माता अहल्या को श्रीराम के चरणस्पर्श से मिले मोक्ष के कथानक में छिपा है नारी सम्मान का गूढ़ संदेश...
इंद्र द्वारा छली गई और पति के द्वारा शापित अहल्या प्रतीक्षातुर हैं श्रीराम के चरणों की धूलि पाने को ताकि वह श्रापमुक्त हो सकें उस बियाबान निर्जन वन से मुक्ति पा सकें।
साध्वी ऋतंभरा। प्रभु श्रीराम की प्रतीक्षा में तपस्या की प्रतिमूर्ति हैं अहल्या। बरसों हो गए निर्जन वन के उस आश्रम में शिलावत। इतनी भयानक नीरवता कि पशु-पक्षी भी छोड़ गए थे उस स्थान को। बरसों हो गए ‘पत्थर की नारी’ को शीत, ग्रीष्म और मूसलाधार वर्षा सहते-सहते। विडंबना ये कि समय के प्रवाह में वो शिला बनी बैठी हैं, जो कभी सजीव नारी रूप में इतनी सर्वांग सुंदरी थीं कि सुंदरतम अप्सराओं से घिरे हुए देवराज इंद्र भी उनके आकर्षण में स्वर्गलोक से मृत्युलोक पर खिंचे चले आए। वासना का वेग इतना प्रबल कि उसने मन में जाने कब एक पतिव्रता ऋषि पत्नी के प्रति दुराव उत्पन्न कर दिया। देखते ही देखते निरंकुश कामना कैसे एक सर्वसमर्थ के मान को धूल धूसरित कर देती है, देवराज इंद्र का छल इसका ज्वलंत उदाहरण है।
इंद्र द्वारा छली गई और पति के द्वारा शापित अहल्या प्रतीक्षातुर हैं श्रीराम के चरणों की धूलि पाने को ताकि वह श्रापमुक्त हो सकें, उस बियाबान निर्जन वन से मुक्ति पा सकें। ताड़का वध के पश्चात श्रीराम चले आ रहे हैं उसी ओर। पत्थर की शिला को देखकर प्रभु ने मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र जी से पूछा -ये कौन है ऋषिवर? विस्तारपूर्वक सब कथा सुना, वे हाथ जोड़कर बोले,
गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु
रघुबीर।।
सुनते ही करुण प्रभु ने अपने चरणकमल से शिला का स्पर्श किया और देखते ही देखते उस शिला में से सर्वांग सुंदरी तपोमूर्ति अहल्या का प्राकट्य हो गया। अपने भक्तों को तारने वाले श्री रघुनाथ जी के समक्ष वह हाथ जोड़कर कृतज्ञ भाव से खड़ी हो गईं। प्रभु की करुणा के समक्ष कृतज्ञ भाव से उनका रोम-रोम पुलकित हो रहा है। प्रभु चरणों से लिपटकर उनके नेत्रों से अश्रुधारा बह रही है। प्रभु के चरणकमलों का अभिषेक कर अहल्या के अश्रु धन्य हो रहे हैं। निर्मल अहल्या की वाणी से शब्द निर्झर प्रस्फुटित हो रहे हैं - हे रघुनाथ जी! आज आपकी चरण रज ने मेरा जीवन धन्य कर दिया।
इतने वर्षों तक शिलावत आपकी प्रतीक्षा करती रही परंतु आज आपका स्नेहिल स्पर्श पाकर सहज ही लगता है कि मुनिश्रेष्ठ ने मुझे श्राप देकर मुझपर उपकार ही किया है। उनका ही अनुग्रह था जो कि आज जगत के तारणहार का दर्शन हो रहा है। हे प्रभु ! अब और कुछ नहीं चाहिए। मेरा मन रूपी यह भौंरा सदैव आपके चरणकमल की रज के प्रेमरूपी रस का पान करता रहे। मेरा सौभाग्य है कि जिन चरणों से गंगा जी प्रकट हुईं, जिन्हें शिव जी ने अपनी जटाओं में धारण किया और जिन चरण कमलों को स्वयं ब्रह्मा जी भी पूजते हैं, हे कृपालु हरि, आपने उन्हीं को मेरे शीश पर रखा। बारंबार इस प्रकार से प्रभु की वंदना करते हुए, उनकी अपार कृपा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए अहल्या अपने पतिलोक को प्रस्थित हो गईं।
महर्षि गौतम की पत्नी अहल्या का प्रकरण अत्यंत ही मार्मिक है। एक पतिव्रता भारतीय नारी के साथ देवराज इंद्र के द्वारा किया गया छल वासना की क्रूर कथा है। आज सारे समाज को इस पौराणिक गाथा से कुछ सबक सीखने की आवश्यकता है। इस युग में देवराज इंद्र जैसी तो अनेक काम वासनाएं मिल जाएंगी, अब श्रीराम का मिलना अत्यंत कठिन है। स्मरण रखा जाना चाहिए कि उस एक गलती के कारण आज तक इस संसार में इंद्र कहीं भी पूजित नहीं हैं। आज जगहजगह ऐसी अनेक अहल्याएं वासना की शिकार बनाई जा रही हैं।
दुष्कृत्य के बाद उनकी हत्या तक कर दी जाती है। किसी भी स्त्री का बलात् स्त्रीत्व भंग करना अक्षम्य अपराध है। इसका दंड मिलता ही है, जैसा कि देवराज इंद्र को श्राप रूप में मिला था। ऐसी किसी भी बलात् घटना का शिकार हुई बालिका या महिला को अपमान या तिरस्कार के तीर चलाकर उसे शिलावत् नहीं बना देना चाहिए, यह भी अहल्या प्रकरण से सीखने की बात है। हमारे कथानक वाद-विवाद या तर्क-वितर्क के विषय नहीं होने चाहिए बल्कि उनको संदर्भ बनाकर हम समाज का संचालन कैसे सुचारू रूप से कर सकते हैं, चर्चा इस पर भी होनी चाहिए।