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इस मामले में भारत का कर्जदार है समूचा यूरोप, यूं ही नहीं कहते विश्व गुरु

शोध में पता चला कि राखीगढ़ी में मिले ये कंकाल उन प्रजातियों के पूर्वजों के हैं जो इंडो-यूरोपियन भाषा परिवार की भाषाओं के वक्ता हैं

By Digpal SinghEdited By: Published: Thu, 04 Jan 2018 02:41 PM (IST)Updated: Thu, 04 Jan 2018 05:01 PM (IST)
इस मामले में भारत का कर्जदार है समूचा यूरोप, यूं ही नहीं कहते विश्व गुरु
इस मामले में भारत का कर्जदार है समूचा यूरोप, यूं ही नहीं कहते विश्व गुरु

मऊ, [शैलेश अस्थाना]। आनुवंशिक विज्ञान एक ऐसे प्रश्न का उत्तर देने वाला है जो एक सदी से संपूर्ण विश्व के वैज्ञानिकों और भाषाविदों के बीच बहस का कारण बना हुआ था। शीघ्र ही यह बात पूरी तरह से पूरी दुनिया के सामने आने वाली है कि इंडो-यूरोपियन भाषा परिवार का विस्तार भारत से ही हुआ था। लगभग एक वर्ष पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता के स्थानों पर हुई नवीनतम खुदाई के बाद मिले अवशेषों की डीएनए जांच के बाद इस रहस्य पर से पर्दा उठने लगा है कि इस भाषा परिवार के वक्ताओं का मूल निवास स्थान भारत था और यहीं से उनका संपूर्ण विश्व में प्रसार हुआ।

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डॉ. नीरज राय

यह सब संभव हुआ है मऊ जिले के थलईपुर गांव निवासी बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट लखनऊ के युवा वैज्ञानिक डॉ. नीरज राय के नेतृत्व में लगी अंतरराष्ट्रीय डीएनए वैज्ञानिकों की टीम के शोध से। शीघ्र ही इन परीक्षणों में मिले तथ्य अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित होने वाले हैं।

ऐसी है मान्यता

आयरलैंड और यूके से लेकर इटली, फ्रांस, जर्मनी, पोलैंड, रूस, ईरान और उत्तरी भारत तक, यूरेशियन भूमि के विशाल हिस्से में भारत-यूरोपीय भाषा बोली जाती है। इस भाषा के संबंध में अभी तक के सर्वमान्य तथ्य यही थे कि यह भाषा प्रोटो-इंडो-यूरोपियन या प्राचीन भाषा जिसमें से अन्य सभी इंडो-यूरोपियन भाषाएं उठीं, मध्य एशिया में पोंटिक स्टेप्स के पास से आरंभ हुई थी। वहां के निवासी सबसे पहले से घोड़े की सवारी, रथ-ड्राइविंग पेथेरलिस्ट्स में माहिर थे। उन्होंने कांस्य प्रौद्योगिकी पर सबसे पहले स्वामित्व हासिल कर लिया था। 

शोध से आएगा इतिहास में बड़ा बदलाव

इन नई प्रथाओं और तकनीक को उन लाभों के साथ लगभग 3,000 ईसा पूर्व और दक्षिण एशिया के करीब 2,000 ईसा पूर्व के आसपास यूरोप में फैलना शुरू कर चुके थे। उनके साथ उनकी भाषा और संस्कृति का भी प्रसार हुआ। लेकिन डॉ. नीरज राय के नेतृत्व में हरियाणा के हिसार, राखीगढ़ी आदि इलाकों में लगी अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की टीम ने आनुवंशिक शोधों के आधार पर इस तथ्य को झुठला दिया है। अंतरराष्ट्रीय जर्नलों में प्रकाशित होने वाला शोध सामने आते ही पूरे विश्व में चर्चा, बहस और मंथन का नया दौर तो शुरू होगा ही मानव सभ्यता के वैश्विक इतिहास में बहुत बड़ा परिवर्तन हो जाएगा।

कैसे हुआ शोध

डॉ. राय बताते हैं कि डेक्कन कॉलेज, पुणे के कुलपति प्रोफेसर वसंत शिंदे ने हड़प्पा और अन्य स्थलों पर खुदाई का नेतृत्व किया है। इस दिशा में चल रहे शोधों के क्रम में उनकी अगुआई में पुरातत्वविदों की एक टीम ने सिंधु घाटी की सभ्यता में मिले सबसे महत्वपूर्ण शहर हरियाणा के हिसार में पड़ने वाले राखीगढ़ी साइट की खुदाई की। वर्ष 2014 की शुरुआत में उन्हें चार कंकाल मिले। इन कंकालों के डीएनए परीक्षण के लिए उन्होंने तब सीसीएमबी हैदराबाद और अब बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट लखनऊ के युवा वैज्ञानिक डॉ. नीरज राय की टीम को लगाया।

डॉ. राय की टीम में देश-विदेश के अन्य वैज्ञानिकों ने मिलकर जो शोध हासिल किया, उससे पता चला कि राखीगढ़ी में मिले ये कंकाल उन प्रजातियों के पूर्वजों के हैं जो इंडो-यूरोपियन भाषा परिवार की भाषाओं के वक्ता हैं और दुनिया में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ प्रजाति के रूप में घोषित करने का दावा करते रहे हैं। इन कंकालों के डीएनए उत्तर भारतीय ब्राह्मणों के डीएनए से काफी मैच करते हैं। 61 वर्षीय शिंदे के लिए, यह परियोजना पुरातत्व के एक लंबे और प्रतिष्ठित कैरियर की परिणति है। इस शोध के लगभग सारे परिणाम सामने आ चुके हैं। शीघ्र ही उनके प्रकाशन के बाद आर्य जातियों के आगमन, आक्रमण और प्रसार संबंधी विवादों पर भी विराम मिलने की संभावना है।

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नीचे दी गई तस्वीर पर क्लिक करके देखें दुनिया की कौन-कौन सी भाषाएं इंडो-यूरोपीयन भाषा परिवार का हिस्सा हैं।

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