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अफगानिस्तान में पुरानी गलतियां नहीं दोहराएगा भारत, आतंकवाद को तालिबानी संजीवनी से बचाने की है चुनौती

अमेरिकी व नाटो सैनिकों की वापसी के साथ-साथ अफगानिस्तान में तेजी से बदलते राजनीतिक परिदृश्य पर नजर रखने वाली सुरक्षा एजेंसियों के अधिकारियों के अनुसार सितंबर 2001 में सत्ता से बेदखल होने के 20 साल बाद एक बार फिर तालिबान काबुल में सत्तासीन होने की तैयारी कर रहा है।

By Dhyanendra Singh ChauhanEdited By: Published: Sun, 04 Jul 2021 08:30 PM (IST)Updated: Sun, 04 Jul 2021 08:43 PM (IST)
अफगानिस्तान में पुरानी गलतियां नहीं दोहराएगा भारत, आतंकवाद को तालिबानी संजीवनी से बचाने की है चुनौती
भारत और तालिबान का संबंध कई परिस्थितियों पर करेगा निर्भर

नीलू रंजन, नई दिल्ली। केंद्र सरकार ने आधिकारिक रूप से भले ही तालिबान से किसी तरह की बातचीत से इन्कार किया हो, लेकिन इतना तय है कि भारत फिर से ऐसी कोई गलती नहीं करेगा, जिसमें संपर्कहीनता और संवादहीनता रहे। दरअसल, पिछली सदी के आखिरी दशक में तालिबान के साथ किसी तरह का संपर्क नहीं होना भारत के लिए नुकसानदेह साबित हुआ था। खासतौर पर कंधार विमान अपहरण कांड के दौरान काबुल में भारत का पक्ष सुनने वाला कोई नहीं था। तालिबान सरकार पूरी तरह आइएसआइ के इशारे पर काम कर रही थी और मजबूरी में भारत को अजहर मसूद समेत तीन आतंकियों को रिहा करना पड़ा था, जिसने भारत में सबसे अधिक घातक हमले करने वाले आतंकी संगठन जैश-ए-मुहम्मद की स्थापना की थी। कश्मीर में सक्रिय आतंकी गुटों के साथ तालिबान की निकटता भारत के लिए चिंता का विषय रहा है।

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अमेरिकी व नाटो सैनिकों की वापसी के साथ-साथ अफगानिस्तान में तेजी से बदलते राजनीतिक परिदृश्य पर नजर रखने वाली सुरक्षा एजेंसियों के अधिकारियों के अनुसार सितंबर 2001 में सत्ता से बेदखल होने के 20 साल बाद एक बार फिर तालिबान काबुल में सत्तासीन होने की तैयारी कर रहा है। लेकिन पिछले दो दशक में तालिबान और भारत दोनों के लिए वैश्विक कूटनीतिक परिदृश्य बदल चुका है। ओसामा बिन लादेन की मौत और अलकायदा के कमजोर पड़ने के बाद अमेरिका समेत पश्चिमी देशों के खिलाफ जेहाद की धार कुंद हुई है। सत्ता में वापसी के बाद तालिबान का उद्देश्य सिर्फ शरीयत के अनुसार शासन करना नहीं, बल्कि अफगानिस्तान में एक स्थायी सरकार देकर विकास के रास्ते की तलाश भी होगी। जाहिर है इसके लिए उसे अफगानिस्तान के विभिन्न गुटों के साथ किसी तरह का समझौता भी करना पड़ेगा। एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि अफगानिस्तान में चाहे किसी की भी सरकार हो, उसके लिए विकास में भारत के सहयोग की अनदेखी करना मुश्किल होगा। पिछले दो दशक में अफगानिस्तान में भारत की ओर से किए गए विकास के काम इसकी मिसाल हैं।

जम्मू-कश्मीर में अंतिम सांसे गिन रहा है आंतकवाद

वहीं भारत के लिए जम्मू-कश्मीर में कभी चरम पर रहा आतंकवाद अब अंतिम सांसें गिन रहा है। अनुच्छेद 370 को निरस्त कर भारत जम्मू-कश्मीर में अपनी स्थिति मजबूत कर चुका है और इसे वहां की राजनीतिक पार्टियों के साथ-साथ पाकिस्तान भी इसे स्वीकार कर रहा है। पिछले पांच महीने से सीमा पर बंद गोलाबारी इसका प्रमाण है। वहीं एफएटीएफ के शिकंजे में फंसे पाकिस्तान के लिए पहले की तरह भारत विरोधी आतंकी संगठनों की खुलेआम फंडिंग करना मुश्किल हो रहा है और उनके खिलाफ कार्रवाई के लिए दबाव भी बढ़ता जा रहा है। फिर भी इस चुनौती से पूरी तरह इन्कार नहीं किया जा सकता है कि कश्मीर में आतंकवाद को फिर से बारूद देने की कोशिश हो सकती है। ऐसे में भारत एक बार फिर से पाकिस्तान को अफगानिस्तान में खुली छूट मिलने का खतरा उठाने की स्थिति में नहीं है।

लेकिन भारत और तालिबान का संबंध कई परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। यह देखना होगा कि काबुल में मौजूदा अशरफ गनी सरकार और तालिबान का संबंध कैसा रहता है। तालिबान नजीबुल्ला की तरह असरफ गनी सरकार को पूरी तरह उखाड़ फेंकता है या दोनों के बीच कोई तालमेल की स्थिति बनती है। इसके साथ ही अफगानिस्तान में सक्रिय विभिन्न गुटों के साथ तालिबान का संबंध भी अहम साबित होगा।


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