जानें क्या कोरोना वायरस का रैपिड एंटीबॉडी टेस्ट वाकई हालात बदल देगा?
Rapid Antibody Test माना जाता है कि इससे स्वास्थ्य तथा जरूरी सेवाओं में लगे कर्मियों को यह पता चल सकता है कि क्या उन्हें अब भी संक्रमण का खतरा है।
नई दिल्ली, जेएनएन। Rapid Antibody Test: कोरोना वायरस संक्रमण के कारण कई देशों में लागू लॉकडाउन की स्थिति से बाहर निकलने की छटपटाहट है। लेकिन इसके लिए कोई ऐसा ठोस रास्ता नहीं मिल रहा है, जिससे कि यह पुख्ता हो सके कि संक्रमण फैलने की संभावना खत्म हो गई है। ऐसे में लॉकडाउन खोलने की जरूरत पर संक्रमण फिर बढ़ने का अंदेशा भारी पड़ रहा है। फिर भी जनजीवन को सामान्य बनाने की दिशा में एंटीबॉडी टेस्ट पर दुनिया भर में फोकस किया जा रहा है। नेचर के अनुसार इससे पता चल सकता है कि कोरोना वायरस के प्रति क्या कोई व्यक्ति प्रतिरक्षित (इम्यून) हो गया है? कुछ लोग तो इसे ‘इम्यूनिटी पासपोर्ट’ तक कह रहे हैं। माना जाता है कि इससे स्वास्थ्य तथा जरूरी सेवाओं में लगे कर्मियों को यह पता चल सकता है कि क्या उन्हें अब भी संक्रमण का खतरा है।
सटीकता की पुष्टि के लिए ज्यादा परीक्षणों की जरूरत : सैन फ्रांसिस्को स्थित विटिलैंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के निदेशक माइकल बुश के मुताबिक, किट की विश्वसनीयता की जांच नहीं होती है। ब्रिटेन में कोविड-19 के लिए टेस्टिंग स्ट्रैटिजी के निदेशक कैथी हॉल ने 8 अप्रैल को संसदीय समिति को बताया कि किसी भी देश ने एंटीबॉडी टेस्टिंग को कोविड-19 की जांच के लिए मान्य नहीं किया है। आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी, कैनबरा के फिजिशियन तथा लैब माइक्रोबॉयोलॉजिस्ट पीटर कॉलिगनॉन कहते हैं कि किट्स की सटीकता की पुष्टि के लिए परीक्षण ऐसे लोगों पर होना चाहिए, जिनमें कोविड-19 था और जिनमें नहीं है। लेकिन अधिकांश टेस्ट का आकलन कुछ लोगों के आधार पर है, क्योंकि किट विकसित करने की जल्दबाजी है। इसलिए मौजूदा किट से टेस्टिंग पर्याप्त सटीक नहीं है।
उच्च गुणवत्ता वाली जांच में 99 फीसद संवेदनशीलता यानी एक फीसद ही फॉल्स पॉजिटिव या फॉल्स निगेटिव रिजल्ट आने चाहिए। जबकि मौजूदा कॉर्मिशियल एंटीबॉडी टेस्ट शुरुआती संक्रमण की जांच में 40 फीसद तक ही विशिष्ट है। पॉइंट ऑफ केयर टेस्ट तो लैब टेस्ट से भी कम विश्वसनीय हैं। क्योंकि इसमें रक्त का कम नमूना लिया जाता है और जांच भी लैब की तुलना में कम नियंत्रित वातावरण में होती है। डब्ल्यूएचओ भी पॉइंट ऑफ केयर टेस्ट की सिर्फ शोध के लिए सिफारिश करता है।
क्या है एंटीबॉडी टेस्ट : वायरस जब शरीर में प्रवेश करता है तो इम्यून सिस्टम उससे लड़ने लिए एंटीबॉडी बनाता है। टेस्ट किट वायरस के अवयवों का इस्तेमाल कर एंटीबॉडी की मौजूदगी का पता लगाते हैं, जिसे ऐंटिजन कहते हैं। जांच आमतौर पर दो प्रकार की होती हैं। पहला- लैब टेस्ट- जिसमें करीब दिन भर का समय लगता है। दूसरा है- पॉइंट ऑफ केयर टेस्ट, जिसके परिणाम 15 से 30 मिनट में मिल जाते हैं। अमेरिका की प्रीमियर बायोटेक तथा चीन की ऑटोबायो डायग्नॉस्टिक्स समेत कई कंपनियां पॉइंट ऑफ केयर किट्स उपलब्ध कराती हैं, जो पता लगाता है कि व्यक्ति में वायरस था या नहीं। लेकिन इस जांच से वायरस है या नहीं- इसका सटीक पता नहीं चलता। इसलिए सक्रिय संक्रमण के इलाज में इसका सीमित उपयोग है। लेकिन अमेरिका तथा आस्ट्रेलिया जैसे देशों में इसका इस्तेमाल संदिग्ध संक्रमितों का पता लगाने में होता है। अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने सक्रिय कोरोना वायरस की जांच के लिए इस विधि के इस्तेमाल को अधिकृत किया है लेकिन कहा है कि एफडीए ने इसकी समीक्षा नहीं की है और इसका निष्कर्ष रोग की पुष्टि के लिए एकमात्र आधार नहीं होना चाहिए। यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न आस्ट्रेलिया, पर्थ के क्लीनिकल वायरोलॉजिस्ट डेविड स्मिथ के मुताबिक, सक्रिय रूप से संक्रमित लोगों के इलाज में एंटीबॉडी टेस्ट महत्वपूर्ण हो सकता है लेकिन परिणाम की व्याख्या सावधानीपूर्वक करने की जरूरत है।
संक्रमण इम्यूनिटी के बराबर नहीं : एंटीबॉडी टेस्ट के संबंध में बड़ा सवाल है कि पैथोजन संक्रमण को कितनी इम्यूनिटी देगा। सुरक्षात्मक इम्यूनिटी के लिए शरीर को विशिष्ट एंटीबॉडी बनाने की जरूरत होती है, जिसे नूट्रिलाइजिंग (बेअसर करने वाला) एंटीबॉडी कहते हैं। यह वायरस को कोशिकाओं में प्रवेश से रोकता है। लेकिन यह साफ नहीं है कि जिनमें कोविड-19 था, क्या उन सभी में एंटीबॉडी बना है। चीन में 175 लोगों पर हुए शोध के मुताबिक, कोविड-19 संक्रमण से उबरे 10 लोगों में नूट्रिलाइजिंग एंटीबॉडी नहीं बने, जबकि कइयों में काफी मात्रा में एंटीबॉडी बना। ये लोग संक्रमित थे लेकिन स्पष्ट नहीं है कि उनमें सुरक्षात्मक इम्यूनिटी थी या नहीं। यह भी पता नहीं है कि सुरक्षात्मक इम्यूनिटी कब तक कायम रहेगी। नूट्रिलाइजिंग एंटीबॉडी बन जाता है, तब भी अधिकांश को मौजूदा टेस्ट पकड़ नहीं पाता। इस तरह इम्यूनिटी पासपोर्ट का यह मतलब भी नहीं होता कि व्यक्ति संक्रमित नहीं है। इन चुनौतियों के बावजूद एंटीबॉडी टेस्ट से यह समझा जा सकेगा कि किस
समूह के लोग संक्रमित हुए हैं और उसका फैलाव कैसे रोका जाए। पीसीआर टेस्ट फेल होने की स्थिति में भी इसका इस्तेमाल सक्रिय संक्रमण का पता लगाने में किया जा सकता है।
विश्वसनीयता पर सवाल : यह भी कहा जा रहा है कि एंटीबॉडी टेस्ट को बहुत बढ़-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है। वैज्ञानिक कह रहे हैं कि टेस्ट इसका सूचक नहीं है कि कोई व्यक्ति दोबारा संक्रमण के प्रति इम्यून हो गया। सैन फ्रांसिस्को स्थित विटिलैंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के निदेशक माइकल बुश कहते हैं, ‘गलत जांच के बजाय जांच न होना बेहतर है।’ वैसे, शोधकर्ता एंटीबॉडी टेस्ट का इस्तेमाल आबादी में कोरोना वायरस के संक्रमण का अनुमान लगाने के लिए करते हैं, जो ऐसे स्थानों के लिए अहम है, जहां मानक जांच की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है या जिनमें मामूली लक्षण दिखते हैं या लक्षण ही नहीं होते हैं और संक्रमितों में गिनती होने से छूट जाते हैं। आबादी के एक हिस्से में सर्वे टेस्ट करने के बाद इसका इस्तेमाल वृहत समुदाय में संक्रमण का अनुमान लगाने में होता है। दुनिया में दर्जनों समूह अभी ऐसे अध्ययन कर रहे हैं।
समय का महत्व : यदि जांच संक्रमण के तुरंत बाद की गई तो हो सकता है कि एंटीबॉडी विकसित नहीं हुआ हो। ऐसे में जिस एंटीबॉडी का पता लगाने के लिए किट डिजाइन किया है, वह उसे नहीं पकड़ सकता। वैज्ञानिक सार्स- कोरोना वायरस-2 के प्रति भी यह पता नहीं लगा पाये हैं कि शरीर का इम्यून कितने समय में रेस्पॉन्ड करता है और कब तक एंटीबॉडी बनाता है। एचआइवी के लिए भी 99 फीसद सटीकता वाला एंटीबॉडी टेस्ट विकसित करने में कई साल लगे।