बेहद खास है देवघर के निकट स्थित रिखिया गांव, यहां से शुरू होती है बदलाव की बयार
सितंबर, 1989 जब सत्यानंद यहां पहुंचे तब चारों ओर घनघोर जंगल था। आस-पास थे आदिवासियों के बेहद पिछड़े गांव। न कोई सड़क थी और न बिजली। सत्यानंद दरअसल तप, साधना और सेवा के लिए इस दुर्गम स्थान में आए थे।
देवघर [आरसी सिन्हा]। झारखंड के देवघर के निकट रिखिया नाम के इस गांव में योग गुरु सत्यानंद ने जो पर्णकुटीर बनाई थी, वह उनके तपोबल से इस पूरे क्षेत्र के कल्याण का माध्यम बन गई। सितंबर, 1989 जब सत्यानंद यहां पहुंचे तब चारों ओर घनघोर जंगल था। आस-पास थे आदिवासियों के बेहद पिछड़े गांव। न कोई सड़क थी और न बिजली। सत्यानंद दरअसल तप, साधना और सेवा के लिए इस दुर्गम स्थान में आए थे। यहां आने से पूर्व वे योग के प्रसार का अपना प्रथम ध्येय पूर्ण कर चुके थे। अंतरराष्ट्रीय योग मित्र मंडल के बैनर तले दुनिया के हर देश और कोने-कोने में योग का प्रसार कर चुके थे। योग और अध्यात्म पर विभिन्न भाषाओं में उनकी 80 बेस्टसेलर पुस्तकें दुनियाभर में लोकप्रिय हो चुकी थीं। 1964 में उनके द्वारा स्थापित बिहार स्कूल ऑफ योग, मुंगेर दुनिया का पहला योग विश्वविद्यालय बन चुका था। इसी विश्वविद्यालय में स्थापित योग अनुसंधान केंद्र योग की चिकित्सकीय खूबियों से दुनिया को चकित और लाभान्वित कर रहा था। लिहाजा 66 वर्ष की आयु तक बतौर योग गुरु अपना एक लक्ष्य पूरा कर लेने के बाद उन्होंने रिखिया को नई कर्मभूमि बनाया। अब शेष जीवन रिखिया में कुटिया बना तप, साधना और सेवा करते हुए बिता देना चाहते थे।
यहां फ्रीडम योगा की निराली सीख
वे कहते, दूसरों के कल्याण को आतुर होना ही मनुजता है। परहित में स्वयं को अर्पित कर देना। दूसरों में स्वयं को देखना, स्वयं में दूसरों को देखना, यदि यह सीख पाओ, यदि यह कर पाओ तो अवश्य करो। यही परम-योग है। यही परम-मार्ग है। यह योग अगली सदी का योग है। इसे मैंने फ्रीडम-योगा नाम दिया है। मुक्ति योग। मोक्ष का मार्ग। आज इसकी अत्यंत आवश्यकता है। आने वाले समय में तो इसकी घोर आवश्यकता आन पड़ेगी।
दान लिया नहीं दिया जाता है
यहां से निकली संस्कार और मानव सेवा की तरंगों ने आश्रम के आसपास के इलाकों में बदलाव की बयार बहा दी। कभी गरीबी के कारण गांव के बच्चे पढ़ नहीं पाते थे। आज बालिकाओं को मुफ्त शिक्षा मिल रही है। परिवर्तन ऐसा हुआ कि इलाके की बच्चियां फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती हैं। शास्त्रीय संगीत और भरतनाट्यम में पारंगत हैं। 1995 में स्वामी सत्यानंद ने रिखिया में सीता कल्याणम शंतचंडी महायज्ञ आरंभ किया। यहीं से इलाके में विकास की लौ जल उठी। आश्रम के सामने बने मिडिल स्कूल के बच्चों को किताब-कॉपी, जाड़े में गर्म कपड़े व जूते देने की शुरुआत हुई।
हर पर्व पर गांव के बच्चों व महिलाओं को नये वस्त्र वितरित होते हैं। बेटियों के विवाह में आर्थिक सहयोग सहित उपहार स्वरूप गृहस्थी की जरूरतों का सामान आदि आश्रम की ओर से प्रदान किया जाता है। क्षेत्र की वृद्धाओं, विधवाओं को हर माह 1200 रुपये पेंशन आश्रम से मिलती है। उनका काम यही है कि वे आश्रम के कीर्तन में शामिल हों। पंचायत के गरीबों को आत्मनर्भिर बनाने के लिए आश्रम की ओर से रिक्शा, ठेला जैसे साजोसामान बांटे जाते हैं। क्षेत्र की लगभग हर बालिका के पास साइकिल है, जो आश्रम की ओर से दी जाती है जिन बच्चों, बालिकाओं को कंप्यूटर में रुचि थी, उनको कंप्यूटर व लैपटॉप दिए गए। ताकि वे बिना रुके आगे बढ़ते जाएं। सबसे बड़ी बात, यह आश्रम दान नहीं लेता बल्कि देता है। इसीलिए इसे दातव्य आश्रम कहा जाता है गरीबों के कल्याण को जो राशि खर्च की जाती है, वह योग विश्वविद्यालय जैसी संस्थाओं से प्राप्त होती है।
रिखिया पीठ बन गया रिखिया गांव
25 दिसंबर 1923 को अल्मोड़ा में जन्मे परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने 05 दिसंबर 2009 को रिखिया में परमसमाधि ली। आज दुनिया के नक्शे पर यह गांव रिखिया पीठ के रूप में ख्यात है। दुनिया के कोने-कोने से लोग यहां योग, तप, साधना, सेवा, संस्कार, सरोकार और शांति की शिक्षा प्राप्त करने पहुंचते हैं। बिहार योग विश्वविद्यालय का कार्यभार आज सत्यानंद के शिष्य स्वामी निरंजनानंद सरस्वती संभाल रहे हैं, जिन्हें गत वर्ष भारत सरकार ने पदमविभूषण सम्मान प्रदान किया। वहीं, रिखिया पीठ की देखरेख सत्यानंद की शिष्या स्वामी सत्संगी कर रही हैं।
नौकरी को सेवा मान कर करो...
वर्तमान में रिखिया आश्रम का संचालन कर रही स्वामी सत्संगानंद सरस्वती ने दिल्ली विवि से स्नातक किया था। उसके बाद एयर इंडिया में नौकरी शुरू की। 22 साल की उम्र में वह स्वामी सत्यानंद सरस्वती के दार्शनिक जीवन से प्रभावित होकर संन्यास ग्रहण करने को प्रेरित हुई। स्वामी सत्संगानंद की योग, तंत्र परंपरा एवं आधुनिक विज्ञान के साथ दर्शन में गहरी पैठ है। रिखिया आश्रम के कार्यकलापों का वे प्रभावी मार्गदर्शन करती हैं। जिस कार्य की शुरुआत स्वामी सत्यानंद ने की उस कमजोर वर्ग के उत्थान को सत्संगानंद जी जान से जुटी हैं। कहती हैं, सेवा स्वस्फूर्त प्रेरणा है, इसलिए इसमें पूर्णता व श्रेष्ठता अपने-आप आते हैं। शिक्षक, चिकित्सक, दुकानदार, पुलिस, अफसर... हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में परहित में ही रत है, लेकिन वह उसे नौकरी मान लेता है। नौकरी को सेवा मान कर इसमें रत हो जाया जाए तो जीवन में पूर्णता और श्रेष्ठता स्वत: प्राप्त हो जाएगी। यही गुरुजी ने हमें सिखाया है।