कृष्ण ने इंद्र को दी थी चुनौती और मथुरा छोड़ने पर उन्हें रणछोड़ तक कहा गया
चिंतक, विचारक, कूटनीतिज्ञ, सामरिक रणनीतिकार और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के वाहक समेत अनेक विधाओं के जरिये कृष्ण ने मानव सभ्यता के विकास में व्यापक योगदान दिया
प्रमोद भार्गव। वसुदेव-देवकी का जैविक पुत्र, तो नंदगोप-यशोदा का पालित चंचल पुत्र, ईश्वर भक्तों ने विष्णु के नौवें अवतार के रूप में कृष्ण को स्वीकारा, तो ज्ञानियों ने एक चिंतक व विचारक के रूप में देखा। योद्धाओं ने सुदर्शन चक्रधारी वीर पराक्रमी कहा, तो शासकों ने कृष्ण को कूटनीतिज्ञ ठहराया। वह कृष्ण ही थे जब कामरूप के अधिपति यवनासुर को पराजित कर उसके कारागार में बंद 16 हजार स्त्रियों को बंधन-मुक्त कराया। उनके पतियों व परिजनों ने जब उन्हें स्वीकार नहीं किया तो कृष्ण ने ही उन्हें सम्मान देने के लिए उनसे प्रतीकात्मक विवाह किया। कृष्ण ने इंद्र को चुनौती दी तो उन्हें देवसत्ता के विरोधी के रूप में देखा गया। योगियों ने कृष्ण को योगी-कृष्ण के रूप में अवलोकित किया। मथुरा छोड़ी तो कृष्ण को रणछोड़ तक कहा गया। छल-कपट से प्रतिपक्षी को पराजित करने के बहुत से किस्से उनसे जुड़े हैं।
दरअसल सृजनकताओं ने कृष्ण के इतने रूप, इतनी विधाएं और इतने आयाम रच दिए हैं कि उनकी व्याख्या करना ही कठिन है। उनके जन्म के साथ ही हत्या की प्रत्यक्ष भूमिका रच दी गई थी। उनकी जान बचाने के लिए भी एक निदरेष बालिका को बलि-वेदी की भेंट चढ़ना पड़ा। आयु के अनुपात से कहीं ज्यादा सतर्कता, चैतन्यता और संघर्ष के दौर से गुजरना पड़ा। ऐसे विकट और विषाक्त परिवेश में अपनी, अपने समाज की प्राण रक्षा के लिए छल-कपट और लुका-छिपी कृष्ण नहीं खेलते तो क्या बच पाते? वह तो दादा बलदाऊ साथ थे, जो हर संकट में संकटमोचक बने रहे। इसमें कोई विस्मय नहीं कि जब लोकतंत्र से राजतंत्र की भिड़ंत होती है, तो जड़ हो चुकी स्थापित मान्यताओं के परिवर्तन की मांग उठती ही है। प्राण खतरे में डालकर कठोर संघर्ष करना ही पड़ता है। इन्हीं संकट और षड्यंत्रों से सामना करने वाले साहसी ही ईश्वर, नायक और नेतृत्वकर्ता के रूप में उभरे हैं।
भारतीय धर्मग्रंथों में युग परिवर्तन और बदले संदर्भाें में जितनी व्याख्याएं हुई हैं, उतनी शायद दुनिया के अन्य धर्मग्रंथों की नहीं हुई हैं। इन ग्रंथों में श्रीमद्भगवद गीता अग्रणी ग्रंथ है। कृष्ण बाल जीवन से ही जीवनपयर्ंत सामाजिक न्याय की स्थापना और असमानता को दूर करने की लड़ाई इंद्र की देव व कंस की राजसत्ता से लड़ते रहे। वे गरीब की चिंता करते हुए खेतिहर संस्कृति और दुग्ध क्रांति के माध्यम से ठेठ देशज अर्थव्यवस्था की स्थापना और विस्तार में लगे रहे। सामरिक दृष्टि से उनका श्रेष्ठ योगदान भारतीय अखंडता के लिए उल्लेखनीय है। इसीलिए कृष्ण के किसान और गौपालक कहीं भी फसल व गायों की खरीद-बिक्री के लिए मंडियों में शोषणकारी व्यवस्थाओं के शिकार होते दिखाई नहीं देते। भारतीय लोक के कृष्ण ऐसे परमार्थी थे, जो चरित्र भारतीय अवतारों के किसी अन्य पात्र में नहीं मिलता।
16 कलाओं में निपुण इस महानायक के बहुआयामी चरित्र में वे सब चालाकियां बालपन से ही थीं, जो किसी चरित्र को वाक्पटु और थोड़ी उद्दंडता के साथ निर्भीक नायक बनाती हैं। लेकिन बाल कृष्ण जब माखन चुराते हैं तो अकेले नहीं खाते, अपने सब सखाओं को खिलाते हैं और जब यशोदा मैया चोरी पकड़े जाने पर दंड देती हैं तो उस दंड को अकेले ङोलते हैं। चरित्र की यह विलक्षणता किसी उदात्त नायक का ही हो सकता है। कृष्ण का पूरा जीवन समृद्धि के उन उपायों के विरुद्ध था, जिनका आधार लूट और शोषण रहा। शोषण से मुक्ति, समता व सामाजिक समरसता से मानव को सुखी और संपन्न बनाने के गुर गढ़ने में कृष्ण का चिंतन लगा रहा। भारतीय मिथकों में कृष्ण के अलावा कोई दूसरी ईश्वरीय शक्ति ऐसी नहीं है, जो राजसत्ता से ही नहीं, उस पारलौकिक सत्ता के प्रतिनिधि इंद्र से विरोध ले सकती हो जिसका जीवनदायी जल पर नियंत्रण था। यदि हम इंद्र के चरित्र को देवतुल्य अथवा मिथक पात्र से परे मनुष्य रूप में देखें तो वे जल प्रबंधन के विशेषज्ञ थे।
लेकिन कृष्ण ने रूढ़, भ्रष्ट व अनियमित हो चुकी उस देवसत्ता से विरोध लिया, जिस सत्ता ने इंद्र को जल प्रबंधन की जिम्मेदारी सौंपी हुई थी और इंद्र जल निकासी में पक्षपात बरतने लगे थे। किसान को तो समय पर जल चाहिए, अन्यथा फसल चौपट हो जाने का संकट उसका चैन हराम कर देता है। कृष्ण के नेतृत्व में कृषक और गौपालकों के हित में यह शायद दुनिया का पहला आंदोलन था, जिसके आगे प्रशासकीय प्रबंधन नतमस्तक हुआ और जल वर्षा की शुरुआत किसान हितों को दृष्टिगत रखते हुए शुरू हुई। कृष्ण युद्ध कौशल के महारथी होने के साथ देश की सीमाआंे की सुरक्षा संबंधी सामरिक महत्व के जानकार थे। इसीलिए कृष्ण पूरब से पश्चिम अर्थात मणिपुर से द्वारिका तक सत्ता विस्तार के साथ उसके संरक्षण में भी सफल रहे। मणिपुर की पर्वत श्रेणियों पर और द्वारिका के समुद्र तट पर कृष्ण ने सामरिक महत्व के अड्डे स्थापित किए, जिससे कालांतर में संभावित आक्रांताओं यूनानियों, हूणों, पठानों, तुर्काें, शकों और मुगलों से लोहा लिया जा सके।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हमारे यही सीमांत प्रदेश आतंकवादी घुसपैठ और हिंसक वारदातों का हिस्सा बने हुए हैं। कृष्ण के इसी प्रभाव के चलते आज भी मणिपुर के मूल निवासी कृष्ण भक्त हैं। इससे पता चलता है कि कृष्ण की द्वारिका से पूवरेत्तर तक की यात्र एक सांस्कृतिक यात्र भी थी। सही मायनों में बलराम और कृष्ण का मानव सभ्यता के विकास में अद्भुत योगदान है। बलराम के कंधों पर रखा हल इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर है। वहीं कृष्ण मानव सभ्यता व प्रगति के ऐसे प्रतिनिधि हैं, जो गायों के पालन से लेकर दूध व उसके उत्पादनों से अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाते हैं।
ग्रामीण व पशु आधारित अर्थव्यवस्था को गतिशीलता का वाहक बनाए रखने के कारण ही कृष्ण का नेतृत्व एक बड़ी उत्पादक जनसंख्या स्वीकारती रही। जबकि भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में हमने कृष्ण के उस मूल्यवान योगदान को नकार दिया, जो किसान और कृषि के हित तथा गाय और दूध के व्यापार से जुड़ा था। बावजूद पूरे ब्रज मंडल और कृष्ण साहित्य में कहीं भी शोषणकारी व्यवस्था की प्रतीक मंडियों और उनके कर्णधार दलालों का जिक्र नहीं है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)