बिगड़ चुकी है पर्यावरण की सेहत, अब तो सामने खड़ी है मौत
दिल्ली की हवा जहरीली होती जा रही है और इसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव बच्चों की सेहत पर पड़ रहा है
ज्ञानेंद्र रावत
दिल्ली और इसके आसपास का इलाका ‘गैस चेंबर’ में तब्दील हो चुका है। यह शहर एयरलॉक की गिरफ्त में है यानी वातावरण में हवा नहीं है और कोहरा धुंध बनकर जहर बन चुका है। स्थिति इतनी नाजुक हो गई है कि स्कूलों में छुट्टियां कर दी गई हैं और लोगों से कोई खास जरूरत न हो तो ज्यादातर समय घर में रहने की सलाह दी जा रही है। विशेषज्ञों ने इसे ‘स्वास्थ्य का आपातकाल’ कहना शुरू कर दिया है। हवा में बढ़ता प्रदूषण जानलेवा होता जा रहा है और हम धीरे धीरे मौत के मुंह में जा रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य गैर सरकारी शोध-अध्ययनों ने इसकी पुष्टि की है।
अमेरिकी संस्था हेल्थ इम्पैक्ट इंस्टीट्यूट के अनुसार समूची दुनिया में हर साल वायु प्रदूषण के कारण तकरीबन 42 लाख से ज्यादा लोग समय पूर्व दम तोड़ देते हैं। इनमें अकेले भारत में होने वाली मौतों की संख्या 11 लाख से ज्यादा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया भर में हर साल पांच साल से कम उम्र के 17 लाख बच्चों की मौत होती है। इसका सबसे बड़ा कारण घर और बाहर व्याप्त प्रदूषण और प्रदूषित पानी है। असल में, दुनिया में हर चौथे बच्चे की मौत का कारण प्रदूषण है। प्रदूषित वातावरण बेहद घातक होता है। खासकर छोटे बच्चों के लिए यह जानलेवा है। बच्चों के विकसित होते अंग और कम प्रतिरोधक क्षमता के कारण उन्हें गंदी हवा में सांस लेना पड़ता है। इसमें प्रदूषित पानी से जोखिम और ज्यादा बढ़ जाता है। नतीजतन इससे बच्चों की मौत के साथ उनमें लंबे समय तक रहने वाली बीमारियों की दर तेजी से बढ़ती जा रही है। इसका दुष्परिणाम है कि 5.7 लाख बच्चे हर साल निमोनिया जैसे सांस की बीमारी से 3.6 लाख बच्चे, दूषित पानी का सेवन करने से डायरिया के कारण, 2.7 लाख बच्चे, साफ-सफाई की कमी के चलते और 2 लाख बच्चे मच्छरजनित बीमारियों के कारण मौत के मुंह में चले जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन को दुनिया के देशों से कहना पड़ा है कि वह अपने यहां बच्चों के रहने लायक माहौल बनाएं।
हवा में प्रदूषण का खतरा केवल सड़कों तक ही सीमित नहीं रह गया है, वह अब घरों के अंदर तक घुस गया है। घरों में घटता खुलापन और भौतिक सुख संसाधनों के चलते पनप रहा अंदरूनी प्रदूषण भी हमें बीमार बना रहा है। ब्रिटिश वैज्ञानिकों के अध्ययन से यह साफ हो गया है। ब्रिटेन में बाहरी वायु प्रदूषण से हर साल 40 हजार और अमेरिका में दो लाख लोग असमय मौत के मुंह में चले जाते हैं। घरों में कम होते खुलेपन और अधिक समय तक उसी माहौल यानी प्रदूषित वायु के संपर्क में रहने की वजह से लोगों की सेहत पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। घरों की सफाई के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले रासायनिक उत्पादों का चलन तेजी से बढ़ रहा है। यह सब सांस की बीमारियों के साथ आंखों में जलन का कारण भी बन रहा है। अक्सर लोग घरों के प्रदूषण को अनदेखा करते हैं जबकि हकीकत यह है कि यह सबसे अधिक गंभीर रूप से प्रभावित करता है। लगभग 46 फीसद घरों में नमी और फफूद किसी न किसी रूप में मौजूद है। इससे धूल के कणों को घरों में जमने का मौका मिलता है। इन चीजों से अस्थमा, फेफड़े के रोगों तथा सांस की बीमारी की आशंका बढ़ जाती है। भारत में हर साल घरों में होने वाले प्रदूषण की चपेट में तकरीब 43 लाख लोग आते हैं।
लैंसेट पत्रिका की ‘दि लांसेट काउंटडाउन: ट्रैकिंग प्रोग्रेस ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज’ रिपोर्ट बताती है कि भारत में 2015 में घरों के अंदर प्रदूषण से 1.24 लाख लोगों की मौत हुई। 5.24 की मौत अल्ट्राफाइन पार्टिकुलेट मैटर यानी पीएम 2.5 की हवा में उपस्थिति से हुई। 88,091 लोगों की मौतें वाहनों से निकलने वाले धुंए से हुई। 80,368 लोगों की मौतें कोयला आधारित बिजली संयत्रों से हुई। 25 लाख तो केवल प्रदूषण के कारण मौत के मुंह में चले गए। दुनिया में अकेले 2015 में जानलेवा प्रदूषण से 90 लाख, 18 लाख प्रदूषित पानी पीने से, 65 लाख लोगों की खराब हवा के कारण मौतें हुईं। 92 फीसद मौतें कम और मध्यम आय वर्ग वाले देशों में हुईं। प्रदूषण से होने वाली मौतों के चलते 4.6 खरब डॉलर का नुकसान हर साल होता है। इससे अर्थव्यवस्था का 6.2 फीसद हिस्सा हर साल बर्बाद होता है। हालात की भयावहता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि 2010 में भारत में प्रदूषण से 10 लाख शिशुओं का जन्म समय से पहले हुआ। यह संख्या दुनिया में सर्वाधिक और चीन से दोगुनी है।
द स्टॉकहोम इन्वायरमेंट इंस्टीट्यूट एट द यूनीवर्सिटी ऑफ यॉक के अध्ययन के मुताबिक 2010 में दुनिया में वायु प्रदूषण के कारण समय से पूर्व जन्मे शिुशुओं के 27 लाख मामले सामने आए। इसमें कहा गया कि एक गर्भवती महिला की पहुंच इस बात पर निर्भर करती है कि वह कहां पर रहती है। जाहिर है कि भारत और चीन में रहने वाली महिला इंग्लैंड और फ्रांस के मुकाबले 10 गुणा ज्यादा प्रदूषित हवा में सांस लेगी। अध्ययन के अनुसार ऐसे सभी जन्मों के 18 फीसद मामले फाइन पार्टिकुलेट मैटर के संपर्क में आने से जुड़े हुए हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन की प्रोफेसर मार्था बिलिंग्स का शोध साबित करता है कि जहरीली हवा हमारी नींद में खलल डाल रही है। नाइट्रोजन डाईऑक्साइड और पीएम 2.5 के बीच बिताए गए समय का सीधा असर हमारी नींद पर पड़ता है। प्रदूषित हवा के चलते नाक, साइनस, गले के अंदरूनी हिस्सों में उत्तेजना, सांस लेने में दिक्कत हो सकती है। इससे नींद में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। असलियत यह है कि प्रदूषक तत्व खून में मिलकर मस्तिष्क तक दुष्प्रभाव फैला सकते हैं।
भारत में प्रदूषण के मामले में सबसे बुरी स्थिति दिल्ली की है। धुंध से लोगों का जीना दूभर हो गया है। दिल्ली एनसीआर के लोगों की उम्र छह साल कम हो गई है। दिल्ली उच्च न्यायालय तक को इसके लिए जिम्मेवार अधिकारियों पर कार्रवाई के निर्देश देने पड़े हैं। स्थिति से निपटने के लिए अब जल्द ठोस कदम उठाने की दरकार है। अध्ययन बताते हैं कि यदि दिल्ली की हवा शुद्ध हो जाए तो यहां रहने-बसने वाले लोगों की उम्र में औसतन नौ साल का इजाफा हो सकता है, लेकिन ऐसा हो पाएगा, इसमें संदेह है।
(लेखक राष्ट्रीय पर्यावरण सुरक्षा समिति के अध्यक्ष हैं)