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महाराष्‍ट्र में एनसीपी, शिवसेना और कांग्रेस के सियासी बंटाधार की बनी एक ही वजह

महाराष्‍ट्र के राजनीतिक संकट के पीछे अजीत पवार छोटी वजह हो सकती है लेकिन इसकी बड़ी वजह है उद्धव और शरद का पुत्र-पुत्री मोह।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sun, 24 Nov 2019 03:21 PM (IST)Updated: Mon, 25 Nov 2019 03:57 PM (IST)
महाराष्‍ट्र में एनसीपी, शिवसेना और कांग्रेस के सियासी बंटाधार की बनी एक ही वजह
महाराष्‍ट्र में एनसीपी, शिवसेना और कांग्रेस के सियासी बंटाधार की बनी एक ही वजह

नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। महाराष्‍ट्र की सियासत में रातों-रात में हुआ फेरबदल हर किसी के लिए माथा पच्‍ची का सौदा बन गया है। इस माथा पच्‍ची में कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना के साथ-साथ भाजपा और अजीत पवार भी उलझते दिखाई दे रहे हैं। दरअसल, कभी पवार परिवार की पावर पॉलिटिक्‍स का हिस्‍सा रहे अजीत ने अपने ही चाचा और महाराष्‍ट्र के दिग्‍गज राजनेता शरद पवार को जो झटका दिया है वह उनके लिए कभी न भूलने वाला है।

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क्‍यों दिया जबरदस्‍त झटका 

लेकिन, इसके बावजूद यह देखना जरूरी है कि अजित ने ये झटका रातों रात कैसे और क्‍यों दे दिया। इसका जवाब कहीं न कहीं शरद पवार की बेटी के व्‍हाट्सएप स्‍टेटस में छिपा था। इसमें उन्‍होंने परिवार के बीच राजनीतिक मतभेद का इशारा दिया था। इतना ही नहीं अजीत पवार के उठाए गए कदम से पहले जब भी कभी सरकार बनाने को लेकर एनसीपी की अन्‍य पार्टियों से बैठक हुई तो उसमें न सिर्फ अजीत शामिल हुए बल्कि अपनी बातें भी रखीं। हालांकि इस दौरान उन्‍होंने अपने मतभेदों को भी रखा, जिसको दूसरी पार्टियां समझ नहीं सकीं। महाराष्‍ट्र के राजनीतिक गलियारे में यह चर्चा जोरों पर जोरों पर है कि इस उलटफेर की वजह शरद पवार का पुत्री मोह था। 

अपने ही पांव पर मार ली कुल्‍हाड़ी

इसका अर्थ ये हो सकता है कि कांग्रेस की ही तर्ज पर एनसीपी और शिवसेना ने अपने ही पांव पर कुल्‍हाड़ी मारने का काम किया है। कांग्रेस की बात करें तो पार्टी के पूर्व अध्‍यक्ष राहुल गांधी का सपना हमेशा से ही प्रधानमंत्री बनने का रहा है और अब भी है, बावजूद इसके कि वह लोकसभा चुनाव में अपनी परंपरागत सीट भी बचाने में सफल नहीं हो सके। यह बात जगजाहिर है कि राहुल गांधी की राजनीतिक काबलियत अभी उतनी परिपक्‍व नहीं हुई है, लेकिन पार्टी में हमेशा से ही सोनिया के बाद यदि किसी को नेतृत्‍व सौंपने की बात आई तो वह राहुल गांधी का ही नाम था। सोनिया खुद भी इससे आगे कभी नहीं बढ़ सकीं। कांग्रेस का इतिहास भी इसी तरह का रहा है। इसका ही नतीजा है कि कांग्रेस की राजनीतिक दुगर्ति पूरे भारत में हो रही है। बावजूद इसके पार्टी अपनी राह को बदलना नहीं चाहती है। 

पवार की राजनीतिक विरासत

दूसरी तरफ एनसीपी की बात करें तो शरद पवार का झुकाव अजीत पवार की तुलना में अपनी बेटी सुप्रिया सूले की तरफ कहीं ज्‍यादा है। सुप्रिया को ही उनकी राजनीतिक विरासत का असली वारिस भी माना जाता रहा है। यह तब है जब सुप्रिया का राजनीतिक करियर अजीत के सामने बेहद कम है। अजीत को राजनीति में लाने वाले शरद पवार ही थे। 1982 में कॉपरेटिव शुगर फैक्‍ट्री के बोर्ड में शामिल होने के साथ अजीत का राजनीतिक ग्राफ बढ़ना शुरू हुआ था। इसके बाद वो पुणे डिस्ट्रिक कॉपरेटिव बैंक के चेयरमैन और फिर सांसद बने। सुप्रिया के राजनीति में शामिल न होने तक अजीत को ही शरद पवार की राजनीतिक विरासत का असली वारिस माना जाता था।

बदल गया समीकरण

लेकिन 2006 में सुप्रिया के राजनीति में शामिल होने और राज्‍य सभा के लिए चुने जाने के बाद यह समीकरण बदल गया। वह महाराष्‍ट्र सरकार में कई बार मंत्री तक रह चुके हैं। वहीं उनके एनसीपी से अलग होकर भाजपा को समर्थन देने की एक बड़ी वजह ये भी माना जा रहा है कि एनसीपी-कांग्रेस-शिवसेना के गठबंधन में बनने वाली सरकार में उनका कद कम हो जाता। इसकी एक बड़ी वजह ये थी कि राज्‍य के उप मुख्‍यमंत्री का पद कांग्रेस को चला जाता एनसीपी को ढाई साल के लिए मिलने वाली कुर्सी पर सुप्रिया सूले बाजी मार ले जाती।

राजनीतिक जानकारों की राय

हालांकि राजनीतिक जानकार इस बात की संभावना से इनकार नहीं कर रहे हैं कि शरद पवार सुप्रिया सूले को सीएम की जिम्‍मेदारी नहीं देते और यह पद अजीत के ही खाते में जाता। वहीं यदि एनसीपी के खाते में डिप्‍टी सीएम का पद आता तो इस पर भी अजीत की ही दावेदारी होती। लेकिन जानकार इस बात से भी इनकार नहीं करते कि शरद पवार वर्तमान में पुत्री मोह में हैं और धीरे-धीरे अपनी राजनीतिक विरासत को सुप्रिया सूले को सौंपने की तरफ आगे बढ़ रहे हैं। इन जानकारों का मानना है कि अजीत पवार के शरद का साथ छोड़ भाजपा का दामन थामने के पीछे भी यही सोच रही है। 

उद्धव का पुत्र मोह 

कांग्रेस और एनसीपी के बाद आपको शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के पुत्र मोह के बारे में भी जानकारी दे दी जाए। उनका पुत्रमोह कभी किसी से छिपा नहीं रहा है। शिवसेना से अलग होकर मनसे बनने के बाद उद्धव ने आदित्‍य को ही अपने राजनीतिक वारिस के तौर पर आगे रखा है। फिर चाहे वो चुनावी रैलियों में भाषण देने की बात हो या अन्‍य मामलों में सभी में दोनों एक साथ दिखाई दिए हैं। आपको बता दें कि अब से पहले शिवसेना सरकार का रिमोट कंट्रोल हुआ करती थी। लेकिन आदित्‍य को चुनाव में उतारकर उद्धव ने यह साफ कर दिया था कि उनकी नजरें अपने बेटे के लिए सीएम की कुर्सी पर है। पहले पहल जो लोग इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थे वह भी अब इस बात को मानने लगे हैं। शिवसेना की मानें तो आदित्‍य के लिए सीएम पद की मांग उन्‍होंने चुनाव पूर्व भाजपा से हुई बैठक में भी  की गई थी। लिहाजा यहां पर भी पुत्रमोह ने महाराष्‍ट्र के लोगों की अनदेखी की है। महाराष्‍ट्र का वर्तमान राजनीतिक संकट कहीं न कहीं इसी मोह की वजह से बना है। अब भी जब एनसीपी, कांग्रेस और शिवसेना सरकार बनाने के करीब दिखाई दे रही थी तब भी यही मोह सभी रणनीति के पीछे काम कर रहा था। 

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