डोकलाम विवाद में भारत की बढ़ी प्रतिष्ठा लेकिन चीन से सतर्क रहने की जरूरत
डोकलाम विवाद के कूटनीतिक समाधान के बाद निश्चिंत होकर बैठना उचित नहीं होगा। चीन के साथ भारत के अनुभव बताते हैं कि हमेशा सतर्क रहने की जरूरत है।
डॉ. गौरीशंकर राजहंस
जिस तरह भारत के दबाव के कारण डोकलाम में चीन को उस क्षेत्र से अपनी सेना हटानी पड़ी और सड़क निर्माण रोकना पड़ा, यह भारत के लिए एक बहुत बड़ी कूटनीतिक सफलता साबित हुई। चीन का विदेश मंत्रलय और उसका सरकारी समाचार पत्र ‘ग्लोबल टाइम्स’ जिस तरह भारत के खिलाफ जहर उगल रहा था और रोज रोज भारत को युद्ध की धमकी दे रहा था, उससे लगता था कि किसी भी दिन दोनों देशों के बीच युद्व शुरू हो जाएगा। चीन के प्रवक्ता ने कई बार बड़ी बेशर्मी से कहा कि भारत को 1962 की लड़ाई से सीख लेनी चाहिए। इसके जवाब में भारत के रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि चीन को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि 2017 का भारत 1962 का भारत नहीं है। भारत पहले से बहुत अधिक मजबूत हो गया है और वह चीन की किसी भी नाजायज हरकत का मुंहतोड़ जवाब देने में पूरी तरह सक्षम है।
जब हम पीछे मुड़कर 1962 के चीन के आक्रमण की बात याद करते हैं तब इस बात का भी स्मरण हो आता है कि चीन ने उस समय हमारे साथ भयानक धोखा किया था। दुर्भाग्यवश तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चीन की धूर्तता को समझ नहीं पाए। उन्होंने चीन के इतिहास को सही तरीके से पढ़ने में चूक गए। उनका यह मानना था कि भारत की तरह चीन भी पश्चिम की उपनिवेशवादी देशों का सताया और शोषित देश है। इसलिए चीन को जब आजादी मिलेगी तो वह स्वाभाविक रूप से भारत का मित्र बन जाएगा और दोनों मिलकर एशिया की समृद्धि के लिए प्रयास करेंगे। मगर चीन वर्षो से धूर्त देश रहा है। चाहे वहां पर ‘क्यू-मिन-तांग’ की सरकार रही हो या साम्यवादी सरकार। चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाउ-एन-लाई ने झूठ मूठ का दिखावा किया और भारत को विश्वास दिलाया कि वह ‘पंचशील’ के सिद्धांत को मानता है और किसी भी हालत में अपने पड़ोसी देश को धोखा नहीं देगा। मगर 1962 के युद्ध से पहले जब उसने भारत आकर ‘पंचशील’ के सिद्धांत को दोहराया उसके ठीक बाद चीन की फौज ने भारत पर चढ़ाई कर दी। भारत इसके लिए तैयार नहीं था। इस लड़ाई में भारत बुरी तरह हार गया। चीन की धोखेबाजी के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जबरदस्त धक्का लगा था और 1964 में उनकी असामयिक मृत्यु हो गई थी।
चीन सदा से धूर्त, धोखेबाज और विस्तारवादी देश रहा है। पड़ोसी देशों की जमीन हथियाने में वह जरा भी हिचक नहीं करता है। इस संदर्भ में मेरा एक निजी अनुभव है जिसे मैं पाठकों के साथ साझा करना चाहता हूं। 1990 के दशक में मैं लाओस में भारत का राजदूत था। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने मुङो एक पत्र भेजा था कि मीडिया में खबर आई है कि लाओस और चीन ने अपना सीमा विवाद सुलझा लिया है। मैं लाओस के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री से मिलकर यह पता करूं कि लाओस ने चीन के साथ इस सीमा विवाद को कैसे सुलझाया। मैं लाओस के प्रधानमंत्री से मिला। उन्होंने मुङो विदेश मंत्री से मिलने के लिए कहा। जब मैं तीन चार बार विदेश मंत्री के दफ्तर में गया तो वे टालमटोल करते रहे और एक दिन मुंह अंधेरे वे मेरे बंगले पर डरते डरते आ गए और यह देखते रहे कि कहीं कोई चीन का गुप्तचर तो उन्हें नहीं देख रहा है।
लाओस के तत्कालीन विदेश मंत्री ने डर डरकर मुझे बताया कि चीन इस क्षेत्र का सबसे मजबूत देश है और लाओस जैसा एक छोटा देश उसका मुकाबला नहीं कर सकता है। चीन और लाओस के बीच एक नदी बहती है। लाओस का कहना था कि नदी के उत्तरी भाग में दोनों देशों की सीमा है। परन्तु चीन ने जबरन नदी के दक्षिणी भाग में लाओस के अंदर 50 किलोमीटर घुसकर सीमा रेखा खींच दी और कहा कि यही दोनों देशों की सीमा होगी। इस तरह लाओस को चीन के साथ सीमा विवाद समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश कर दिया। मैंने लाओस के विदेश मंत्री को कहा कि अब मैं सारी बातें समझ गया हूं। और वे मुंह अंधेरे ही वापस लौट जाएं। क्योंकि चीनी गुप्तचर उन्हें यहां देख सकते हैं और उनका नुकसान कर सकते हैं। मैंने नरसिंहराव को पत्र के जरिये सारी बातें बता दी जिसके उत्तर में उन्होंने लिखा कि अब वे सब कुछ अच्छी तरह समझ गए हैं। कहने का अर्थ है कि चीन सदा से एक विस्तारवादी देश रहा है। वह पड़ोसी देश की जमीन हथियाने में जरा भी संकोच नहीं करता है। लाओस की तरह 1989 में चीन ने वियतनाम की जमीन हथियाने की कोशिश की। वियतनाम के बहादुर सैनिकों ने उसका मुंहतोड़ जवाब दिया। दोनों देशों के बीच जमकर युद्ध हुआ जिसमें वियतनाम ने चीन के छक्के छुड़ा दिए और उसे बुरी तरह परास्त कर दिया। तब से चीन वितयनाम को छेड़ने की हिम्मत नहीं करता है।
चीन ने शायद यह सोचा था कि भूटान एक कमजोर देश है और वह जोर जबरदस्ती कर भूटान के उस क्षेत्र को हड़प लेगा जो भारत के सिक्किम और चीनी सीमा पर है। परन्तु चीन यह भूल गया कि आज की तारीख में यह उतना आसान नहीं है। भूटान के साथ भारत की अनेक संधियां हैं जिनमें साफ कहा गया है कि यदि भूटान पर कोई बाहरी हमला होता है तो भारत उसके बचाव में तुरन्त आ जाएगा और दोनों देश मिलकर दुश्मन का मुकाबला करेंगे। 1966 में भी चीन ने भूटान में बड़े पैमाने पर घुसपैठ करने की कोशिश की थी। परन्तु तत्कालीन भारत सरकार ने अपनी फौज भेजकर चीन की फौज को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था। इस बार भी चीन ‘डोकलाम’ में सड़क बनाने से पीछे हट गया और अपनी फौज को भी धीरे धीरे हटा रहा है। वह इस कारण कि उसे अच्छी तरह पता चल गया कि आर्थिक और सामरिक दृष्टिकोण से भारत एक अत्यन्त मजबूत देश है और यदि युद्ध हुआ तो वह भारत का मुकाबला नहीं कर पाएगा। अनेक कारणों से चीन भारत से खफा है। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप के साथ भारत की दोस्ती उसको रास नहीं आ रही है। जापान चीन का पुराना दुश्मन है और उसने कहा है कि यदि चीन ने इस क्षेत्र में कोई हरकत की तो वह भारत के साथ आ जाएगा।
कहा जाता है कि 21वीं सदी एशिया की सदी होगी। परन्तु चीन चाहता है कि वह अकेला ‘एशिया का शेर’ बनकर रहे। सच यह है कि वह जितनी भी बंदर घुड़की दे, चीन भारत के साथ युद्ध करने की स्थिति में नहीं है। क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो उस हालत में वह भारत का एक विस्तृत बाजार गवां देगा जिसके कारण देखते ही देखते उसकी अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी। मानना होगा कि डोकलाम के मामले में मोदी सरकार ने जो दृढ़ रवैया अपनाया उससे भारत की प्रतिष्ठा शिखर पर पहुंच गई है।
(लेखक पूर्व राजदूत हैं)