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In Depth: एकता की कमजोर बुनियाद, समाज में देनी होगी सम्मानजनक हिस्सेदारी

यदि भारत को एक अखंड राष्ट्र बनना है तो कुल आबादी के सत्रह प्रतिशत अनुसूचित जातियों और नौ प्रतिशत अनुसूचित जनजातियों को समाज में सम्माजनक हिस्सेदारी देनी ही होगी।

By Abhishek Pratap SinghEdited By: Published: Fri, 19 Jan 2018 09:47 AM (IST)Updated: Fri, 19 Jan 2018 02:44 PM (IST)
In Depth:  एकता की कमजोर बुनियाद, समाज में देनी होगी सम्मानजनक हिस्सेदारी
In Depth: एकता की कमजोर बुनियाद, समाज में देनी होगी सम्मानजनक हिस्सेदारी

नई दिल्ली, [त्रिवेंद्रम प्रताप सिंह]। हरिद्वार में एक बार गांधीजी ने जनेऊ पहनने से यह कहते हुए मनाकर दिया था कि यदि उनके दलित बंधुओं को इसे पहनने पर रोक है तो वह क्यों पहने। जनेऊ पर चले राजनैतिक विमर्श में यह घटना आंख खोलने वाली हो सकती है। आज दलित विमर्श बस राजनैतिक फुटबॉल बन गया है। भीमा कोरेगांव में हुई घटना के परिपेक्ष्य में इसके बहुआयामी पहलुओं पर विचार अत्यंत आवश्यक है। यह दुखद है कि आज भी भारतीय समाज जातियों के चंगुल से बाहर नहीं आ पाया है और इसका नवीनतम रूप सोशल मीडिया पर बने जातिगत ग्रुप व परस्पर बरसाई जा रही गालियों में परिलक्षित होता है। क्या इस बिखराव के साथ विश्व पटल पर एक सशक्त भारत की कल्पना की जा सकती है?

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इस जातिगत संघर्ष को नकारते हुए बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘हूवेर दि शुद्रास’ में लिखा है कि ऋग्वैदिक समाज में पांच जनजातियां थीं, जिनमें कोई परस्पर भेदभाव नहीं था तो कालांतर में अछूत प्रथा कैसे आई, इसके लिए उन्होंने अनेक आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक परिस्थितियों को जिम्मेदार ठहराया है। इसी जातिगत द्वंद्व का लाभ उठाकर मध्यकाल में इस्लामिक प्रसार और फिर अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीतियां आईं। वहीं चीनी समाज की सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक एकरूपता के कारण चीन हमेशा से एक देश बना रहा। 1आज अगर भारत को एक अखंड राष्ट्र बनना है तो हमें कुल आबादी के 17 प्रतिशत अनुसूचित जातियों और 9 प्रतिशत अनुसूचित जनजातियों को समाज में पूर्णतया समाहित करना पड़ेगा। मगर यह होगा कैसे? आज के राजनैतिक परिपेक्ष्य में इस प्रतिशत को वोट बैंक बना दिया गया है। जिस पर जाम कर राजनीति खेली जा रही है।

इस समस्या के समाधान के लिए डॉ राम मनोहर लोहिया ने अंतरजातीय विवाह को जाति के बंधन तोड़ने का एक कारगर तरीका बताया है। प्राचीन रोम समाज में पैटिशेन और प्लीबिएन, हमारी अगड़ी और पिछड़ी जातियों जैसे थे। उनके बीच में बहुत अंतर्द्वद्व था,लेकिन 445 ईसा पूर्व के कैनुलेनिएन कानून ने दोनों के बीच में वैवाहिक संबंध को मान्यता दे दी। जिसने उनके बीच कि खाई काफी कम कर दी। अपने देश में यह प्रेम के माध्यम से इंसानों के बीच बनी जाति रूपी खाई को भरने का एक अच्छा तरीका हो सकता है।

अब बात आती है आरक्षण की. नौकरियों के अभाव में आज देश की आबादी की तकरीबन साठ फीसद युवा आबादी बेरोजगारी के चलते आरक्षण के मुद्दे पर उग्र हो रही है। मगर सरकारी नौकरियां इस बेरोजगार फौज के सामने नगण्य है। आवश्यकता है मैन्युफैक्चरिंग, कृषि, सेवा क्षेत्र आदि में नौकरियों के सृजन की, जैसा चीन ने किया। इसके अलावा इस पर भी पुनर्विचार होना चाहिए कि क्या जाति आरक्षण का अकेला मानक है। डॉ पुरुषोत्तम अग्रवाल ने मल्टिपल इंडेक्स रिलेटेड अफर्मेटिव एक्शन का फामरूला दिया है। इसमें जाति, ग्रामीण-शहरी, आर्थिक, समाजिक आदि मानक के आधार पर आरक्षण देने की वकालत की गई है। इस पर विचार किया जाना जरूरी है।

एक और आता है दलित नेतृत्व का। आज गुजरात से लेकर तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में अनेक दलित युवा सोशल मीडिया का उपयोग कर उनपर हो रहे शोषण को विमर्श की मुख्यधारा में ला रहे हैं। यह सराहनीय है, लेकिन कई सारे राजनैतिक दल उस पर बस अपनी रोटियां सेकते हैं। आवश्यकता है कि समाज का हर वर्ग दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के मुद्दों पर गहन विचार करे और खासकर भारत का युवा, जाति को लेकर फैली सामाजिक कुरीतियों को तोड़कर आधुनिक भारत के उद्भव की शुरुआत करे अन्यथा बहुत देर हो जाएगी और भारत फिर से टुकड़ों में बंट जाएगा।

दुखद है कि उभरती भारतीय अर्थव्यवस्था में अनुसूचित जाति और जनजाति नेपथ्य में खड़ी दिखाई देती हैं। 2005 तक निजी कंपनियों के स्वामित्व में अनुसूचित जातियों की हिस्सेदारी सिर्फ 9.8 प्रतिशत थी, जबकि कुल आबादी के वे लगभग 17 प्रतिशत हैं। अनुसूचित जनजातियों के लिए यह आंकड़ा 3.7 प्रतिशत है। सरकार की स्टैंड उप इंडिया स्कीम इसे ठीक करने की दिशा में एक सही कदम है, लेकिन आवश्यकता है उनमें कौशल विकास की और आर्थिक छुआछूत के समाप्ति की। एक सर्वे के मुताबिक निजी कंपनियों के इंटरव्यू में दलित और आदिवासी प्रतिभागियों को पक्षपात ङोलना पड़ता है। इक्कसवी सदी की वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था में यह पिछड़ी सोच का एक अद्वितीय उदाहरण है। देश की लगभग 30 प्रतिशत आबादी को दरकिनार कर भारत एक सशक्त राष्ट्र कभी नहीं बन सकता। समय आ गया है कि हम जातिगत पहचान से परे अपनी राष्ट्रीय पहचान को वरीयता दें। आपसी द्वेष और भेदभाव से देश कभी शक्तिशाली नहीं बन सकता।

क्या हम यूं ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, यादव, दलित आदि बने रहना चाहते हैं या एक भारतीय बनकर देश के लिए अपना समग्र दांव पर लगाने को तैयार हैं। इटली के एकीकरण के बाद मासिमो दग्जेलिओ ने कहा था कि हमने इटली तो बना लिया अब हमें इटैलियन बनाने हैं। इतिहास गवाह है कि इटली कैसे एक शक्तिशाली राष्ट्र बन खड़ा हुआ। 1947 में हमने भारत तो बना लिया पर भारतीय आज तक नहीं बना पाए। कितनी शर्म कि बात है कि आज भी अंतर्जातीय विवाह पर ‘ऑनर किलिंग’ होती है, जातियों के नाम पर वोट दिए जाते हैं, दलितों को पीटा जाता है और उनके साथ एक थाली में खाने से हिचकते हैं। परन्तु सपना देखते हैं विश्व शक्तिबनने का। 1980 के दशक तक लगभग हर पैमाने पर चीन हमसे या तो पीछे था या साथ खड़ा था, लेकिन आज वह हमसे कोसो आगे निकल चुका है। इसके पीछे चीन की एकता, राष्ट्रीय भावना और नागरिकों का सम्मलित श्रम है। भारत में समाज के ढांचे को समतामूलक बनाए जाने की दरकार है।

(लेखक जीएसटी अधिकारी हैं और ये उनके निजी विचार हैं)

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