गुजरात चुनाव के परिणाम भाजपा-कांग्रेस दोनों के लिए हैं संकेत
गुजरात में मिली जीत के बाद विजय रूपाणी पर भारतीय जनता पार्टी का भरोसा नहीं करने का कोई कारण नजर नहीं आ रहा था।
नई दिल्ली [शिवानंद द्विवेदी] । गुजरात चुनाव संपन्न होने और परिणाम आने के बाद मीडिया के एक धड़े में ऐसी अटकलें थीं कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व मुख्यमंत्री पद के लिए नए नामों पर विचार कर रहा है, लेकिन विजय रूपाणी को भाजपा विधायक दल का नेता चुने जाने एवं नितिन पटेल को उपमुख्यमंत्री पद के लिए बरकरार रखने की घोषणा के बाद उन अटकलों पर विराम लग गया है। चुनाव के दौरान भाजपा ने रूपाणी एवं नितिन पटेल का नाम मुख्यमंत्री एवं उपमुख्यमंत्री पद के लिए कई बार जाहिर किया था। लिहाजा स्पष्ट बहुमत से जीत मिलने के बाद परिवर्तन अप्रत्याशित होता।
सीटें हुईं कम लेकिन जीत मामूली नहीं
गुजरात चुनाव परिणाम में भाजपा को कुछ सीटें अपेक्षा से कम जरूर मिली, लेकिन उसकी जीत को मामूली आंकना उचित नहीं होगा। जब एक 22 साल से चल रही सरकार पुन: स्पष्ट बहुमत के साथ एवं 49.1 फीसद मतदाताओं के समर्थन से चुनकर आती है तो इसे मामूली जीत के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। गुजरात की तकरीबन आधे मतदाताओं के समर्थन से मिली जीत के बाद रूपाणी पर भाजपा का भरोसा नहीं करने का कोई कारण नहीं था, क्योंकि उनके मुख्यमंत्री रहते भाजपा ने यह चुनाव जीता है। हालांकि गुजरात के चुनाव को जिस कसौटी पर कसकर भाजपा के लिए चिंताजनक बताने की कोशिश की जा रही है, वे चिंताएं भी आंकड़ों की कसौटी बहुत खरी नहीं उतरती हैं।
22 वर्षों में उत्पन्न असंतोष का डर
गुजरात में भाजपा के लिए स्वाभाविक रूप से दो मुश्किलें देखी जा रही थीं- पहला 22 वर्षो के शासन के प्रति असंतोष का डर और दूसरा डेढ़ दशक बाद नरेंद्र मोदी के बिना कोई विधानसभा चुनाव। बावजूद इसके गुजरात में भाजपा को 49.1 फीसद मतों के साथ 99 सीटों पर जीत मिली है। 2012 विधानसभा चुनाव से अगर तुलना करें तो भाजपा को अधिक वोट मिलने के बावजूद 16 सीटें कम मिली हैं,लेकिन 22 साल की सरकार चलाने के बाद अगर 49.1 फीसद वोट सरकार के पक्ष में मिले हैं तो इसे प्रो-गवर्नमेंट वोटिंग कहना गलत नहीं होगा। कहा जा रहा था कि गुजरात में कांग्रेस मजबूती से लड़ती नजर आई। अगर गौर करें तो गुजरात में जब मोदी मुख्यमंत्री हुआ करते थे, तब भी कांग्रेस लड़ाई में बहुत कमजोर नहीं नजर आती थी। अगर 2012 से तुलना करें तो कांग्रेस को 38 फीसद वोट मिला था, बेशक वह सीटों के मामले में वर्तमान स्थिति से 19 सीट पीछे रह गई थी। इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 2012 की तुलना में 3 फीसद की बढ़ोतरी हासिल हुई और वह भाजपा से लगभग 8 फीसद पीछे रह गई है। सीटों के मामले में भी भाजपा को कांग्रेस से 22 सीटें अधिक मिली हैं। इन आंकड़ों को देखने के बाद दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली ये कि इस चुनाव में मतदान सरकार के अनुकूल था और दूसरी बात ये कि भाजपा के खिलाफ जनता में जिस गुस्से अथवा असंतोष की बात कांग्रेस कर रही थी, वह परिणामों में नहीं दिखा।
भाजपा और कांग्रेस के इतर एक तीसरा पक्ष ‘नोटा’ के रूप में भी उभर कर सामने आया है। लगभग 5 लाख 51 हजार से ज्यादा लोगों ने नोटा के विकल्प को चुना है। यह संख्या कुल मतदान का 1.8 फीसद है। सवाल है आखिर नोटा का विकल्प चुनने वाले मतदाता किसके हैं? प्रथम दृष्टया ये कांग्रेस के मतदाता नहीं नजर आते हैं, जो इस बार भाजपा को वोट नहीं करने का मन बनाकर घर से निकले हों। मगर भाजपा के लिए संतोष की बात ये कही जा सकती है कि असंतोष की स्थिति में भी इन मतदाताओं ने कांग्रेस के पाले में जाना मंजूर नहीं किया। ऐसे में राहुल गांधी और कांग्रेस की नैतिक जीत की बात कहना सिवाय उदास मन को दिलासा देने के कुछ भी नहीं है।
गुजरात चुनाव और कांग्रेस
चुनाव के दौरान मीडिया रिपोर्ट्स में अकसर यह बात सामने आती थी कि पाटीदार समाज का एक बड़ा वर्ग भाजपा से नाराज है और इस बार सबक सिखाने का मन बना रहा है। कहीं ये वही वर्ग तो नहीं है जो भाजपा से नाराज तो था, लेकिन वह सबक सिखाने के नामपर कांग्रेस के साथ भी नहीं जाना चाहता था। अगर नोटा विकल्प चुनने वालों की संख्या में इजाफा का आधार यह है तो भविष्य की दृष्टि से इसे भाजपा के लिए एक राहत की बात मानी जानी चाहिए। क्योंकि गुजरात में कांग्रेस के इस दौर में भी अगर यह वर्ग भाजपा के खिलाफ कांग्रेस को नहीं चुना तो भविष्य में वह फिर भाजपा के साथ ही नजर आएगा और भाजपा इन्हें फिर संगठन के स्तर पर लगकर घर वापस ले आएगी। मगर चुनाव परिणामों में भाजपा के खिलाफ असंतोष जैसी कोई बात नहीं नजर आई है। जहां तक व्यापारी वर्ग के असंतोष का प्रश्न है तो सूरत जैसे व्यापारिक गतिविधियों वाले शहरी विधानसभाओं में भाजपा की जीत ने इस पर विराम लगा दिया है। वहीं 37 में से 25 उन सीटों पर भाजपा को जीत मिली जिन्हें हार्दिक पटेल के प्रभाव वाली सीट बताया जा रहा था। मतलब पाटीदारों को केंद्र में रखकर जिस स्तर पर माहौल तैयार करने की कोशिश की गई, वह ढाक के तीन पात साबित हुई।
अब 2019 पर नजर
भावी राजनीति में गुजरात चुनाव के परिणामों के असर का अगर मूल्यांकन करें तो भाजपा के लिए यह चुनाव गुजरात में 2019 की दृष्टि से संतोषजनक कहा जा सकता है। 2019 में जब खुद मोदी प्रधानमंत्री पद का चेहरा होंगे तब भाजपा को वर्तमान में मिले 49.1 फीसद से ज्यादा वोट मिलना स्वाभाविक है। उस दौरान तक नोटा विकल्प चुनने वालों का भी भाजपा के साथ पुन: जुड़ जाने की संभावना अधिक रहेगी,लेकिन कांग्रेस के लिए आगामी स्थिति बहुत अनुकूल नहीं रहने वाली है। गुजरात में संगठन के स्तर कांग्रेस के तीन बड़े नेता शक्ति सिंह गोहिल, अजरुन मोढ़वाडिया और सिद्धार्थ पटेल चुनाव हार चुके हैं। ऐसे में विधानसभा में कांग्रेस के पास मजबूत और अनुभवी नेतृत्व का संकट होना स्वाभाविक है। हार्दिक पटेल और कांग्रेस के टिकट से जीतकर आए अल्पेश ठाकोर के बीच सैद्धांतिक टकराव का ठीकरा भी कांग्रेस के सिर ही फूटना है। चूंकि अनामत के मुद्दे पर कांग्रेस ने ऐसा निवाला उठा लिया है, जिसे वह न निगल पाएगी और न उगल पाएगी। जहां कांग्रेस आंतरिक विरोधाभाष में घिरेगी वहीं भाजपा स्पष्ट बहुमत के साथ दोबारा जनादेश लेकर उन सवालों पर विराम लगी चुकी है, जो प्रदेश नेतृत्व को लेकर उठाए जा रहे थे।
(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं)