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पीएम मोदी ने बेहिचक फलस्तीन और इजरायल से रिश्तों को दिए नए आयाम

भारत की नीति हमेशा से एक स्वतंत्र-संप्रभु फलस्तीनी राष्ट्र के पक्ष में रही है। जब फलस्तीनी मुक्ति संगठन एक लड़ाकू संगठन था तब भी भारत ने उसे मान्यता दी एवं उसके कार्यालय भारत में खुले।

By Kamal VermaEdited By: Published: Tue, 13 Feb 2018 10:22 AM (IST)Updated: Tue, 13 Feb 2018 10:22 AM (IST)
पीएम मोदी ने बेहिचक फलस्तीन और इजरायल से रिश्तों  को दिए नए आयाम
पीएम मोदी ने बेहिचक फलस्तीन और इजरायल से रिश्तों को दिए नए आयाम

नई दिल्ली [अवधेश कुमार]। भारत की नीति एक स्वतंत्र और संप्रभु फलस्तीनी राष्ट्र के पक्ष में रही है। जब फलस्तीनी मुक्ति संगठन एक लड़ाकू संगठन था तब भी भारत ने उसे मान्यता दी एवं उसके कार्यालय भारत में खुले। इसके नेता के तौर पर यासिर अराफात का भारत ने हमेशा एक शासक की तरह स्वागत किया। बावजूद इसके किसी प्रधानमंत्री ने फलस्तीन का दौरा नहीं किया। फलस्तीन की तरह ही उसके मुख्य प्रतिद्वंद्वी इजरायल को भी भारत ने मान्यता दी, उसके साथ 1992 में पूर्ण राजनयिक संबंध भी स्थापित कर लिया, लेकिन कोई प्रधानमंत्री वहां नहीं गया। ये दोनों काम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरा किया। हालांकि मोदी ने 4 से 6 जुलाई 2017 के बीच अपने इजरायल दौरे को वहीं तक सीमित रखा था। संतुलन बनाने के लिए उन्होंने उसके साथ फलस्तीन को नहीं जोड़ा। इजरायल हमारे लिए सुरक्षा सहित कृषि विकास आदि कई मामलों में जिस तरह सहायक हो रहा है उसे देखते हुए उसके साथ विशेष रिश्ते रखना देशहित में है।

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मोदी ने तोड़ दी हिचक 

इसे मानते हुए भी भारत में एक हिचक थी जिसे मोदी ने तोड़ दिया। किंतु इसका यह अर्थ नहीं था कि भारत ने फलस्तीन के साथ संबंधों के लिए इजरायल के साथ रिश्तों की बलि चढ़ा दी। जब अमेरिका द्वारा यरुशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता दी गई तो भारत उसके साथ नहीं गया। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इसके खिलाफ मतदान किया। इस विषय पर भारत में भी एक राय नहीं थी। एक पक्ष का मानना था कि भारत यदि अमेरिका के साथ नहीं जाता तो उसे मतदान से बाहर रहना चाहिए था। शायद भारतीय नीति-निर्माता फलस्तीन एवं अरब देशों को एक साथ संदेश देना चाहते थे कि इजरायल के साथ दोस्ती और साझेदारी को गलत संदर्भ में न देखा जाए।

अरब देशों से संबंधों पर असर नहीं

भारत की इस नीति का परिणाम है कि अरब देशों से इसके संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ा। मोदी की फलस्तीन यात्रा इस मायने में ऐतिहासिक तो थी ही कि वे वहां जाने वाले पहले प्रधानमंत्री बने। फलस्तीन की भूमि से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह घोषणा काफी महत्वपूर्ण थी कि यह जल्द ही एक स्वतंत्र और संप्रभु देश बनेगा। हालांकि इस यात्रा के दौरान जो समझौते हुए वे देखने से ज्यादा आकर्षक नहीं लगेंगे। इसके पूर्व मई 2017 में जब फलस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास भारत दौरे पर आए थे तो दोनों के बीच पांच समझौते हुए थे। मोदी की यात्रा के दौरान दोनों पक्षों ने करीब पांच करोड़ डॉलर मूल्य के छह समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए। इनमें तीन करोड़ डॉलर की लागत से बीट साहूर में एक अस्पताल की स्थापना और 50 लाख डॉलर की लागत से महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए एक केंद्र का निर्माण करना शामिल है।

समझौते पर हस्ताक्षर 

शिक्षा क्षेत्र में 50 लाख डॉलर के तीन समझौते और रामल्ला में नेशनल प्रिंटिंग प्रेस के लिए उपकरण और मशीन की खरीद के लिए भी समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। वहां बन रहे राजनयिक संस्थान भी मूलत: भारतीय सहयोग से ही पूरा हो रहा है। रामल्ला में टेक्नोलॉजी पार्क के निर्माण के लिए भी समझौता हुआ। यह संस्था युवाओं में कौशल विकास का काम करेगी। यही नहीं दोनों देशों के बीच ज्ञान-विज्ञान के आदान-प्रदान को बढ़ावा देने के लिए हर साल एक-दूसरे के यहां आने-जाने वाले छात्रों की संख्या 50 से बढ़ाकर 100 की जाएगी। फलस्तीन में हुए समझौते की तुलना इजरायल से हुए समझौते एवं उसके साथ सहयोग के पहलुओं से नहीं की जानी चाहिए। इजरायल आज एक विकसित सुदृढ़ राष्ट्र के रूप में खड़ा है। फलस्तीन को राष्ट्र बनना है।

जल्द ही एक संप्रभु राष्ट्र बनेगा फलस्तीन 

इस समय मूल बात थी, फलस्तीन के लोगों की राष्ट्र की आकांक्षाओं के संदर्भ में भारत का मत। प्रधानमंत्री मोदी ने संयुक्त बयान में कहा कि फलस्तीन शांतिपूर्ण तरीके से जल्द ही एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र बनेगा। वार्ता के जरिये यहां हिंसा खत्म होनी चाहिए तथा शांति का मार्ग निकलना चाहिए। यह इजरायल एवं फलस्तीन को तो संदेश था ही जो देश इनके बीच तनाव और हिंसा बनाए रखना चाहते हैं उनके लिए भी साफ संकेत था कि भारत क्या चाहता है। और यही रास्ता भी है। आखिर लड़ाई की एक सीमा होती है। कोई दो समुदाय कब तक लड़ते रहेंगे। कहीं न कहीं तो इसका अंत होना चाहिए। भारत की यही नीति है। आज दोनों देशों के साथ अच्छे संबंधों के कारण संभव है भविष्य में भारत ही दोनों के बीच समझौते का सूत्र बन जाए।

फलस्तीन को मान्यता देने वाले पहले देशों में शामिल भारत 

15 नवंबर, 1988 को स्वतंत्रता की घोषणा के बाद फलस्तीन को मान्यता देने वाले पहले देशों में भारत शामिल था। भारत और फलस्तीन मुक्ति संगठन (पीएलओ) के बीच संबंध 1974 में ही कायम हो गए थे। पीएलओ ने 1975 में भारत में अपना कार्यालय खोला और दोनों देशों के बीच 1980 में राजनयिक रिश्ते स्थापित हो गए। भारत ने 1996 में फलस्तीनी नेशनल अथॉरिटी में अपना कार्यालय खोला। यही नहीं जब फलस्तीन 2012 में संयुक्त राष्ट्र का नॉन-मेंबर स्टेट यानी गैर सदस्य देश बना तो भारत ने पक्ष में वोट दिया। भारत ने संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय पर फलस्तीनी ध्वज का भी समर्थन किया।1फलस्तीन के राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विदेशियों को दिया जाने वाला सबसे बड़ा सम्मान ग्रैंड कॉलर से नवाज कर संबंधों को सशक्त करने की कोशिश की है।

मोदी को बताया विश्व नेता 

अब्बास ने कहा कि भारत और फलस्तीन के रिश्तों की बेहतरी के लिए मोदी द्वारा उठाए गए कदमों के लिए यह सम्मान दिया गया है। फलस्तीन के प्रधानमंत्री डॉ. रामी हमदल्लाह ने नरेंद्र मोदी को विश्व नेता बताते हुए कहा कि पश्चिम एशिया के नेताओं के बीच अपने अच्छे संबंधों के बल पर इजरायल के साथ उनका झगड़ा खत्म करने में वह महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उन्होंने कहा कि फलस्तीनी लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार और स्वाधीनता का आदर करते हुए शांति प्रक्रिया शुरू करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने की जरूरत है। भारत इसमें भूमिका निभा सकता है। तो यह है फलस्तीन की भारत से उम्मीद। देखना होगा हम इसमें कितना कर पाते हैं। किंतु इस ऐतिहासिक यात्र से यदि ऐसी उम्मीद बनी है तो इसका मतलब है भारत की पश्चिम एशिया में भूमिका बढ़ने वाली है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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