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अब मिनटों में हो जाएगी कैंसर की पहचान, इलाज भी होगा सस्ता और समय लगेगा कम

आने वाले दिनों में कैंसर जैसी घातक बीमारी की पहचान मिनटों में हो जाएगी। साथ ही इस जानलेवा बीमारी का इलाज कम समय और सस्ते में होगा।

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 08 Sep 2017 11:37 AM (IST)Updated: Fri, 08 Sep 2017 01:25 PM (IST)
अब मिनटों में हो जाएगी कैंसर की पहचान, इलाज भी होगा सस्ता और समय लगेगा कम
अब मिनटों में हो जाएगी कैंसर की पहचान, इलाज भी होगा सस्ता और समय लगेगा कम

पटना (सुधीर)। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) पटना ने ऐसी तकनीक विकसित की है, जिससे कैंसर जैसी घातक बीमारी की पहचान मिनटों में हो जाएगी। साथ ही इस जानलेवा बीमारी का इलाज कम समय और सस्ते में होगा। आने वाले दिनों में इस तकनीक को विकसित कर दूसरी गंभीर बीमारियों के इलाज में भी इस्तेमाल किया जा सकेगा। चिकित्सा विज्ञान के लिए यह क्रांतिकारी शोध किया है आइआइटी पटना के रसायन विज्ञान विभाग के शिक्षक प्रो. प्रलय दास और पीएचडी की छात्र सीमा सिंह ने।

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नैनो कणों के इस्तेमाल से विकसित की तकनीक

प्रो. दास और सीमा ने नैनो कणों का इस्तेमाल कर यह नई तकनीक विकसित की है। शोधार्थियों के अनुसार, कैंसर ग्रसित और सामान्य कोशिकाओं के डीएनए की संरचना में अंतर को ध्यान में रखते हुए नैनो कणों को बनाया गया है। डीएनए की क्षति को कैंसर का एक मुख्य कारण माना गया है। प्रो. दास के अनुसार क्षतिग्रस्त डीएनए कैंसर का संकेत है, जो कि कैंसर के शीघ्र निदान में सहायता कर सकता है। इसी बात को ध्यान में रखकर इस शोध को आगे बढ़ाया गया है।

कॉपर नैनोक्लस्टर और कार्बन डॉट करेंगे काम 

इस तकनीक में डीएनए को आधार बनाकर धातु कॉपर से कॉपर नैनो क्लस्टर बनाया गया है। डीएनए पर विकसित हुए ये कॉपर नैनो क्लस्टर यूवी (पराबैंगनी) लाइट के प्रकाश में लाल रंग की रोशनी प्रदर्शित करते हैं। इसी तरह कार्बन से बने कार्बन नैनो कण जिन्हें कार्बन डॉट नाम दिया गया है, वे यूवी लाइट के प्रकाश में नीला रंग प्रदर्शित करते है। शोध में यह पाया गया है कि क्षतिग्रस्त डीएनए पर कॉपर नैनो क्लस्टर सकारात्मक परिणाम नहीं देता और प्रक्रिया अधूरी रह जाती है।

डैमेज और सामान्य डीएनए में अंतर हो जाता है स्पष्ट

प्रो. दास ने कहा कि इस तकनीक के सत्यापन के लिए कार्बन डॉट को जब इस डीएनए और कॉपर के घोल में डाला गया तो यूवी लाइट में कार्बन डॉट द्वारा प्रकाशित नीले रंग की रोशनी कम हो गई, जबकि सामान्य कोशिकाओं के डीएनए में कार्बन डॉट की रोशनी में अंतर नहीं पड़ा। 1इस तकनीक में केवल यूवी लाइट से नैनो कणों की रोशनी के अंतर को खुली आंखों से देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि इस तकनीक के उपयोग से कैंसर का निदान कम समय और कम लागत में किया जा सकेगा।

अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका में मिली जगह

यह शोध इसी माह अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका ‘सेंसर्स एंड एक्टूएटर्स बी केमिकल’ में प्रकाशित हुआ है। शोधार्थियों के अनुसार इस तकनीक का उपयोग करके और भी बीमारियों का निदान किया जा सकता है, जिस पर अभी अध्ययन जारी है। प्रो. दास ने कहा कि कार्बन डॉट को आइआइटी के लैब में जरूरत के अनुसार कभी भी तैयार किया जा सकता है। विशेषज्ञ भी शोध के हुए मुरीद इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान (आइजीआइएमएस) पटना के कैंसर रोग विभाग के अध्यक्ष डॉ. राजेश कुमार सिंह ने कहा कि अभी कैंसर की शंका होने पर ऊतकों की बायोप्सी और कोशिकाओं का एफएनएसी (फाइन निडल अस्पिरेशन साइकोलॉजी) के माध्यम से जांच कराई जाती है। यह काफी जटिल तरीका है और कई दिन में संभावित परिणाम देता है। डीएनए की पहचानने की क्षमता विकसित होते ही कैंसर समेत कई बीमारियों को आसानी से पहचाना जा सकेगा।

सर्जरी के दौरान ‘पेन’ से कैंसर के टिश्यू की पहचान

अमेरिकी शोधकर्ताओं के एक दल ने कैंसर से निपटने की दिशा में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास, ऑस्टिन के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा पेन विकसित करने का दावा किया है जो सर्जरी के दौरान कैंसर संक्रमित टिश्यू या ऊत्तक का महज 10 सेकेंड में सटीक तौर पर पता लगाने में सक्षम है। मौजूदा प्रक्रिया में 30 मिनट या उससे ज्यादा का समय लगता है। साथ ही कई बार संक्रमित टिश्यू का सही-सही पता भी नहीं चल पाता है। अमेरिकी शोधकर्ताओं ने इस खास उपकरण को ‘मैसस्पेक पेन’ का नाम दिया है। संक्रमित टिश्यू की पहचान कर उसे अलग करने से जानलेवा बीमारी के दोहराव का खतरा नहीं रहता है। विशेषज्ञों ने बताया कि इससे सर्जन को ऑपरेशन के दौरान काफी मदद मिलेगी। मौजूदा प्रक्रिया से पीड़ितों में बीमारी के फिर से होने का खतरा रहता है।

ऐसे काम करता है खास पेन 

स्वस्थ और संक्रमित कोशिकाएं बेहद छोटे-छोटे मोलेक्यूल पैदा करती हैं। इन्हें मेटाबोलाइट्स कहते हैं। ये सूक्ष्म मोलेक्यूल ताकत, शारीरिक विकास और प्रजनन में सहायक होते हैं। इतना ही नहीं मेटाबोलाइट्स टॉक्सिन या विषैले पदार्थो को खत्म करने में भी मददगार होते हैं। चूंकि सामान्य व्यक्ति और कैंसर पीड़ितों में उत्पन्न होने वाले मेटाबोलाइट्स में काफी अंतर होता है, मैसस्पेक पेन इसकी तुरंत पहचान कर लेता है। जांच के बाद कंप्यूटर स्क्रीन पर स्वत: ‘सामान्य’ या ‘कैंसर’ लिखा आने लगता है। शोधकर्ताओं ने जांच के लिए स्तन, फेफड़े, थायरॉयड और ओवरी के नमूने लिए थे। इनमें सामान्य के साथ कैंसर संक्रमित टिश्यू थे।

ब्रेन कैंसर के इलाज में जीका वायरस मददगार

चूहों पर किया जा रहा प्रयोग1उपचार में जीका वायरस कितना कारगर होगा यह जानने के लिए वैज्ञानिकों ने 18 चूहों को इसका इंजेक्शन और 15 चूहों को खारे पानी का इंजेक्शन दिया। जीका वायरस का इंजेक्शन दिए गए चूहे दूसरे चूहों से दो सप्ताह ज्यादा जीवित रहे। इससे संभावना पैदा होती है कि यदि उपचार के दौरान मनुष्यों को जीका वायरस का इंजेक्शन उनके ब्रेन में दिया जाए तो ट्यूमर को पूरी तरह से खत्म किया जा सकता है।
वैज्ञानिकों को अध्ययन में मिले सकारात्मक संकेत, ग्लियोब्लास्टोमा के प्रभावी उपचार का मिल सकता है सटीक रास्ता

अजन्मे बच्चों को भारी नुकसान 

जीका वायरस जहां अजन्मे बच्चों तक के मस्तिष्क को भारी नुकसान पहुंचाने के लिए कुख्यात है, वहीं यह वायरस घातक ब्रेन कैंसर से जुड़ी कोशिकाओं को भी मार सकता है। ये वे कोशिकाएं हैं, जो मानक उपचार के प्रति सबसे अधिक प्रतिरोधी होती हैं। यह बात वैज्ञानिकों के एक शोध में सामने आई है। के नतीजे ब्रेन कैंसर (ग्लियोब्लास्टोमा) के प्रभावी उपचार का रास्ता तैयार कर सकते हैं। ब्रेन कैंसर की यह किस्म पता लगने के एक साल के भीतर जानलेवा साबित होती है।

वायरस की घातक शक्ति को मोड़ा जा सकता है

मस्तिष्क की कोशिकाओं को संक्रमित करने एवं मार डालने के लिए पहचाने जाने वाले वायरस की घातक शक्ति को मस्तिष्क में मौजूद विसंगति वाली कोशिकाओं की ओर मोड़ा जा सकता है। ऐसा कर पाने से ग्लियोब्लास्टोमा के खिलाफ लोगों की स्थितियों में सुधार लाया जा सकता है।

वर्तमान में मौजूद उपचार नहीं है स्थाई

अमेरिका में वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर माइकल एस डायमंड के मुताबिक, हमने देखा कि जीका वायरस उन ग्लियोब्लास्टोमा कोशिकाओं को मार सकता है, जो मौजूदा उपचारों की प्रतिरोधी हैं और मौत की वजह बनती हैं। वर्तमान में ग्लियोब्लास्टोमा के उपचार के लिए जोखिम भरी सर्जरी करनी पड़ती है। इस दौरान मरीज को कीमियो थेरेपी और रेडिएशन से गुजरना पड़ता है। उपचार के बाद भी ग्लियोब्लास्टोमा कोशिकाओं की कुछ संख्या रह जाती है, जो बाद में टूट कर फिर से ट्यूमर बनाने का काम करती हैं।

इसमें कारगर है जीका वायरस

उपचार के छह माह बाद ट्यूमर फिर से बनने लगता है। इस तरह अभी तक इसका स्थाई उपचार तलाशा नहीं जा सका है। वहीं, जीका वायरस इन्हीं कोशिकाओं को लक्षित कर उन्हें पूरी तरह से मार देता है। वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के मिलन जी छेडा के मुताबिक, हम उम्मीद करते हैं कि एक दिन जीका का इस्तेमाल वर्तमान थेरेपी में किया जा सकेगा, जिससे ट्यूमर को पूरी तरह से खत्म कर सकेंगे।


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