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जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल: गांधी ऐसी 'चिंगारी' है जो लगता है बुझ गई, लेकिन फिर सुलग जाती है

पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि पश्चिमी देशों को भारत को समझना हो तो हमारे गांवों में जाकर देखें कि आज भी लोग प्रकृति को बिना नुकसान पहुंचाए जीते हैं।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Sat, 25 Jan 2020 02:45 AM (IST)Updated: Sat, 25 Jan 2020 02:45 AM (IST)
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल: गांधी ऐसी 'चिंगारी' है जो लगता है बुझ गई, लेकिन फिर सुलग जाती है
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल: गांधी ऐसी 'चिंगारी' है जो लगता है बुझ गई, लेकिन फिर सुलग जाती है

मनीष गोधा, जयपुर। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एक ऐसी 'चिंगारी' है जो लगता है बुझ गई, लेकिन फिर पता नहीं कहां से सुलग जाती है। महात्मा गांधी एक विचार के रूप में कभी खत्म नहीं हो सकते। वे अपनी मौत के बाद ज्यादा प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हो गए हैं। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में शुक्रवार को गांधीजी पर आयोजित सत्र 'गांधी इन अवर टाइम्स' में जवाहरलाल नेहरू [जेएनयू] के प्रो. मकरंद परांजपे, लेखिका तलत अहमद, फिल्मकार रमेश शर्मा ने मानवाधिकार कार्यकर्ता रूचिरा गुप्ता के साथ बातचीत में महात्मा गांधी के जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर चर्चा के दौरान ये बातें कहीं।

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गांधीजी के विचार और अनुभव एक सूत्र थे

प्रो. परांजपे ने कहा कि गांधीजी का सत्य के प्रति आग्रह बहुत जबरदस्त था और उन्होंने अपने समय से जुड़े हर विषय पर अपनी बात कही। उनके विचार और अनुभव एक सूत्र थे। गांधीजी ने जो कहा वह उनके अनुभव से निकला हुआ था। तलत अहमद ने कहा कि गांधीजी सामाजिक बदलाव के प्रणेता थे और पूरी दुनिया उनकी ओर देखती थी। रमेश शर्मा ने कहा कि गांधीजी बहुत अच्छा संवाद करते थे और आज होते तो ट्विटर का भरपूर इस्तेमाल करते।

गांधीजी ने हर आंदोलन से महिलाओं को जोड़ा

रूचिरा गुप्ता ने कहा कि गांधीजी ने हर आंदोलन से महिलाओं को जोड़ा और महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के उनके अपने तरीके थे। गांधीजी की हत्या के सवाल पर बहस सत्र के दौरान गांधीजी की हत्या से जु़़डे एक सवाल पर मकरंद परांजपे और रूचिरा गुप्ता के बीच बहस की स्थिति भी बनी। रूचिरा ने मकरंद से पूछा था कि उनकी हत्या क्यों की गई? इस पर मकरंद ने कहा कि गांधीजी उस समय बहुत से लोगों के लिए असुविधाजनक हो गए थे। इसी दौरान जब रूचिरा ने नाथूराम गोडसे को आरएसएस का कार्यकर्ता बताया तो मकरंद ने प्रतिवाद करते हुए कहा कि गोडसे आरएसएस के कार्यकर्ता नहीं थे। हमें गलत तथ्य सामने नहीं रखने चाहिए।

रियलिटी शो के तीन महीने बाद कलाकार कहां जाता है, पता भी नहीं चलता

प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका शुभा मुद्गल ने टीवी पर आने वाले रियलिटी शोज के बारे में कहा है कि इनका फॉर्मेट कुछ ऐसा है कि शो खत्म होने के तीन महीने बाद विजेता कलाकार कहां जाता है पता भी नहीं चलता। उसे अनुबंध में बांध दिया जाता है और वह अपने संगीत को बेहतर करने के लिए कुछ नहीं कर पाता। उन्होंने कहा कि हम संगीत को सिर्फ फिल्म संगीत के नजरिए से देखते हैं जबकि संगीत हमारे देश के कोने-कोने में है। शुभा फेस्टिवल के दूसरे दिन शुक्रवार को अपनी किताब 'लुकिंग फॉर मिस सरगम' पर आधारित सत्र में सुधा सदानंद से बात कर रही थीं। शुभा ने कॉपीराइट के विषय में कहा कि यह बहुत जटिल विषय है और हमें इसके बारे में कुछ बताया ही नहीं जाता। यदि हम कहीं से कोई गीत लेकर उसे अपने तरीके से भी गा रहे है तो हमें कम से कम यह बताना चाहिए कि यह मूल रूप से कहां से आया है। कॉपीराइट को हमारी संगीत की तालीम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। यह आज के समय में बहुत जरूरी है।

मीडिया का जितना लोकतंत्रीकरण इस समय हुआ है, उतना पहले कभी नहीं हुआ

मीडिया का इतना लोकतंत्रीकरण पहले कभी नहीं हुआ फेस्टिवल में अपनी किताब 'वर्ड, साउंड, इमेज' पर चर्चा करते हुए फिल्मकार अमित खन्ना ने कहा कि मीडिया का जितना लोकतंत्रीकरण इस समय हुआ है, उतना पहले कभी नहीं हुआ। उनसे लेखिका शोभा डे और पत्रकार कावेरी बामजई ने बातचीत की। अमित ने कहा कि आज मीडिया और खासकर सोशल मीडिया पर लोग खुलकर अपनी बात कहते हैं। आपस में संवाद करते हैं। हालांकि सोशल मीडिया कभी सामाजिक संवाद के लिए था, लेकिन इस अब इस पर बौद्धिक संवाद भी हो रहा है जो यह बताता है कि देश क्या सोच रहा है।

फिल्म समाज का चेहरा दिखाती है

लेखिका शोभा डे ने कहा कि अच्छी या बुरी जो भी फिल्म बनती है, वह हमारे समाज का चेहरा दिखाती है। कबीर सिंह जैसी फिल्म यदि हिट हो रही है तो यह हमारी वजह से ही हो रही है। यह बताती है कि हम क्या देखना चाहते है। जेएलएफ की पृष्ठभूमि रचा गया जयपुर जर्नल्स जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल [जेएलएफ] के 13वें संस्करण के साथ ही अब इसकी पृष्ठभूमि पर एक उपन्यास भी रच दिया गया है। फेस्टिवल की को-डायरेक्टर नमिता गोखले ने 'जयपुर जर्नल्स' नाम से यह उपन्यास लिखा है। शुक्रवार को आयोजन स्थल डिग्गी पैलेस के फ्रंट लॉन में लेखक व राजनेता शशि थरूर ने इसका लोकार्पण किया। थरूर ने इस उपन्यास को जेएलएफ का उत्सव बताया।

देश जमीन का टुक़़डा नहीं, यह तो लोगों से बनता है-थरूर

कांग्रेस नेता शशि थरूर बोले कि मैं लेखक के रूप में पहचाना जाना चाहता हूं। देश क्या होता है! क्या सिर्फ जमीन के एक टुक़़डे को, जिसकी भौगोलिक व राजनीतिक सीमाएं हैं, उसे देश मान लिया जाएगा! नहीं! बिल्कुल नहीं। देश सिर्फ जमीन का टुक़़डा नहीं होता। यह तो आप-हम जैसे लाखों लोगों से मिलकर बनता है इसलिए किसी को निकालने या किसी को ले आने की बात कहना कैसे पूरी तरह सही हो सकती है। यह बात शुक्रवार को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दूसरे दिन वरिष्ठ कांग्रेस नेता शशि थरूर ने कही।

थरूर ने कहा- राजनीतिज्ञ मुझे लेखक मान लेते हैं, लेकिन बुद्धिजीवी मुझे राजनेता मानते हैं

उन्होंने इशारों-इशारों में नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी पर अपनी बात कही। मैं राजनेता नहीं लेखक थरूर ने कहा कि राजनीतिज्ञ मुझे लेखक या बुद्धिजीवी मान लेते हैं, लेकिन जब मैं बुद्धिजीवियों में जाता हूं तो वे मुझे राजनेता मानकर बात करते हैं, लेकिन सच यह है कि मैं दोनों भूमिकाओं में हूं और दोनों में नहीं भी हूं।

राजनेता तो भूतपूर्व हो जाते हैं, लेकिन लेखक कभी भूतपूर्व नहीं होता- थरूर

सच पूछा जाए तो मैं राजनेता के बजाय लेखक के रूप में पहचाना जाना चाहता हूं क्योंकि राजनेता तो भूतपूर्व हो जाते हैं, लेकिन लेखक कभी भूतपूर्व नहीं होता। श्रोता के सवाल पर असहज हुए थरूर थरूर उस समय थोड़े असहज हो गए जब अपने वक्तव्य में बार-बार भाजपा, प्रधानमंत्री मोदी, आरएसएस, सावरकर आदि को लेकर आलोचनात्मक रवैया रखने पर एक श्रोता ने उनसे प्रतिप्रश्न कर लिया।

मैंने हमेशा गलत को गलत कहा- थरूर 

श्रोता ने पूछा- 'आप हर गलती के लिए भाजपा, मोदी, सावरकर को दोषी ठहरा रहे हैं। क्या आपकी पार्टी या अन्य लोगों ने कोई गलती नहीं की! जबकि सच तो यह है कि मोदी इतिहास की गलतियों को सुधार रहे हैं।' इस पर थरूर पहले तो थोड़े असहज हो गए, फिर संभलकर बोले- 'ऐसा नहीं है कि मैं सिर्फ वर्तमान सरकार की आलोचना कर रहा हूं। मैंने हमेशा गलत को गलत कहा है। इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाया था, तब मैं छात्र था और छात्र के रूप में मैंने इसका बहुत विरोध किया था।

निर्भया कांड के बाद भी ज्यादा कुछ बदला नहीं

स्त्री को लेकर दुनियाभर में स्थितियां कमोबेश एक जैसी हैं। स्त्री के लिए संघषर्ष के तरीके भले अलग--अलग हो सकते हैं लेकिन संघषर्ष तो एक जैसा है। दरअसल, तमाम शोर-शराबे के बावजूद स्त्री के लिए बहुत कुछ ऐसा है जो बदला नहीं है। भारत में निर्भया जैसा भयावह कांड होने के बावजूद जमीनी हालात नहीं बदल सके हैं। आज भी दुष्कर्म हो रहे हैं, बल्कि पहले से ज्यादा हो रहे हैं। यह चर्चा जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दूसरे दिन शुक्रवार को आयोजित सत्र 'वूमन एंड वर्क' में हुई।

दुनिया में गर्भवती स्त्री से मजबूत और कोई नहीं होता

सत्र में लेखिकाएं अनुराधा भगवती, आसमा खान, अमृता निगम सहाय, नमिता वायकर और नमिता भंडारे ने बातचीत की। अमेरिका से आई अनुराधा भगवती ने कहा कि समाज में माना जाता है कि गर्भवती स्त्री कमजोर होती है। किंतु क्या यह सच है! सच तो यह है कि इस दुनिया में गर्भवती स्त्री से मजबूत और कोई नहीं होता, क्योंकि वह नौ महीने तक हर पल एक ऐसी ल़़डाई ल़़डती है, जिसे पुरुष कभी नहीं ल़़ड सकता। और वह ल़़डकर जीतती भी है। ऐसे में कोई स्त्री को कमजोर कैसे कह सकते हैं।

सरकारी दफ्तरों में भी स्त्री के हालात में बहुत सुधार नहीं आया

नमिता वायकर ने कहा कि निजी सेक्टर तो छोडि़ए, सरकारी दफ्तरों में भी स्त्री के हालात में बहुत सुधार नहीं आया है। स्त्री की हर पल खुद से ल़़डाई चलती रहती है। अपने बॉस, सहकर्मी से लेकर हर पुरुष से उसे सजग रहना होता है। यह ठीक नहीं। ल़़ड रही हैं, जीत रही हैं आसमा खान और अमृता निगम सहाय ने कुछ उदाहरणों के साथ बताया कि स्त्री आज ल़़ड भी रही है और जीत भी रही है।

महिलाएं हर क्षेत्र की शोभा बढ़ा रही हैं

आदिवासी महिलाएं आज पत्रकार बनकर 'खबर लहरिया' नामक अखबार निकाल रही हैं। वे ट्रक चला रही हैं, ट्रेन चला रही हैं, यहां तक कि ल़़डाकू विमान भी उ़़डा रही हैं। अब न तो स्त्रियों के लिए अवसरों की कमी है और न ही स्त्री के भीतर उन अवसरों को अपनाकर आगे ब़़ढ जाने के आत्मविश्वास की कमी है। स्त्री सबसे ब़़डी एथलीट क्रिकेटर, फुटबॉलर, स्वीमर से लेकर धावक तक, कोई भी खिलाड़ी उतना ब़़डा एथलीट नहीं होता, जितनी ब़़डी एथलीट स्त्री होती है। दरअसल, स्त्री 24 घंटे में से 18-18 घंटे तक लगातार कुछ न कुछ करती रहती है। वह थककर बैठ नहीं सकती और बैठती भी नहीं है।

अपनी आंखों के पानी को नदियों में भरना होगा- जयराम रमेश

पर्यावरण को लेकर हम रोते बहुत हैं। हर कोई कहता मिल जाएगा कि ग्लोबल वॉर्मिग हो रही है, हमारी नदियां सूख रही हैं, समंदर प्रदूषित हो रहे हैं, प्रकृति परेशान हो रही है, लेकिन वह पर्यावरण को बचाने के लिए कुछ करता दिखाई नहीं देगा। किसी से कहो कि फेसबुक, ट्विटर पर सिर्फ बात करने के बजाय आओ पौधे लगाते हैं, तो वह बिदक जाएगा। यह रवैया ठीक नहीं है। दरअसल, हमें पर्यावरण को लेकर आंखों से पानी बहाने के बजाय आंखों के उस पानी को नदियों में भरना होगा। तभी नदियां बचेंगी, समंदर बचेंगे और बच सकेंगे हम सब।

भारत में मानसून सिमटकर 20-30 दिन का हो गया

यह चिंता पूर्व केंद्रीय मंत्री, वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पर्यावरण को लेकर दुनियाभर में अपनी बात रखने वाले जयराम रमेश ने बातचीत में कही। वे जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दूसरे दिन शुक्रवार को यहां अपनी बात रखने आए थे। उन्होंने कहा कि भारत में पहले मानसून 120 दिन का होता था, जो जून से सितंबर तक चलता था। अब यह सिमटकर 20-30 दिन का हो गया है। मानसून के दिनों में भी बारिश कहां गिरती है! या तो एक साथ बहुत-सा पानी बरसकर बह जाता है या फिर बरसता ही नहीं और यह सब हम इंसानों की गलतियों के कारण है।

यदि हम प्रकृति की रक्षा करेंगे तो प्रकृति हमारी रक्षा करेगी- जयराम रमेश

यदि हम अब भी नहीं समझे तो प्रकृति हमें फिर समझने योग्य छोड़ेगी नहीं। अमेरिका हमें न सिखाए कि क्या करना है अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देशों द्वारा कार्बन उत्सर्जन, जनसंख्या विस्फोट, ग्लोबल वॉर्मिग आदि को लेकर कई बार भारत को दोषी ठहराने के प्रश्न पर उन्होंने चेतावनी भरे अंदाज में कहा कि अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस हमें न सिखाएं कि प्रकृति के साथ कैसे रहा जाता है। हमारे तो हजारों वर्ष पहले लिखे गए उपनिषदों में 'प्रकृति रक्षति रक्षित' का विचार दिया गया है, जिसका मतलब ही है कि यदि हम प्रकृति की रक्षा करेंगे तो प्रकृति हमारी रक्षा करेगी।

पश्चिमी देश हमारे गांवों में जाकर देखें कि आज भी लोग प्रकृति को बिना नुकसान पहुंचाए जीते हैं

उन्होंने कहा कि पश्चिमी देशों को भारत को समझना हो तो हमारे गांवों में जाकर देखें कि आज भी लोग प्रकृति को बिना नुकसान पहुंचाए जीते हैं। हमारे देवी-देवता, संस्कृति, संस्कार, पूजा-पद्धति आदि सबमें नदी, आकाश, वायु, सूर्य को देवता माना गया है। हम तो इन्हें पूजते हैं। इसलिए हमें सिखाने की कोशिश न ही की जाए तो अच्छा है।


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