सदियों पुरानी है भारत की पश्चिम की ओर देखो नीति
आधुनिक संदर्भ में भारत की पश्चिम की ओर देखो नीति दशकों पुरानी है, जबकि इतिहास में देखा जाय तो यह सदियों पुरानी है।
नई दिल्ली [सुशील कुमार सिंह]। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भारत की पश्चिम की ओर देखो नीति दशकों पुरानी है, जबकि इतिहास में झांका जाय तो यह सदियों पुरानी है। इन दिनों भारत और ईरान के बीच एक नई राह बनी है जो समतल भी है और बेहतर भी। इसका यह तात्पर्य नहीं कि राह अभी-अभी बनी है, बल्कि दौर के अनुपात में इसमें मोड़ नए हैं। दोनों देशों के बीच बीते शनिवार को हुए नौ समझौतों में सब तो नए नहीं हैं, पर द्विपक्षीय दृष्टि से इन्हें सुसंगत कहा जा सकता है। आतंकवाद से मिलकर लड़ेंगे और चाबहार परियोजना के शाहिद बहेस्ती बंदरगाह के पट्टे को भारत को देने का करार तो खास ही कहा जाएगा। दोनों देशों ने जिन अन्य मुद्दों पर रजामंदी दिखाई है उसमें दोहरे कराधान एवं राजस्व चोरी से बचने, प्रत्यर्पण संधि के क्रियान्वयन, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा समेत व्यापार की बेहतरी के लिए विशेष समूह बनाने जैसी कई बातें शामिल हैं।
ईरानी राष्ट्रपति का यह संकल्प कि हम आतंकवाद और चरमपंथ से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध हैं वाकई भारत की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। प्राकृतिक गैस और पेट्रोकेमिकल क्षेत्र में सहयोग का फैसला भी अच्छा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह मानना कि हसन रूहानी की यह यात्र दोनों देशों के रिश्तों को मजबूती देगी बेशक सही है, पर पश्चिम की ओर देखो नीति में जिस तरीके से भारत विस्तार लिए हुए है और इसे निरंतरता दे रहा है उसमें केवल देश विशेष पर केंद्रित नहीं हुआ जा सकता। जाहिर है आसपास के देशों को भी ध्यान में रखना होगा। गौरतलब है कि पश्चिम एशिया के अरब देशों के बीच आपस में काफी तना-तनी है और भारत का सरोकार लगभग सभी से है। 1दरअसल भारत यह जानता है कि ईरान एक बड़ी क्षेत्रीय शक्ति है, जिसकी भौगोलिक स्थिति उसे पड़ोसी क्षेत्रों जैसे फारस की खाड़ी, पश्चिम एशिया, कॉकेशस, कैस्पियन तथा दक्षिण व मध्य एशिया में महत्वपूर्ण बनाती है।
गौरतलब है कि विश्व के प्राकृतिक गैस का 10 फीसद भंडार रखने वाला ईरान ओपेक देशों में दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक है। इसके चलते भारत और ईरान के बीच ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग के व्यापक अवसर उपलब्ध हैं। हालांकि भारत-पाकिस्तान-ईरान गैस पाइपलाइन समझौता लंबे समय तक कागजी ही रहा और अब तो नाउम्मीद के ही संकेत हैं। प्रधानमंत्री मोदी मई 2016 में ईरान की दो दिवसीय यात्र पर गए थे तब उन्होंने पाकिस्तान को दरकिनार कर अफगानिस्तान और यूरोप तक अपनी पहुंच सुनिश्चित करने वाले चाबहार समझौते पर सहमति की मोहर लगाई थी। अब इसी चाबहार के 18 माह तक संचालन करने का अधिकार भारत को मिला है। यह दोनों देशों के रिश्ते को मिसाल में बदल सकता है। हालांकि द्विपक्षीय समझौते रणनीतिक और कारोबारी दृष्टि से अहम माने जा सकते हैं। यह समझौता पाकिस्तान समेत चीन को जरूर खटकेगा। दरअसल इस समझौते के चलते भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच सीधे बंदरगाह स्थापित हो जाएंगे और इस इलाके में बढ़ते चीन और पाकिस्तान के असर कम हो जाएंगे।
चाबहार समझौता भारत को मध्य एशिया से सीधे जोड़ देगा। साथ ही रूस तक भी इसकी पहुंच आसान हो जाएगी। साल 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा चाबहार को विकसित करने को लेकर सहमति बनी थी। तब से खटाई में पड़े चाबहार समझौते को मोदी ने संजीदा बनाने की सकारात्मक कूटनीति की थी जिसका प्रतिफल इन दिनों देखा जा सकता है। इसके अलावा राष्ट्रपति हसन रूहानी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सूफीवाद की शांति एवं सहिष्णुता की साझी विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए आतंकवाद और कट्टरवाद फैलाने वालों को रोकने की प्रतिबद्धता व्यक्त की। दरअसल भारत पाक प्रायोजित आतंकवाद से त्रस्त रहा है। फिलहाल देखा जाय तो इन दिनों पाकिस्तान अपनी इन्हीं करतूतों के चलते दुनिया के निशाने पर है। प्रधानमंत्री मोदी की एक नीति यह रही है कि द्विपक्षीय मामला हो या बहुपक्षीय मंच, पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए हमेशा वे एड़ी-चोटी का जोर लगाते रहे हैं, जिसके नतीजे भी साफ दिखने लगे हैं।
पाकिस्तान के भीतर आतंक को समाप्त करने को लेकर उसे अमेरिका से लगातार धमकी मिल रही है। उसे इस बात का भी डर है कि पेरिस में जारी फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स की सालाना बैठक में उसके खिलाफ कड़े कदम उठाए जा सकते हैं। वैसे भारत-ईरान के बीच मौर्य तथा गुप्त शासकों के काल से ही ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। विश्व के सात आश्चर्यो में शामिल ताजमहल का वर्णन प्राय: भारतीय शरीर में ईरानी आत्मा के प्रवेश के रूप में किया जाता है। स्वतंत्रता के शुरुआती दिनों में दोनों देशों के बीच 15 मार्च, 1950 को एक चिरस्थाई शांति और मैत्री संधि पर हस्ताक्षर भी हुए थे। हालांकि शीत युद्ध के दौरान दोनों के बीच अच्छे संबंध नहीं थे। ऐसा ईरान का अमेरिकी गुट में शामिल होने के चलते था। इसके अलावा भी कई उतार-चढ़ाव समय के साथ रहे हैं, पर अब दोनों देशों के बीच एक सहज कूटनीति विद्यमान है।
दोनों देशों के बीच ऊर्जा, व्यापार और निवेश आदि को लेकर भी काफी कुछ मंथन हुआ है। कृषि एवं संबंधित क्षेत्र में भी समझौते हुए हैं। दो टूक यह भी है कि भारत पूरब के साथ पश्चिम की ओर भी देख रहा है। साथ ही यह दक्षिण एशिया में बड़े भाई की भूमिका में रहना चाहता है, परंतु पाकिस्तान जैसों के चलते इसके कुछ उद्देश्य पूरे नहीं हो रहे हैं। साथ ही चीन की कुदृष्टि और उसकी पाकिस्तान की पीठ थपथपाने की नीति के कारण भारत को कहीं अधिक सधी हुई कूटनीति करनी पड़ रहा है। यही कारण है कि जब भी देश की सघन और व्यापक रणनीति होती है तो दोनों पड़ोसियों को खलता है। फिलहाल ईरान के साथ मौजूदा संबंध फिर एक नए मोड़ पर है। दो साल पहले मोदी ने कहा था कि भारत और ईरान की दोस्ती उतनी ही पुरानी है जितना पुराना इतिहास। यह बात बिल्कुल सही है। साथ ही इसमें कोई दुविधा नहीं कि ईरान से गाढ़े संबंध भारत की क्षमता को बढ़ाने में सहायक होंगे।
(लेखक वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक हैं)
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