हैं। इसलिए घर जाना ही ठीक रहेगा।' श्रमिक स्पेशल ट्रेनों से बिहार, उत्तर प्रदेश जाने के लिए स्क्रीनिंग सेंटरों के बाहर कतार में खड़े हजारों लोगों की एक जैसी कहानी है। 

एक ओर रोजगार नहीं तो दूसरी ओर मकान मालिक किराया देने के लिए बना रहे दबाव

वह बंगाल के नदिया जिले की संचिता हल्दर हों, उप्र के हरदोई के सुनील पाल या फिर बिहार के समस्तीपुर के मु. अशरफ हों, सभी का यही कहना है कि दो महीने से कामकाज ठप है, वेतन मिल नहीं रहा और ऊपर से मकान मालिक ने कमरा खाली करने को कह दिया है।

सरकार की ओर से बनाए गए हंगर सेंटर पर भी खाने के लिए परिवार सहित घंटों धूप में खड़े रहना पड़ता है। सरकार भी उनकी सुध नहीं ले रही है। हालांकि यह सवाल उनके सामने भी है कि घर पर क्या करेंगे? इस सवाल पर श्रमिकों का कहना है कि अभी नहीं पता वहां क्या करेंगे। लेकिन यदि घर पर महीने में पांच-सात दिन भी काम मिला तो कम से कम पेट तो भर जाएगा। आगे की फिर सोचेंगे।

श्रमिकों को शुरू में ही उनके घर जाने देना चाहिए था

गुरुगाम की समाजशास्‍त्री प्रो. रेणू सिंह ने कहा कि शासन-प्रशासन को पता था कि लॉकडाउन लंबा चलेगा। आर्थिक गतिविधियां थम जाएंगी। ऐसी स्थिति में श्रमिकों को शुरू में ही उनके घर जाने देना चाहिए था। जब असुरक्षा की भावना चरम पर होती है, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो, फिर इंसान अपने परिवार के पास जाना चाहता है। आज श्रमिकों के साथ यही स्थिति है। उन्हें विश्वास ही नहीं है कि व्यवस्था जल्द पटरी पर लौटेगी।


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