'अफगानिस्तान मुद्दे पर अमेरिका से अलग भारत को बनानी होगी रणनीति'
अफगानिस्तान में अमेरिका अपनी विश्वसनीयता खो चुका है, इसलिए भारत को उसका अनुकरण करने के बजाय अपनी अलग नीति बनानी होगी ।
राजन झा
हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने नई अफगानिस्तान नीति की घोषणा की है। अफगानिस्तान में भारतीय भूमिका को लेकर भी अमेरिका की नई नीति में बदलाव किए गए हैं। सवाल है कि क्या वास्तव में अमेरिका की नई अफगानिस्तान नीति पूर्व से अलग है या फिर यह एक ऐसी नीति है जिसका कोई निश्चित उद्देश्य नहीं। क्या इस नई नीति से भारत को कोई राजनीतिक, आर्थिक या सामरिक फायदा हो सकता है? 16 वर्षो तक बड़े पैमाने पर सैनिकों की उपस्थिति और इतना खून-खराबे के बावजूद यदि आज भी अफगानिस्तान में आतंकवाद पनप रहा है तो यह अमेरिकी नीति की असफलता की बानगी है। बहरहाल, अमेरिका की नई अफगानिस्तान नीति में मुख्यत: दो-तीन बदलाव देखे जा सकते हैं। पहला, अमेरिका अफगानिस्तान में राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया यानी विकास कार्यो से अपने आप को अलग कर रहा है। अब अमेरिका का अफगानिस्तान में रहने का मुख्य मकसद आतंकवादियों पर कार्रवाई करना मात्र है, लेकिन क्या विकास की प्रक्रिया को पूरा किए बिना अमेरिका अफगानिस्तान में आतंकवाद मिटाने में कामयाब हो पाएगा? राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक कारणों को हल किए बिना मात्र सैनिक कार्रवाइयों से आतंकावाद का सामना करना लगभग नामुमकिन है। विकास को बिना रफ्तार दिए आतंकी गतिविधि पर काबू पाना अफगानिस्तान के लिए कठिन काम है।
दूसरा, अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सैनिकों की वापसी की कोई समय सीमा नहीं बताई है। बता दें कि इसके पूर्व में बराक ओबामा प्रशासन ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिक बुलाने की एक समय सीमा तय की थी। तीसरे बदलाव के रूप में अमेरिका द्वारा भारत की अफगानिस्तान में भूमिका बढ़ाने और पाकिस्तान को आतंकवादी गतिविधि के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार बताना है। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है। नई दिल्ली और काबुल हमेशा विश्व बिरादरी से यह बताते रहे हैं कि अफगानिस्तान और भारत में आतंकवादी गतिविधि के लिए पाकिस्तान सीधे तौर पर जिम्मेदार है। मगर इससे पहले अमेरिका ने सीधे तौर पर कभी भी पाकिस्तान पर सवाल नहीं खड़े किए। इस लिहाज से यह न सिर्फ भारत और अफगानिस्तान के लिए बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के लिए कूटनीतिक जीत है। यानी अमेरिका अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को विस्तार देने को इच्छुक है, लेकिन सवाल है कि क्या भारत को भी मात्र अमेरिका की इच्छा के अनुरूप अपनी अफगान नीति में बदलाव करना चाहिए या अपने राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर एक स्वतंत्र नीति बनाने की आवश्यकता है। पिछले 16 वर्षो के दौरान अफगानिस्तानी आवाम के बीच अमेरिका की छवि एक अक्रांत शक्ति की बनी है, जो आतंकवाद के नाम पर बच्चे और मासूमों का ड्रोन से शिकार करता है। यही कारण है कि इन वर्षो में अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों पर कई हमले हुए हैं। इस प्रतिरोध को मात्र तालिबान तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता।
ऐसे हालात में यह जरूरी है कि भारत-अफगानिस्तान संबंध का आधार द्विपक्षीय हो। क्योंकि अमेरिकी नीति पर आधारित भारत की सकारात्मक प्रयास को भी अफगानिस्तान में संदेह की निगाह से देखा जा सकता है। 2001 के बाद भारत और अफगानिस्तान के संबंधों में काफी मजबूती आई है। गौरतलब है कि आंतरिक मामले में बिना कोई हस्तक्षेप किए भारत ने आर्थिक मोर्चे पर अफगानिस्तान की हर संभव मदद की है। इसकी अफगानिस्तान की अवाम आज भी सराहना करती है। अफगानिस्तान को मानवीय सहायता प्रदान करते हुए भारत ने अस्पताल और अफगानी संसद के ढांचे के निर्माण समेत कई कार्य किए हैं। अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ बताते हैं कि अमेरिका की नई अफगान नीति मात्र एक डिले टैक्टिस यानी मामले को लंबा खींचने का प्रयास है ताकि उसकी असफलता पर आलोचना के स्वर को कम किया जा सके। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने की स्थिति में क्षेत्रीय शक्तियां मसलन ईरान, चीन, रूस और पाकिस्तान जैसे देश काबुल को भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक लड़ाई का अखाड़ा बना सकते हैं। ऐसे में अफगानिस्तान एक और नए संकट की चपेट में आ सकता है। मगर इन सब कयासों के बावजूद देर-सवेर ही सही, लेकिन राजनीतिक और आर्थिक कारणों से अमेरिका को अफगानिस्तान से अपने पांव खींचने ही होंगे।
भारत को इस परिस्थिति के लिए अभी से तैयार रहने की जरूरत है। भौगोलिक कारणों से हम अफगानिस्तान के साथ जमीनी संपर्क स्थापित नहीं कर सकते। पाकिस्तान हमेशा अफगानिस्तान पहुंचने के लिए अपने मार्ग का उपयोग करने को लेकर भारत को मना करता रहा है। बिना जमीनी संपर्क के न तो हम काबुल के साथ आर्थिक संबंध मजबूत करने की स्थिति में हैं और न ही मध्य एशिया में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकते हैं, जहां खनिज पदार्थो का प्रचुर भंडार है। ऐसे में भारत ने ईरान के सहयोग से चाबहार पोर्ट के जरिये अफगानिस्तान से जमीनी संपर्क साधने का सराहनीय प्रयास किया है। भारत को ईरान से सहयोग हासिल करने के न सिर्फ सामरिक और आर्थिक फायदे मिलेंगे बल्कि इसके जातीय राजनीतिक आयाम भी हैं। ईरान एक शिया मुस्लिम देश है और अफगानिस्तान के एक बड़े जातीय समूह हजारा के साथ तेहरान के सांस्कृतिक रिश्ते हैं। ईरान के साथ अपने रिश्तों को प्रगाढ़ बनाकर भारत इस संबंध का बेहतर उपयोग अफगानिस्तान में अपनी साख बढ़ाने में कर सकता है। कुल मिलाकर भारत को एक दीर्घकालिक अफगान नीति तैयार करने की दरकार है। इसके तहत भारत को किसी भी शक्ति मसलन पाकिस्तान, अमेरिका या चीन की नकल करने की जरूरत नहीं। हमें याद रखना होगा कि भारत और अफगानिस्तान के रिश्ते ऐतिहासिक रहे हैं। इस पहलू को ध्यान में रखते हुए भारत को पावर प्रतिस्पर्धा के बजाय अफगानिस्तान के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने की दरकार है।
(लेखक स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू में रिसर्च स्कॉलर हैं)