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चलता-फिरता हीटर है 'कांगड़ी', पहाड़ों से निकलकर विदेशों तक जमा रही धाक

कश्मीर की हस्तशिल्प की पहचान कांगड़ी अब पहाड़ों से निकलकर जम्मू हिमाचल प्रदेश मैदानी इलाकों और विदेशों में भी धाक जमा रही है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Wed, 22 Jan 2020 08:50 AM (IST)Updated: Thu, 23 Jan 2020 11:35 AM (IST)
चलता-फिरता हीटर है 'कांगड़ी', पहाड़ों से निकलकर विदेशों तक जमा रही धाक
चलता-फिरता हीटर है 'कांगड़ी', पहाड़ों से निकलकर विदेशों तक जमा रही धाक

नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। सर्दी हो और कश्मीर की पारंपरिक कांगड़ी का जिक्र न हो, ऐसा कैसे हो सकता है। भले ही बाहर बर्फ गिर रही हो और तापमान शून्य से नीचे माइनस में चला जाए, कांगड़ी का एहसास ही आपको गर्माहट ला देगा। आधुनिक इलेक्ट्रानिक उपकरणों के इस दौर में भी कांगड़ी का क्रेज कम नहीं हुआ है। खुद को गर्म रखने से लेकर ड्राइंग रूम में सजाने तक कांगड़ी का इस्तेमाल हो रहा है। कश्मीर की हस्तशिल्प की पहचान कांगड़ी अब पहाड़ों से निकलकर जम्मू, हिमाचल प्रदेश, मैदानी इलाकों और विदेशों में भी धाक जमा रही है।

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बांडीपोरा की कांगड़ी की बात ही कुछ ओर

वैसे तो पूरे कश्मीर में कई जगह कांगड़ी बनाई और बेची जाती है, लेकिन बांडीपोरा और चार-ए-शरीफ की कांगड़ी की बात ही कुछ ओर है। कश्मीर के लोगों के अलावा देश-विदेश से कश्मीर घूमने आने वाले पर्यटकों को कांगड़ी खूब लुभा रही है।

जीवनरक्षक है पर कुछ नुकसान भी

कश्मीर के पहाड़ी क्षेत्रों में भारी बर्फबारी के समय कई-कई दिन तक बिजली नहीं होती, तब खुद को गर्म रखने के लिए कांगड़ी ही सहारा है। भीषण सर्दी में यह जीवनरक्षक से कम नहीं। हालांकि चिकित्सकों का कहना है कि बंद कमरे में ज्यादा कांगड़ी सेंकना हानिकारक भी हो सकता है। इससे सांस की दिक्कत और चर्मरोग भी हो सकता है।

पोशक्विन कांगर से बनी जाती है

एक कांगड़ी तैयार करने में काफी मेहनत लगती है। पहले कुम्हार मिट्टी से कटोरानुमा बर्तन बनाता है। इसके बाद पोशक्विन कांगर और लिनक्विन कांगर नामक पौधे की टहनी (बांस नुमा तिनके) से हाथ से कांगड़ी बुनी जाती है। इसके बाद मिट्टी का बर्तन कांगड़ी में इस तरह फिट किया जाता है कि वह हिले नहीं। इसके बाद कांगड़ी को ऊपर से मोतियों से सजाया जाता है। वजन में भी यह काफी हल्की होती है।

200 से 2000 रुपये तक है कीमत

कांगड़ी की कीमत उसकी गुणवत्ता पर निर्भर करती है। अच्छी लकड़ी (पोशक्विन कांगर) की टहनियों से बनी कांगड़ी दो हजार तक मिलती है। वैसे बाजार में 200-400 रुपये की कांगड़ी भी उपलब्ध है।

कांगडी सेंकना महारत से कम नहीं

कांगड़ी में कोयले को जलाकर डाला जाता है। धुंए वाले कोयले को छांट कर बाहर निकाल दिया जाता है। इसे कश्मीर के लोग फिरन (कश्मीरी परिधान) के अंदर हाथ में पकड़कर चलते-फिरते भी सेंकते हैं। इससे हाथ और छाती गर्म रहती है। खुद को जलने से बचाते हुए कांगड़ी सेंकना भी महारत का काम है। गर्म कांगड़ी तीन से चार घंटे आराम से चलती है।

मां शादी में बेटी को और नई बहू सास को देती है यह उपहार

कांगड़ी कश्मीर की परंपरा से भी जुड़ी है। शादी के समय मां अपनी बेटी को विदा करते समय कांगड़ी देती है। नई बहू अपनी सास को भी कांगड़ी तोहफे में देती है, जिसे बड़े चाव से घर में सजाकर रखा जाता है। इतना ही नहीं, घर में आने वाले मेहमान का स्वागत गर्म कांगड़ी देकर किया जाता है। कश्मीर में सीजन की पहली बर्फबारी को ‘शीन मुबारक’ कहा जाता है। शीन मुबारक बोलकर भी कांगड़ी तोहफे में दी जाती है। कश्मीर में कांगड़ी पर कई लोकगीत भी प्रचलित हैं।

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