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जानें- मिडिल ईस्‍ट में शांति स्‍थापित करने के लिए भारत क्‍यों और कैसे है सबसे फेवरेट नेशन

मिडिल ईस्‍ट में शांति स्‍थापना करने को लेकर पूरी दुनिया को भारत से काफी उम्‍मीद है। इसके पीछे एक नहीं बल्कि कई सारी वजह हैं।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 13 Jan 2020 01:08 PM (IST)Updated: Tue, 14 Jan 2020 06:33 AM (IST)
जानें- मिडिल ईस्‍ट में शांति स्‍थापित करने के लिए भारत क्‍यों और कैसे है सबसे फेवरेट नेशन
जानें- मिडिल ईस्‍ट में शांति स्‍थापित करने के लिए भारत क्‍यों और कैसे है सबसे फेवरेट नेशन

नई दिल्‍ली जागरण स्‍पेशल। अमेरिका-ईरान के बीच तनाव की वजह से पूरी दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍था हिचकोले खाती दिखाई दे रही है। इससे वो देश सबसे प्रभावित हैं जिनका पूरी अर्थव्‍यवस्‍था ही मध्‍य पूर्व से आने वाले तेल पर टिकी है। इसमें भारत और चीन ही नहीं हैं बल्कि लगभग पूरा यूरोपीय संघ और रूस भी शामिल है। अमेरिका इससे प्रभावित इसलिए नहीं है क्‍योंकि उसके पास अपना तेल का रिजर्व भंडार काफी बड़ा है। लेकिन, मध्‍य पूर्व में उपजे संकट को यदि जल्‍द ही दूर नहीं किया गया तो ये भयावह रूप ले सकता है। इस संकट से वही देश दुनिया को निकाल सकता है जिसके संबंध अमेरिका और ईरान दोनों से ही बेहतर हों। 

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चीन से सामान्‍य नहीं रिश्‍ते

ऐसे में यदि चीन की बात करें तो अमेरिका से उसके संबंध कई मसलों पर बेहद खराब रहे हैं। इसमें वन चाइना पॉलिसी से लेकर दक्षिण चीन सागर और ट्रेड वार छिड़ा हुआ है। लगभग एक वर्ष से ज्‍यादा समय से जारी इस ट्रेड वार का खामियाजा चीन को चुकाना पड़ रहा है। वहीं दक्षिण चीन सागर पर कई बार दोनों देश आमने सामने आ चुके हैं। वहीं यदि रूस की बात करें तो अमेरिकी राष्‍ट्रपति चुनाव में उसकी कथित भूमिका और अपने ही जासूस की हत्‍या की कोशिश को लेकर अमेरिका-रूस के बीच काफी समय से तनाव व्‍याप्‍त है। अमेरिका ने कई तरह के प्रतिबंध भी रूस पर लगाए हुए हैं। इसमें मिसाइल खरीद भी शामिल है। 

रूस से भी टकराव

आपको बता दें कि तुर्की समेत चीन और भारत को भी अमेरिका ने एस-400 मिसाइल न खरीदने की चेतावनी दी थी। इसके बाद भी इन देशों ने इसकी खरीद से पीछे हटने से इनकार कर दिया था। ऐसे में रूस भी इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता है कि मध्‍य पूर्व में शांति के लिए विश्‍व दूत बन सके। अमेरिका और ईरान दोनों ही से भारत के संबंध न सिर्फ दशकों पुराने हैं बल्कि काफी मजबूत भी हैं। यही वजह है कि जानकार भी मानते हैं कि मिडिल ईस्‍ट में भारत भारत द्वारा शांति को लेकर की गई कोई भी पहल रंग ला सकती है। 

ईयू नहीं मजबूत

ईयू की बात करें तो इसमें शामिल बड़े देश जैसे फ्रांस और जर्मनी पहले से ही परमाणु संधि के टूटने को लेकर अमेरिका से खफा हैं। वहीं इन देशों ने ट्रंप के उस मसौदे को भी मानने से साफ इनकार कर दिया है जिसमें ट्रंप ने ईरान से नई संधि करने में इन देशों साथ देने की अपील की थी। यहां पर ये भी याद रखना होगा कि ईरान के टॉप कमांडर की मौत के बाद भी ईयू ने अमेरिका के समर्थन को लेकर कोई बयान नहीं दिया है। इतना ही नहीं ईयू के कई देशों ईरान को लेकर सहानुभूति भी है। यही वजह है कि मिडिल ईस्‍ट में शांति की कोशिशों को लेकर ईयू भी उस कसौटी पर खरा नहीं उतरता है। ऐसे में भारत में वो सभी बातें हैं जो उसे इस कसौटी पर खरा बनाती हैं।  

भारत-ईरान संबंध

ऐसा इसलिए भी है क्‍योंकि बीते कुछ दिनों में जहां ईरान लगातार अमेरिकी सैन्‍य बेस पर हमले कर रहा है वहीं दूसरी तरफ ये भी सच है कि उसके राजदूत ने कहा है कि भारत द्वारा की गई शांति की कोशिशों का वह पूरा समर्थन करेगा। इसके अलावा अमेरिका ने भी इस मुद्दे पर भारत को समर्थन देने की बात कही है। आपको बता दें कि भारत से ईरान के संबंध राजनीतिक ही नहीं बल्कि दोनों देशों के बीच सांस्‍कृतिक संबंध भी काफी मजबूत रहे हैं। ईरान में इस्‍लामिक क्रांति से पहले 1970 में वहां के शाह मोहम्‍मद रजा पहलवी भारत भी आए थे और तत्‍कालीन प्रधानमंत्री से मुलाकात भी की थी। वर्तमान में भी अमेरिका के सख्‍त रवैये के बावजूद दोनों देशों के बीच रिश्‍ते काफी मजबूत बने हुए हैं।  

शीत युद्ध के दौर से शुरू हुए संबंध  

ईरान से संबंधों का जिक्र हुआ है तो आपको बता दें कि 1950 में भारत ने ईरान से कूटनीतिक रिश्‍तों की शुरुआत की थी। यह दौर वो था जब रूस और अमेरिका के शीत युद्ध चल रहा था और उसके बीच में ईरान दोनों देशों का मोहरा बना हुआ था। दोनों ही देशों ने कई बार एक दूसरे का विभिन्‍न मुद्दों पर साथ दिया है। दोनों देशों के बीच रिश्‍तों में मजबूती का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इस्‍लामिक क्रांति के सफल होने के बाद जब अयातुल्‍ला खामेनेई देश के सर्वोच्‍च नेता बने तो यह संबंध और अधिक मजबूत हुए। 1990 में भारत के अलावा ईरान ने भी अफगानिस्‍तान से तालिबान को उखाड़ फेंकने के लिए नॉर्दन एलाइंस बनाने का समर्थन किया था। वर्ष 2002 में दोनों देशों के बीच रणनीतिक संधि तक हो चुकी है। ईरान में भारत चाहबार पोर्ट का भी निर्माण कर रहा है जो दोनों देशों के बीच संबंधों को मजबूत बनाने में मील का पत्‍थर साबित हुआ है।   

ईरान से आता है भारत की जरूरत का 80 फीसद तेल

इन सभी के अलावा भारत अपनी जरूरत का करीब 80 फीसद तेल ईरान से ही खरीदता है। इतना ही नहीं भारत ने ईरान से तेल खरीद की कीमत भारतीय रुपये में करने को लेकर भी एक समझौता किया हुआ है। इसकी वजह से भारत को तेल डॉलर की तुलना में सस्‍ता पड़ता है। यह समझौता भारत-ईरान के बीच वर्षों से जारी मजबूत संबंधों का ही परिणाम था। यहां पर ये भी बताना जरूरी है कि अमेरिका के प्रतिबंध लगाने के बाद भी भारत ने ईरान से तेल खरीद जारी रखी हुई थी। इसका हल निकालने के तौर पर भारत ने तेल की कीमत तुर्की के माध्‍यम से की थी। हालांकि वर्तमान में जो प्रतिबंध अमेरिका ने ईरान पर लगाए हैं उससे दोनों देशों का ट्रेड जरूर प्रभावित हो सकता है, लेकिन संबंधों में गिरावट को लेकर कहीं कोई प्रश्‍न चिन्‍ह नहीं लगा सकता है। इसके अलावा भारत ईरान में सबसे बड़ा विदेशी निवेशक भी है। यह निवेश तेल और गैस के क्षेत्र में किया गया है। 

भारत को सबसे अधिक पसंद करते हैं ईरानी

गौरतलब है कि भारत उन देशों में शामिल है जो ईरान के परमाणु कार्यक्रम का विरोध करता है और अफगानिस्‍तान में नाटो सेनाओं की तैनाती का समर्थन करता रहा है। लेकिन भारत का हमेशा से ही ये कहना रहा है कि ईरान में नाटो सेनाओं की उपस्थिति किसी भी कीमत पर नहीं होनी चाहिए। ईरान में भारत के प्रभाव का अंदाजा बीबीसी के उस सर्वे से भी लगाया जा सकता है जिसमें करीब 71 फीसद ईरानियों ने माना था कि वह देश  में सकारात्‍मक तौर पर भारत का प्रभाव महसूस करते हैं। दुनिया के ज्‍यादातर देशों के मुकाबले ईरानी लोग भारत को सबसे अधिक महत्‍व देते हैं। यह महत्‍व केवल राजनीतिक तौर पर ही नहीं बल्कि सांस्‍कृतिक और शिक्षा को लेकर भी है। इन संबंधों की बदौलत ही एक बार ईरान ने भारत और पाकिस्‍तान के बीच रिश्‍ते बेहतर बनाने के लिए मध्‍यस्‍थता की भूमिका निभाने की बात कही थी। हालांकि भारत ने इस पेशकश का सम्‍मान करते हुए कहा था कि दोनों देशों में किसी भी तीसरे देश की भूमिका को वह स्‍वीकार नहीं करता है। 

पाकिस्‍तान की तीखी आलोचना 

आपको बता दें कि ईरान हमेशा से ही पाकिस्‍तान के भारत विरोधी रवैये की तीखी आलोचना करता रहा है। इस्‍लामिक सहयोग संगठन हो या फिर संयुक्‍त राष्‍ट्र में भारत विरोधी बयान या फिर मानवाधिकार आयोग में भारत पर लगाए गए बेबुनियाद आरोप, सभी का ईरान ने पुरजोर विरोध किया है। सार्क संगठन में ईरान ऑब्‍जरवर की भूमिका में रह चुका है। भारत-ईरान संबंधों की मजबूती को इस बात से आंका जा सकता है कि ईरानी छात्रों की संख्‍या लगातार भारत में बढ़ रही है। वर्तमान में आठ हजार से अधिक ईरानी छात्र भारत के विभिन्‍न शिक्षण संस्‍थाओं में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। इसके अलावा हर वर्ष करीब 40 हजार ईरानी भारत के दौरे पर आते हैं। हर वर्ष करीब 67 ईरानी छात्रों को भारत में स्‍कॉलरशिप दी जाती है। लखनऊ का शिया और पर्सियन स्‍टडी का सेंटर पूरी दुनिया में विख्‍यात है। मई 2016 में पीएम नरेंद्र मोदी ने दोनों देशों के संबंधों को नई मजबूती देने के मकसद से ईरान का दौरा भी किया था। इस दौरान दोनों देशों के बीच कई समझौतों पर हस्‍ताक्षर हुए थे। तेहरान में केंद्रीय विद्यालय में संगठन का स्‍कूल भी है। 

जब हुई थी एक गलतफहमी

वर्ष 2013 में दोनों देशों के बीच एक गलतफहमी को लेकर कुछ समय के लिए तनाव जरूर देखा गया था। उस वक्‍त ईरान ने भारतीय ऑयल टेंकर को फारस की खाड़ी में रोक दिया था। यह जहाज इराक से तेल लेकर भारत आ रहा था। भारत द्वारा इस बारे में जवाब मांगे जाने पर ईरान ने कहा था कि इसको तकनीकी आधार पर रोका गया है इसके कोई दूसरे राजनीतिक मायने नहीं हैं। अमेरिका से भारत के संबंधों की बात करें तो यह आजादी से भी पहले से हैं। बीते दो दशकों की बात करें तो इसमें काफी तेजी देखने को मिली है। मई 1998 में पोखरण में परमाणु परिक्षण करने के बाद अमेरिका ने कई तरह से भारत के खिलाफ प्रतिबंध लगाए थे। लेकिन, इन प्रतिबंधों के बावजूद भारत हर तरह से मजबूत होकर उस दौर से बाहर निकला। यह वो दौर था जब दोनों देशों के बीच रिश्‍ते उतने बेहतर नहीं थे। वहीं इससे पूर्व की कांग्रेस की सरकार में हुए आर्थिक सुधारों का परिणाम इस दौरान में सामने आने लगा था। ऐसे में भारत से रिश्‍तों को बढ़ाने की पहल अमेरिका ने ही शुरू की थी। वर्तमान में भारत और अमेरिका के बीच आर्थिक, रणनीतिक समेत अन्‍य क्षेत्रों में भी रिश्‍ते काफी मजबूत हैं।  

लगातार मजबूत होते रिश्‍ते

पीएम मोदी के कार्यकाल में दोनों देशों के बीच संबंध और घनिष्‍ठ हुए हैं। खासतौर पर 2015 में तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति बराक ओबामा का भारत दौरा इस संबंध में बेहद खास मायने रखता है। ये पहला मौका था कि कोई अमेरिकी राष्‍ट्रपति भारत के गणतंत्र दिवस के मौके पर मुख्‍य अतिथी बना हो। ओबामा के इस दौरे ने दोनों देशों के संबंधों को नया आयाम प्रदान किया। इसके बाद दोनों देशों के बीच कई समझौते हुए जिन्‍होंने देश की आर्थिक तरक्‍की की राह खोली। आपको बता दें कि अमेरिका  भी अब इस बात को मानता है कि भारत विश्‍व की उभरती हुई शक्ति है। इसके अलावा चीन के सामने अमेरिका को सबसे बड़ी ताकत भारत ही लगती है। दोनों देशों के बीच बेहतर होते संबंधों का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अमेरिका ने भारत को परमाणु एनएसजी (न्‍यूक्लियर सप्‍लाई ग्रुप) का हिस्‍सा बनाने की वकालत की थी। हालांकि चीन की वजह से भारत इसमें शामिल नहीं हो सका था। इसके अलावा जब जब भारत ने पाकिस्‍तान के आतंकियों को वैश्विक आतंकी घोषित करने के लिए यूएन में प्रस्‍ताव रखा तो अमेरिका ने इसका पुरजोर समर्थन किया था। 

आतंकियों को जवाब में भारत को समर्थन

भारत में हुए आतंकी हमले खासतौर पर पुंछ और पुलवामा में हुए आतंकी हमले को लेकर अमेरिका ने पाकिस्‍तान को आड़े हाथों लिया था। यहां तक की बालाकोट एयर स्‍ट्राइक और सर्जिकल स्‍ट्राइक का भी अमेरिका ने भरपूर समर्थन किया था। इसके अलावा जब भारत ने गुलाम कश्‍मीर में बन रहे चीन-पाकिस्‍तान आर्थिक कॉरिडोर पर नाराजगी जाहिर की तब भी अमेरिका ने भारत का साथ दिया था। आपको यहां पर ये भी बता दें कि अमेरिका में भारतीय आईटी की सबसे अधिक मांग है। इसको लेकर जब अमेरिका ने एच1बी वीजा पर  अपने नियमों को बदलने की बात कही थी तब भारत ने अपनी आपत्ति जाहिर की थी, जिस पर अमेरिका ने विचार करने की बात कही थी। 

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