Move to Jagran APP

सिर्फ आइआइटी और आइआइएम से विकसित देश का सपना नहीं होगा साकार

केवल आइआइटी और आइआइएम की बदौलत विकसित भारत का सपना साकार नहीं हो सकता है। तमाम प्रयासों के बावजूद हालात में अभी तक खास बदलाव नहीं आए हैं।

By Lalit RaiEdited By: Published: Thu, 12 Oct 2017 10:20 AM (IST)Updated: Thu, 12 Oct 2017 10:31 AM (IST)
सिर्फ आइआइटी और आइआइएम से विकसित देश का सपना नहीं होगा साकार
सिर्फ आइआइटी और आइआइएम से विकसित देश का सपना नहीं होगा साकार

शशांक द्विवेदी

loksabha election banner

देश में उच्च शिक्षा की खराब हालत और नियामक संस्थाओं की विसंगतियों की वजह से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) और अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआइसीटीई) की जगह एकल उच्च शिक्षा नियामक लाने की सरकार की योजना अधर में लटकती दिख रही है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रलय ने इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। असल में केंद्र सरकार यूजीसी और एआइसीटीई को समाप्त कर उनकी जगह एक हायर एजुकेशन रेग्युलेटर बनाने जा रही थी जिसका नाम हायर एजुकेशन एंपावरमेंट रेग्युलेशन एजेंसी (एचईईआरए या हीरा) भी तय कर लिया गया था, लेकिन अब यह योजना अधर में लटक गई है या यह कहें कि जानबूझकर लटकाई जा रही है।

एआइसीटीई ने पहले तो बिना जांचे परखे, गुणवत्ता की चिंता किए बगैर बड़े पैमाने पर इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने के लाइसेंस दिए और बिना मांग-आपूर्ति, रोजगार का विश्लेषण किए 37 लाख सीटें कर दीं। अब जब उनमें से 27 लाख सीटें खाली रह गईं तो इनके हाथ पैर फूल गए। पिछले दिनों उच्च और तकनीकी शिक्षा की सबसे बड़ी नियामक संस्था ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन (एआइसीटीई) ने तय किया है कि जिन इंजीनियरिंग कॉलेजों में 30 प्रतिशत से कम दाखिले हो रहे हैं, उन्हें बंद किया जाएगा। फिलहाल देश भर में एआइसीटीई से संबद्ध 10,361 इंजीनियरिंग कॉलेज हैं जिनमें कुल 3,701,366 सीटें हैं। अब इनमें करीब 27 लाख सीटें खाली हैं जोकि बहुत बड़ा और भयावह आंकड़ा है। देश में उच्च शिक्षा के हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि एआइसीटीई ने तय किया है कि जिन कॉलेजों में पिछले पांच सालों में 30 फीसद से कम सीटों पर दाखिले हुए हैं, उन्हें अगले सत्र से बंद किया जाएगा।

1प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि युवाओं में प्रतिभा का विकास होना चाहिए। उन्होंने डिग्री के बजाय योग्यता को महत्व देते हुए कहा था कि छात्रों को कौशल विकास पर ध्यान देना होगा। आज देश में बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग पढ़ लिखकर निकल तो रहें है, लेकिन उनमें कौशल की कमी है। इसी वजह से लाखों इंजीनियर हर साल बेरोजगारी का दंश ङोल रहें है। उद्योग की जरूरत के हिसाब से उन्हें काम नहीं आता। एक रिपोर्ट बताती है कि हर साल देश में लाखों इंजीनियर बनते हैं, लेकिन उनमें से सिर्फ 15 प्रतिशत को ही अपने काम के अनुरूप नौकरी मिल पाती है। बाकी सभी बेरोजगारी का दंश झलने को मजबूर हैं। इसीलिए देश में इंजीनियरिंग का करियर तेजी से आकर्षण खो रहा है। राष्ट्रीय कौशल विकास निगम के अनुसार सिविल, मैकेनिकल और इलेक्टिक इंजीनियरिंग जैसे कोर सेक्टर के 92 प्रतिशत इंजीनियर और डिप्लोमाधारी रोजगार के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं। इस सर्वे ने भारत में उच्च शिक्षा की शर्मनाक तस्वीर पेश की है। स्थिति साल दर साल खराब ही होती जा रही है। देश में इस समय उच्च और तकनीकी शिक्षा बहुत बुरे दौर से गुजर रही है।

पिछले पांच साल से उच्च शिक्षा का समूचा ढांचा चरमरा रहा था, लेकिन किसी सरकार ने इसके लिए कुछ नहीं किया। अब ये पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। सवाल एआईसीटीई से ही है कि इन्होंने पहले कुछ क्यों नहीं किया? जब तकनीकी शिक्षा का आधारभूत ढांचा चरमरा रहा था तब एआइसीटीई ने कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया? आखिर इतने बड़े पैमाने पर सीट खाली रहने से और कॉलेजों के बंद होने का सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर ही तो पड़ेगा।1यह बात सही है कि उच्च और तकनीकी शिक्षा की बुनियाद 2010 से ही हिलने लगी थी और 2014 तक लगभग 10 लाख सीटें खाली थीं। तीन साल पहले मोदी सरकार आने के बाद ये उम्मीद जगी थी कि उच्च शिक्षा के लिए कुछ बेहतर होगा, लेकिन जमीन पर कुछ नहीं बदला। मतलब सिर्फ सरकार बदली, लेकिन नीतियां लगभग वही रहीं और अब हालात ऐसे हो गए हैं जिन्हें संभालना मुश्किल है। देश में उच्च शिक्षा तेजी से अपनी साख खोती जा रही है। इस सत्र में तो ऐसे हालात हो गए कि आईआईटी में भी छात्रों में रुचि कम होती दिखाई दे रही है। आइआइटी में 2017-18 सत्र के लिए 121 सीटें खाली रह गई हैं।

पिछले चार साल में आइआइटी में इतनी सीटें कभी खाली नहीं रहीं। आइआइटी के निदेशक मानते हैं कि सीटें खाली रहने का कारण छात्रों को मनपसंद विकल्प न मिलना है। स्किल इंडिया के इतने हल्ले के बावजूद देश में अकुशल लोगों की संख्या और बेरोजगारी तेजी से बढ़ी है। स्थिति यह है कि इंजीनियरिंग की जिस डिग्री को हासिल करना कभी नौकरी की गारंटी और पारिवारिक प्रतिष्ठा की बात मानी जाती थी, आज वह छात्रों और अभिभावकों के लिए एक ऐसा बोझ बनती जा रही है जिसे न तो घर पर रख सकते हैं और न ही फेंक सकते हैं। देश में यही हालत प्रबंधन के स्नातकों की है, एसोचैम का ताजा सर्वे बता रहा है कि देश के शीर्ष 20 प्रबंधन संस्थानों को छोड़ कर अन्य हजारों संस्थानों से निकले केवल 7 फीसद छात्र ही नौकरी पानें के काबिल हैं। यह आंकड़ा चिंता बढ़ाने वाला इसलिए भी है, क्योंकि स्थिति साल-दर-साल सुधरने की बजाय खराब ही होती जा रही है। 2007 में के एख सर्वे में 25 फीसद, जबकि 2012 में 21 फीसद एमबीए डिग्रीधारियों को नौकरी देने के काबिल माना गया था। नियामक संस्थाओं और केंद्र सरकार का सारा ध्यान सिर्फ कुछ सरकारी संस्थानों पर ही रहता है।

सिर्फ आइआइटी और आइआइएम की बदौलत विकसित भारत का सपना साकार नहीं हो सकता। असल में, हमने यह समझने में बहुत देर कर दी कि अकादमिक शिक्षा की तरह ही बाजार की मांग के मुताबिक उच्च गुणवत्ता वाली कौशल की शिक्षा देनी भी जरूरी है। देश में इंजीनियरिंग और प्रबंधन कॉलेज लगातार बढ़े, लेकिन उनकी गुणवत्ता नहीं बढ़ी। हमें समझना होगा कि ‘स्किल इंडिया’ के बिना ‘मेक इन इंडिया’ का सपना भी नहीं पूरा हो सकता। सरकार को अब इस दिशा में अब ठोस और समयबद्ध प्रयास करने होंगे ताकि सकारात्म नतीजे प्राप्त हो सकें।

(लेखक राजस्थान स्थित मेवाड़ यूनिवर्सिटी में डिप्टी डायरेक्टर हैं)


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.