उच्च शिक्षा में मनमानी पर चोट, सुप्रीम कोर्ट ने तरेरी आंख
शिक्षा के 125 संस्थानों पर सर्वोच्च न्यायालय का सवाल उठाना बताता है कि स्थिति काफी बिगड़ गई थी।
सुप्रीम कोर्ट ने गत चार नवंबर को आदेश दिया कि करीब 125 डीम्ड यूनिवर्सिटी यानी मानद विश्वविद्यालय अगले सत्र 2018-19 से यूजीसी, एआइसीटीई, डिस्टेंस एजुकेशन काउंसिल (डीईसी) आदि की अनुमति के बिना कोई पत्रचार पाठ्यक्रम नहीं चला सकेंगे। सर्वोच्च न्यायालय ने इसके साथ ही चार डीम्ड यूनिवर्सिटीज को पिछली तारीखों से मान्यता देने के कथित भ्रष्टाचार की सीबीआइ जांच का आदेश दिया है। इन चार विश्वविद्यालयों में दो राजस्थान के हैं- जेआरएन राजस्थान विद्यापीठ उदयपुर एवं इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज इन एजुकेशन, सरदार शहर। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद स्थित ‘इलाहाबाद एग्रीकल्चर इंस्टीट्यूट’ और तमिलनाडु की विनायक मिशन रिसर्च फाउंडेशन नामक डीम्ड यूनिवर्सिटी भी शामिल हैं। कोर्ट ने इन चारों के द्वारा 2001 से 2005 के बीच कॉरस्पोंडेंस कोर्स के जरिये जारी की गई इंजीनियरिंग की डिग्री को रद्द कर दिया है।
कोर्ट ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को निर्देश दिया है कि वह एक महीने में ऐसे संस्थानों के ‘यूनिवर्सिटी’ शब्द इस्तेमाल करने पर भी रोक लगाए। अब ये कथित यूनिवर्सिटी या तो सीधे अपने नाम पर चलाई जाएंगी, मसलन रामलाल सनेही शिक्षा संस्थान या फिर ये अपने नाम के साथ ‘डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी’ शब्द जोड़ेंगी। अब तक उच्च शिक्षा से मनमानी कर रहे इन कथित विश्वविद्यालयों को सुप्रीम कोर्ट की फटकार से इन्हें झटका लगा है। सरकार पहले भी चेतावनी देती रही है, लेकिन सही मायनों में यह पहला ऐसा मौका है, जब शिक्षा के नाम पर चल रहा इनका कारोबार प्रभावित होगा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की इस सख्ती से कई पूर्व छात्रों का भविष्य दांव पर लग गया है। उदाहरण के लिए राजस्थान के दोनों उपरोक्त विश्वविद्यालय की डिग्रियां रद किए जाने से करीब एक लाख पूर्व छात्र प्रभावित होंगे। वास्तव में, इस आदेश के चलते राजस्थान विद्यापीठ की ही 50 हजार से ज्यादा डिग्रियां रद होंगी। जस्टिस आदर्श गोयल और यूयू ललित की पीठ ने दूरस्थ शिक्षा के नाम पर हुए व्यावसायीकरण को लेकर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि यह शिक्षा के मानकों को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है। कोर्ट ने अपने आदेश में इन चारों विश्वविद्यालयों से 2001-05 बैच में इंजीनियरिंग करने वाले छात्रों की डिग्री निलंबित कर दी हैं। साथ ही ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन (एआइसीटीई) को निर्देश दिया है कि इस बैच के लिए 15 जनवरी 2018 से पहले परीक्षा आयोजित करें और इन्हें दो से ज्यादा मौका कतई न दें। तय समय में परीक्षा पास नहीं कर पाने वालों की डिग्री रद हो जाएगी। साथ ही डिग्री के आधार पर मिले सारे लाभ मसलन नौकरी, प्रमोशन आदि भी वापस हो जाएंगे। हालांकि इस दौरान इन्हें मिले पैसे इनसे वापस नहीं लिए जाएंगे। अगर ये छात्र परीक्षा पास कर जाते हैं तो इन्हें मिलने वाली सारी सुविधाएं इन्हें मिलनी जारी रहेंगी। अगर इस बैच के छात्र परीक्षा नहीं देना चाहते तो एक महीने के अंदर चारों डीम्ड यूनिवर्सिटीज को उनसे वसूली गई ट्यूशन फीस और बाकी खर्चे लौटाने होंगे। ऐसी स्थिति में इनकी डिग्री रद हो जाएगी और इसके आधार पर मिले सभी लाभ वापस ले लिए जाएंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में यूजीसी पर भी गंभीर सवाल उठाए हैं। कोर्ट ने कहा कि यूजीसी इस मामले को संभालने में पूरी तरह नाकाम रहा है। इससे उसके कामकाज पर सवाल खड़ा हो गया है। इसीलिए मामले की जांच सीबीआइ को सौंपी गई है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि यूजीसी का अब तक इन विश्वविद्यालयों को लेकर जो रवैया रहा है, वह सही मायनों में उच्च शिक्षा की इस दुकानदारी के लिए जिम्मेदार है, लेकिन हमें यह भी मानना पड़ेगा कि इस गुनाह की अंतिम और वास्तविक जिम्मेदारी पिछली संप्रग और राजग सरकारों की ही बनती है। करीब नौ साल पहले जनवरी 2008 में यूजीसी के तत्कालीन सचिव राजू शर्मा को तत्कालीन यूजीसी अध्यक्ष ने हटा दिया गया था। सिर्फ इसलिए की राजू शर्मा ने एक हकीकत बयान कर दिया था। उन्होंने कह दिया था, ‘यूजीसी तो डीम्ड यूनिवर्सिटी का सर्टिफिकेट कुछ इस तरह बांट रही है, जैसे किसी को ड्राइविंग लाइसेंस देने के बाद कहा जाए-जाओ ड्राइविंग सीख लेना।’ राजू शर्मा को अपनी इस साफगोई का खामियाजा पद से हाथ धोकर भुगतना पड़ा था। बिना किसी वरदहस्त के राजू शर्मा को इस तरह हटाना आसान नहीं था क्योंकि उत्तर प्रदेश कैडर के आईएएस अधिकारी राजू शर्मा यूजीसी जाने से पहले पीएमओ में थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उनके कठिन परिश्रम और ईमानदारी से बहुत प्रभावित रहते थे। बावजूद इसके अप्रैल 2008 में उन्हें यूजीसी के कामकाज पर उंगली उठाने की वजह से हटा दिया गया।
हाल के दशकों में डीम्ड यूनिवर्सिटी किस तरह नोट छापने का जरिया बनीं, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि 1956-1990 के बीच देश भर में कुल 29 डीम्ड यूनिवर्सिटी थीं जबकि 2008 तक इनकी संख्या बढ़कर 122 हो गई। अठारह साल में 93 ऐसे संस्थान खुले जिन्हें डीम्ड यूनिवर्सिटी कहा गया। अकेले 1999 से 2008 के बीच विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और मानव संसाधन विकास मंत्रलय की मेहरबानी से 95 संस्थानों को डीम्ड का दर्जा दिया मिला। इनमें से 40 राजग के शासनकाल 1991-2004 में बने, बाकी 50 मनमोहन सिंह की पहली सरकार के कार्यकाल में तैयार हुए। दरअसल कुकुरमुत्ते की तरह ये डीम्ड यूनिवर्सिटीज इसलिए उगीं क्योंकि ये काली कमाई की मशीन बन गईं। दस से बीस लाख रुपये देकर इंजीनियरिंग कोर्स में दाखिला, 25 से 50 लाख रुपये में एमबीबीएस और डेंटल कोर्स के लिए 5 से 10 लाख रुपये में सीटें खूब बेची गईं। यहां तक कि गैर प्रोफेशनल पाठ्यक्रमों में भी एक से दो लाख लिए गए। इसलिए रातोंरात डीम्ड यूनिवर्सिटीज का जाल बिछ गया। यह जाल नेताओं और मंत्रियों के बिना बुना जाना संभव ही नहीं था, इसलिए यह मानने से किसी को गुरेज नहीं करना चाहिए कि देश के भविष्य से ये डीम्ड यूनिवर्सिटीज बिना सरकारों के वरदहस्त नहीं खेल रही थीं।
लोकमित्र
(लेखक मीडिया एवं शोध संस्थान इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में वरिष्ठ संपादक हैं)