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स्वतंत्रता दिवस विशेष: आज कितनी आजाद हैं महिलाएं, सफलता की राह पर लगातार बढ़ रही हैं आगे

आज महिलाएं सफलता की राह पर आगे बढ़ रही हैं और बुलंदियां छू रही हैं क्योंकि आजाद भारत में सांस लेते हुए वे राह में आने वाली हर मुश्किल को जीत लेना चाहती हैं।

By Shashank PandeyEdited By: Published: Sat, 15 Aug 2020 02:57 PM (IST)Updated: Sat, 15 Aug 2020 03:03 PM (IST)
स्वतंत्रता दिवस विशेष: आज कितनी आजाद हैं महिलाएं, सफलता की राह पर लगातार बढ़ रही हैं आगे
स्वतंत्रता दिवस विशेष: आज कितनी आजाद हैं महिलाएं, सफलता की राह पर लगातार बढ़ रही हैं आगे

यशा माथुर। आजाद भारत की आजाद हवाओं में सांस ले रही हैं महिलाएं, अपने रास्‍ते खुद तलाश रही हैं महिलाएं लेकिन उनकी असली आजादी का अर्थ क्‍या है? क्‍या शानदार करियर बना लेना आजादी है? क्‍योंकि करियर ग्रोथ उनकी सबसे बड़ी चिंता है। तो क्‍या जिंदगी अपने हिसाब से जीना उनके लिए आजादी है? क्‍योंकि अपने अस्तित्‍व और स्‍वाभिमान से समझौता करना उन्‍हें भाता नहीं। क्‍या उन पैमानों का टूटना आजादी है जिन पर हर वक्‍त पर उन्‍हें मापा जाता है और तय किया जाता है कि कितनी खरी हैं वे? कितनी है आजादी उन्‍हें अपने फैसले लेने की? कितना है गर्व उन्‍हें अपने महिला होने पर? यह सब सवाल उनकी असली आजादी को रेखांकित करते हैं। आजादी के इतने सालों बाद आज वे खुद को कितना आजाद महसूस करती हैं यह एक बहुत बड़ा प्रश्‍न है...

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लड़की को ज्‍यादा मजबूत होना है 

अगर हम समाज की बात करें तो हम प्रोग्रेसिव हो चुके हैं लेकिन कितने ही घर-परिवार-शहर ऐसे हैं जहां बेटे-बेटी में फर्क किया जाता है। यह सच है कि आजादी बचपन से मिलनी चाहिए। जितनी पढ़ाई लड़के की हो उतनी ही लड़की की भी हो। यह बहुत जरूरी है। एक्टर व सोशल एक्टिविस्ट श्वेता पराशर कहती हैं, ‘ लड़कियों की पढ़ाई को गंभीरता से नहीं लिया जाता। आमतौर पर बारहवीं के बाद उन्‍हें पढ़ाई से रोक दिया जाता है। मुझे लगता है उन्‍हें यह अवसर मिलना ही उनके लिए आजादी है इसके बाद तो खुला आसमान सामने है फिर चाहे वह लड़की हो।

मेरे परिवार में तीन भाई बहन है लेकिन हमारे पिता ने हमें यही बताया है कि लड़का-लड़की बराबर है। हम सभी को अपना करियर चुनने की आजादी मिली है। समाज का दबाव तो होता है। घरवाले इस दबाव में आते जरूर हैं। लेकिन अगर आपको खुद पर विश्वास है ओर अगर आपको लगता है कि जो भी मैं कर रही हूं वह सही है तो आप उसके लिए समाज के विरुद्ध भी खड़ी हो सकती हैं। इसमें कोर्इ गलत बात नहीं है। हमारी संस्कृति ऐसी बन गई है कि लड़की को कहीं ज्यादा मजबूत होना होता है।‘

आजादी मिली है लेकिन हर आजादी की सीमाएं तय हैं

महिलाएं अपने मन का करें तो कोई उन्‍हें यह क्‍यों कहे कि हमने उन्‍हें यह करने दिया। क्‍या वे खुद अपने फैसले लेने में समर्थ नहीं है। इस बात पर आपत्ति जताती हुई सॉफ्टवेयर इंजीनियर खूशबू बंगा नारंग कहती हैं, ‘ मेरे दोनों परिवार बहुत अच्‍छे हैं। घर भी और ससुराल भी। मुझे आजादी भी पूरी है लेकिन हर परिवार के दिमाग में यह सेट होता है कि हमने दिया। हमने इसे यहां जाने दिया। हम ऑफि‍स जाने देते हैं। अपने रिश्‍तेदारों के सामने जींस पहनने देते हैं। हम खुले दिमाग के हैं।

अब सवाल यह है कि किसने तय किया कि वे देने वाले हैं। ऐसा कोई नियम नहीं होना चाहिए। इसमें परिवारों की गलती नहीं है। इस तरह की परंपरा बन गई है जिसे बदलने में सदियां लगेंगी। आजादी मिली हुई है लेकिन हर आजादी की सीमाएं तय हैं। आपको जो सही लग रहा है वह करें। आपको आजादी देने वाला कोई दूसरा नहीं होता, आप खुद होती हैं। आपके दिमाग में जो चल रहा है उसे करना चाहिए।‘

स्‍वच्‍छंदता आजादी कदापि नहीं 

हाल ही में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अयोध्या में श्रीराम मंदिर का भूमि पूजन किया था और वैदिक मंत्रोच्चार के बीच मंदिर निर्माण के लिए पहली शिला रखी थी तब उनके चारों और बनी फूलों की रंगोली ने सभी का ध्‍यान आकर्षित किया। इसे बनाने वाली शालिनी पांडेय राम मनोहर लोहिया अवध विश्‍वविद्यालय के फैशन डिजाइनिंग विभाग को देखती हैं। अयोध्या शोध संस्थान ने उनसे संपर्क किया और उन्‍हें राम मंदिर के गर्भ गृह में रंगोली बनाने का काम मिला। उनके विभाग की टीम के काम को काफी सराहना मिली।

आजादी के बारे में बात करते हुए शालिनी बताती हैं, ‘दो चीजें होती है एक स्‍वतंत्रता और दूसरी स्‍वच्‍छदंता। महिला को स्वतंत्र होना चाहिए स्‍वच्‍छंद नहीं। वह अपने विचारों को लोगों में डाले और परिवार व समाज के लिए प्रेरणा बने। वह घर में भी बैठ कर अपनी प्रतिभा के अनुरूप काम कर सकती है। अगर महिला शिक्षित है तो परिवार और समाज को अच्‍छी तरह से देख सकती है।

अपने फैसले खुद लिए 

एमबीबीएस डॉक्‍टर व एक्‍टर अदिति सांवल ने कहा कि मैं एक डॉक्‍टर हूं लेकिन जब मैंने तय किया कि मैं एक्टिंग करूंगी तो मैंने की। किसी के कहने पर मैंने कोई फैसला नहीं लिया। हां, परिवार के साथ बात की । आपको अपनी बात रखने का अधिकार मिले और आपकी इतनी इज्‍जत हो कि आपकी बात मानी जाए। असली आजादी अपने विचारों को मूर्त रूप देने की है। मैं हमेशा से टॉपर थी। मेरे अच्‍छे नंबर आते थे। मेडिकल की तैयारी करने कोटा गई थी। बंगलुरु के अच्‍छे कॉलेज से एमबीबीएस किया। उस दौरान मैंने थियेटर करना शुरू किया। वहीं लोगों ने मेरी बहुत सराहना की। पढ़ाई के साथ व्‍यस्‍त रहती थी तो एक्टिंग कम कर पाती थी लेकिन मुझे पहचान मिलने लगी। विज्ञापन भी मिलने लगे। फिर मुंबई में विज्ञापन की शूटिंग के लिए बुलाया जाने लगा तो मेरी एक्टिंग की पारी शुरू हो गई। मैं समझती हूं कि पढ़ाई पूरी करना बहुत जरूरी है।

मेरा कोर्स लंबा था लेकिन मैंने इंटर्नशिप के साथ अपनी डिग्री पूरी की है। मैं प्रैक्टिस कर सकती हूं लेकिन एक्टिंग में आ गई। मुझे मुंबई में कोई नहीं जानता था। परिवार में दूर-दूर तक कोई एक्‍टर नहीं है। मेडिकल की पढ़ाई के बाद पैरेंट्स चाहते थे कि मैं डॉक्‍टर का प्रोफेशन ही अपनाऊं लेकिन उन्‍होंने बोला कि तुम एक साल तक देख लो। खुद अनुभव करो। जब मैं मुंबई आई तो एड तो मिल ही रहे थे। चंद्रगुप्‍त मौर्या शो भी मिल गया। मैं समझ गई कि मैं एक्टिंग कर सकती हूं और मैंने किया। वैसे भारतीय महिला में परिवार के साथ चलने के संस्‍कार होते हैं लेकिन उसके लिए खुद को खोने की जरूरत नहीं है। आज मैं बहुत व्‍यस्‍त रहती हूं लेकिन पैरेंट्स से बात करने का समय निकालती हूं। आप को समय मैनेज करना है। लेकिन यह भी कहूंगी कि हर वक्‍त आपको ही समझौता करने की जरूरत नहीं है।

समान अवसर मिले

एक्टर व सोशल एक्टिविस्ट श्वेता पराशर ने कहा कि मेरे लिए आजादी है महिलाओं को भी वही अवसर मिले जो पुरुषों को मिलते हैं। उदाहरण के लिए मैं एक एक्टर हूं तो जितना स्क्रीन टाइम पुरुषों को मिलता है, जितना मजबूत किरदार पुरुषों को मिलता है उतना ही मुझे भी मिलना चाहिए। अगर मेरी एक्टिंग अच्छी होगी तो मुझे उसका रिजल्‍ट मिल जाएगा और अगर खराब होगी तो परिणाम खराब होगा लेकिन बात सिर्फ बराबर अवसर मिलने की है। मेरे लिए आजादी बराबर मौके मिलने की है। हम फेमिनिज्म की बात करते हैं लेकिन ऐसा लगता है कि हमें फेमिनिज्म का असली अर्थ नहीं पता। फेमिनिज्म का अर्थ यह नहीं है कि आप महिलाओं को प्राथमिकता दो बल्कि उन्‍हें समान मौके दो।

 अपनी जिंदगी के फैसले लेने का मिले हक

जेनपेक्ट की लीड कंसलटेंट और सॉफ्टवेयर इंजीनियर खूशबू बंगा नारंग ने कहा कि मुझे अपने हिसाब से सोचने और करने की आजादी हो। मुझे अपनी सीमाएं पता हों और मैं यह न सोचूं कि और कोई क्‍या सोचेगा? मैं अपनी जिंदगी का कोई फैसला किसी और को दिमाग में रख कर न लूं। मेरे अनुसार एक महिला को अपनी जिंदगी के फैसले लेने का उतना ही हक दिया जाना चाहिए जितना एक पुरुष को दिया जाता है।

अपने फैसले लेने की आजादी ही असली आजादी है। उसके फैसले समाज और परिवार से प्रभावित न हो। लेकिन एक औरत को बहुत चीजें दिमाग में रख कर फैसले लेने पड़ते हैं। बात सिर्फ करियर बनाने की नहीं है। हमारे इतिहास में रानी लक्ष्मी बाई जैसी महिलाएं अपने फैसले खुद लेती आई हैं। इसलिए ही आज भी उनके नाम को जाना जाता है। उन्होंने किसी से मंजूरी लेने का इंतजार नहीं किया और आजादी से आगे बढ़ीं।

ग्रामीण महिलाओं का आजाद होना बाकी है 

अयोध्‍या के डा. राममनोहर लोहिया अवध विश्‍वविद्यालय की फैशन डिजाइनिंग डिपार्टमेंट की शिक्षिका शालिनी पांडेय ने कहा कि गांव में अब औरतों के पास समय है। वे चक्‍की चलाने और पानी भरने जैसे कामों से आजाद हो गई हैं लेकिन वे अपने हिसाब से फैसले नहीं ले पाती हैं। नब्‍बे प्रतिशत औरतें अपना निर्णय नहीं ले पाती। गांव में कोई क्‍या कहेगा जैसे प्रश्‍नों में वे उलझ कर रह जाती हैं। अभी उनका आजाद होना बाकी है। ग्रामीण महिलाओं के मोटिवेशन के लिए परिवार, समाज और सरकार को जागरूक होना पड़ेगा। कुरीतियों को समाप्‍त करना अभी शेष है।

आज महिलाएं सफलता की राह पर आगे बढ़ रही हैं और बुलंदियां छू रही हैं क्योंकि आजाद भारत में सांस लेते हुए वे राह में आने वाली हर मुश्किल को जीत लेना चाहती हैं। अपने दमखम से अपनी काबिलियत साबित करना चाहती हैं लेकिन कुछ बातें अभी भी उन्‍हें खलती हैं और वे असली आजादी के पैमाने बयां करती हैं।


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