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चुना था 'कमल' अटल बिहारी वाजपेयी के साथ, मिलकर खिलाया कमल

हिन्दुत्व के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी को 2 सीटों से 182 सीटों तक पहुंचाने में लाल कृष्ण आडवाणी का महत्वपूर्ण योगदान रहा।

By Lalit RaiEdited By: Published: Wed, 08 Nov 2017 09:19 AM (IST)Updated: Mon, 13 Nov 2017 12:35 PM (IST)
चुना था 'कमल' अटल बिहारी वाजपेयी के साथ, मिलकर खिलाया कमल
चुना था 'कमल' अटल बिहारी वाजपेयी के साथ, मिलकर खिलाया कमल

नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। जब भी भारतीय जनता पार्टी के इतिहास की बात होगी देश के पूर्व उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की चर्चा के बिना वह अधूरी ही रहेगी। आडवाणी ने ना सिर्फ पार्टी के चुनाव चिन्ह की कल्पना की थी बल्कि ये बात भी कम हो लोगों को पता होगी कि आपातकाल के बाद जब केन्द्र में जनता पार्टी की संयुक्त सरकार बनी थी उस वक्त उसमें जनसंघ के प्रतिनिधि के रुप में अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल थे।आडवाणी को तभी ये बात महसूस होने लगी थी कि जनता पार्टी के कई नेताओं ने दिल से जनसंघ को स्वीकार नहीं किया था। उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी से भी अपनी आशंका जाहिर की और नई पार्टी बनाने का आग्रह किया। जाहिर तौर पर पूरी जिम्मेदारी आडवाणी पर आयी। फिर चुनाव चिह्न की बात आई और आडवाणी ने ही कमल का फूल चुना।

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कौन हैं लालकृष्ण आडवाणी
देश के सातवें उप-प्रधानमंत्री के तौर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में अपनी सेवाएं देने वाले लालकृष्ण आडवाणी वह भारतीय राजनेता हैं जिनका जन्म अविभाजित भारत के सिंध प्रांत में 8 नवंबर 1927 को कृष्णचंद डी आडवाणी और ज्ञानी देवी के घर हुआ था। 1998 से लेकर 2004 तक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार में गृहमंत्री थे। लालकृष्ण आडवाणी भारतीय जनता पार्टी के सह-संस्थापक और वरिष्ठ राजनेता है जो 10वीं और 14वीं लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता रहे। आडवाणी के राजनीतिक करियर की शुरुआत 1942 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक (आरएसएस) के वालंटियर के तौर पर हुई थी। राजनीति के शिखर पर पहुंचे लालकृष्ण आडवाणी को साल 2015 देश के दूसरे सबसे बड़े सिविलयन अवॉर्ड पदम विभूषण से सम्मानित किया गया।

जब जनसंघ अध्यक्ष के तौर पर पहली बार आडवाणी ने की कार्रवाई
1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आरएसएस के साथ मिलकर जिस राजनीतिक पार्टी भारतीय जनसंघ की स्थापना की गई थी उसमें आडवाणी सदस्य के तौर पर जुड़ गए। उन्हें राजस्थान में जनसंघ के जनरल सेक्रेटरी एस.एस. भंडारी का सचिव बनाया गया। उसके बाद वह 1957 में दिल्ली आ गए और जल्द ही जनसंघ की दिल्ली इकाई के जनरल सेक्रेटरी और बाद प्रेसिडेंट बन गए। जनसंघ में विभिन्न पदों पर काम करने के बाद लालकृष्ण आडवाणी को कानपुर सेशन के दौरान पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक में प्रेसिडेंट बनाया गया। प्रेसिडेंट के तौर पर आडवाणी ने पहली बार कार्रवाई करते हुए जनसंघ के वरिष्ठ नेता और संस्थापक सदस्य बलराज मधोक पर पार्टी हितों के खिलाफ काम करने के आरोप में कार्रवाई करते हुए उन्हें निलंबित कर दिया था।

1976 से 1982 तक गुजरात से राज्यसभा के सदस्य
आडवाणी 1976 से लेकर 1982 तक गुजरात से राज्यसभा के सदस्य रहे। इंदिरा गांधी की तरफ से देश में लगाए गए आपातकाल के बाद जनसंघ और कई अन्य विपक्षी दलों का जनता पार्टी के तौर पर उभार हुआ। आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी 1977 में लोकसभा का चुनाव लड़े और जनता पार्टी का सदस्य बने। इंदिरा गांधी की तरफ से लगाए गए आपातकाल के विरोध में खड़े हुए कई राजनेताओं और अन्य दलों के कार्यकर्ताओं ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया।

1977 में हुए चुनाव के बाद केन्द्र में कांग्रेस (ओ), स्वत्रंता पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, जनसंघ और लोकदल की मदद से सरकार बनी। आपातकाल से बौखलाए लोगों ने इंदिरा के खिलाफ वोट किया और केन्द्र में मोरारजी देसाई की सरकार बनी। इस सरकार में लालकृष्ण आडवाणी सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने जबकि आडवाणी को विदेश मंत्री बनाया गया था। हालांकि, ये सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चली। उधर, जनसंघ के सदस्यों ने जनता पार्टी को छोड़कर एक नई भारतीय जनता पार्टी का गठन किया।

आडवाणी और रथ यात्रा
हिन्दुत्व के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी को 2 सीटों से 182 सीटों तक पहुंचाने में लाल कृष्ण आडवाणी का महत्वपूर्ण योगदान रहा। वर्ष 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के बाद से 1986 तक लालकृष्ण आडवाणी पार्टी के महासचिव रहे। इसके बाद 1986 से 1991 तक पार्टी के अध्यक्ष पद का उत्तरदायित्व भी उन्होंने संभाला। इसी दौरान वर्ष 1990 में राम मंदिर आंदोलन के दौरान उन्होंने सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा निकाली। हालांकि आडवाणी को बीच में ही गिरफ़्तार कर लिया गया पर इस यात्रा के बाद आडवाणी का राजनीतिक कद और बड़ा हो गया। 1990 की रथयात्रा ने लालकृष्ण आडवाणी की लोकप्रियता को चरम पर पहुंचा दिया था। वर्ष 1992 में ढांचा विध्वंस के बाद जिन लोगों को अभियुक्त बनाया गया है उनमें आडवाणी का नाम भी शामिल है।

आडवाणी ने कभी दामन पर नहीं लगने दिया दाग
राम मंदिर आंदोलन के दौरान देश में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय नेता होने और संघ परिवार का पूरा आशीर्वाद होने के बावजूद आडवाणी ने 1995 में वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार ऐलान करके सबको हैरानी में डाल दिया था। उस वक़्त आडवाणी खुद प्रधानमंत्री बन सकते थे, लेकिन आडवाणी ने कहा कि बीजेपी में वाजपेयी से बड़ा नेता कोई नहीं हैं। पचास साल तक वे वाजपेयी के साथ नंबर दो बने रहे। पचास साल से ज़्यादा के राजनीतिक जीवन के बावजूद आडवाणी पर कोई दाग नहीं रहा और जब 1996 के चुनावों से पहले कांग्रेस के नरसिंह राव ने विपक्ष के बड़े नेताओं को हवाला कांड में फंसाने की कोशिश की थी। उस समय आडवाणी ने सबसे पहले इस्तीफ़ा देकर कहा कि वे इस मामले में बेदाग़ निकलने से पहले चुनाव नहीं लडेंगें और 1996 के चुनाव के बाद वे मामले में बरी हो गए।
  


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