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बैंकों का विलय समस्या का समाधान नहीं, यह समस्या से किनारा करने जैसा

Merger of Banks बैंकों का विलय किया जाना समस्या का समाधान नहीं है बल्कि चल रहे बैंकों को बेहतर तरीके से चलाने के लिए कुशल नेतृत्व की जरूरत है।

By Vinay TiwariEdited By: Published: Sun, 20 Oct 2019 01:26 PM (IST)Updated: Sun, 20 Oct 2019 01:26 PM (IST)
बैंकों का विलय समस्या का समाधान नहीं, यह समस्या से किनारा करने जैसा
बैंकों का विलय समस्या का समाधान नहीं, यह समस्या से किनारा करने जैसा

नई दिल्ली [डॉ.विकास सिंह]। भारतीय बैंकिंग प्रणाली को मजबूत और सुरक्षित करने के लिए बैंकों को आजादी के साथ काम करने और विकास करने की स्वायत्ता देना ही एक सूत्री समाधान है। नायक समिति की सिफारिशों के अनुसार सार्वजनिक बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी 50 फीसद से कम की जानी चाहिए। इसके लिए पब्लिक मार्केट में संभावनाएं तलाशने, नॉन कोर परिसंपत्तियों को बेचने और बलपूर्वक विलय जैसे विकल्प हो सकते हैं। 

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चलाने में माहिर को सौंपे जाए 

सरकार को बैंक के या अन्य सार्वजनिक उपक्रमों के दैनिक कामकाज को उन लोगों के हवाले छोड़ देना चाहिए जो उन्हें चलाने में माहिर हैं। बैंकिंग प्रणाली समग्र रूप से मूलभूत बदलाव के दौर से गुजर रही है। सार्वजनिक बैंकों के पास न तो संसाधन हैं और न ही आजादी। तकनीक की अलग चुनौती है। सरकारी हस्तक्षेप के चलते क्षमता और प्रतिभा की भी कमी है। ‘मिसिंग मिडिल’ के रूप में उभरे नए खिलाड़ियों ने उनके सामने बड़ी चुनौती पेश की है। उनकी बाजार हिस्सेदारी गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाएं और नए बैंक खा जा रहे हैं। आज भारत को मजबूत और सक्षम बैंक की जरूरत है। बड़े बैंक की उसे दरकार नहीं। बड़ा है तो बेहतर है-एक भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं। हमारे सभी बैंक एक साथ मिलकर भी वैश्विक बैंकों से बौने हैं। 

नए समाजवाद का सपना 

बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक नए समाजवाद के सपने को पूरा करने के लिए किया गया था। मजबूत अर्थव्यवस्था की बुनियाद रखने में बैंकों ने बहुत अहम भूमिका निभाई। इस संस्था ने समाज के पिछड़े व्यक्ति को वित्तीय प्रणाली की मुख्यधारा में शामिल किया। हालांकि आज दुनिया बहुत जटिल हो चुकी है। आज बैंकिंग से दरकिनार सूक्ष्म, लघु और मध्यम क्षेत्र, ग्रामीण और कृषि क्षेत्र भी जरूरी हैं, लेकिन ज्यादातर बैंकों के पास इस चुनौती से लड़ने की न तो विशेषज्ञता है और न ही वे इस बाजार की सेवा के ही इच्छुक हैं। ऐसा लगता है कि जैसे सार्वजनिक बैंकों की भूमिका को लेकर सरकार भ्रमित हो। बैंक हर कुछ करने की अपेक्षा रखते हैं और सरकार उन्हें कुछ भी सही से करने की मंशा नहीं दिखाती। 

बहुत बढ़िया काम कर रहे क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक 

हम ऐसे वित्तीय संस्थान क्यों नहीं बना पा रहे हैं जो वित्तीय तंत्र में शामिल लोगों की जरूरत समझ सके, उन्हें प्रेरित करे और बेहतर सेवा दें। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं और इस भूमिका का बेहतर निर्वहन कर सकते हैं। प्रशासन को सशक्त करके, क्षमता को मजबूत करके और विकासोन्मुख नेतृत्व के झुकाव से ऐसा संभव भी है। आज एक ऐसे बैंक की दरकार है जो सूक्ष्म, लघु और मध्यम क्षेत्र को समझ सके। 

बैंकों का विलय समस्या का समाधान नहीं 

बैंकों का विलय समस्या का समाधान नहीं है। यह समस्या से किनारा करने जैसा है। पैबंद चीजें ठीक नहीं होती हैं। मेरा मानना है कि सरकार ईमानदारी से कोशिश नहीं कर रही है। बैंकों को एक दूसरे में विलय करने के लिए सरकार ने सिर्फ तकनीक पर ध्यान दिया है। जोड़ी बनाने में उसने रणनीति नहीं अपनाई। विलय अंकगणित नहीं है। ये तभी सही रहता है जब मूल्यों और संस्कृति को ध्यान में रखा जाए। बैंक अपनी हिस्सेदारी इसलिए नहीं खो रहे हैं कि वे छोटे हैं। इसलिए कि वे मजबूत नहीं हैं। विलय से शीर्ष प्रबंधन में अरुचि हो सकती है और इससे रिकवरी और मंद होने का खतरा है। समय-समय पर भारतीय रिजर्व बैंक ने दिखाया है कि वह इस वित्तीय प्रणाली का सबसे सम्मानित और भरोसेमंद नियामक है। 

बैंकों में होने वाली धांधली को कैसे रोका जाए 

अब समय इस नियामक से भी सवाल पूछने का आ गया है। उसे सुनिश्चित करना होगा कि बैंकों में होने वाले बड़े पैमाने पर धांधली को कैसे रोका जाए? इस नुकसान की कीमत छोटे कारोबारियों को ज्यादा चुकानी पड़ती है। आइएल एंड एफएस, पीएमसी को याद कीजिए। ऑडिटर्स से भी सवाल पूछे जाने चाहिए। उन्होंने वित्त के अनैतिक प्रबंधन की अनदेखी की या देखते हुए भी आंखें मूंदे रहे। आंतरिक ऑडिट प्रणाली को भी दुरुस्त किए जाने की दरकार है। ये समय से पहले ही रिस्क की पहचान करके उनसे निपटने के सुझाव दे। नियामक के रूप में आरबीआइ की साख को भी हमें समझने की जरूरत है। यह बहुत ज्यादती होगी, अगर हम यह मान बैठें कि कोई भी नियामक इतना होशियार, चतुर और सुजान है कि आने वाली समस्या का पहले ही पता कर ले। 

बोर्ड में बिठाए जाएं कुशल लोग 

बैंकों के बोर्ड में ऐसे लोग बैठाए जाएं जो निष्ठावान हों, जिनमें नेतृत्व क्षमता हो, और रिस्क प्रबंधन में विशेषज्ञ हों। साथ ही गैर कार्यकारी सदस्यों के रूप में भी रणनीतिक क्षमता से लैस और स्वतंत्र विचार वाले लोगों की नियुक्ति हो। नीति-नियंताओं की भी जवाबदेही बड़ी है। क्षमता और प्रशासन के लिए प्रबंधन को स्वामित्व से अलग करना होगा। बैंक बोर्ड को सशक्त करना होगा, इसके लिए उसे सरकारी दखल से मुक्त रखना पड़ेगा। सरकार सुझाव दे सकती है। बुरा समय अच्छे मौके का दूसरा रूप होता है। नियामक तंत्र में सुधार का यही मौका है। नियामक खामियों के लिए दंडित करने की प्रणाली विकसित हो। इससे नियामक, बैंक नेतृत्व, ऑडिटर्स और कारपोरेट सेक्टर की सांठगांठ हतोत्साहित होगी।  (लेखक- मैनेजमेंट गुरु और वित्तीय एवं समग्र विकास के विशेषज्ञ हैं)


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