जागरण पाठशाला: औद्योगिक गतिविधियों का बैरोमीटर है आइआइपी
आइआइपी यानी इंडेक्स ऑफ इंडस्टि्रयल प्रोडक्शन। इसे हिन्दी में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक कहते हैं।
हरिकिशन शर्मा, नई दिल्ली। देश के कल-कारखानों में उत्पादन का क्या हाल है? एक महीने में उत्पादन घटा, बढ़ा या स्थिर रहा? यह जानने का सबसे प्रचलित तरीका आइआइपी है। सरकार, रिजर्व बैंक व उद्योग जगत आइआइपी के उतार-चढ़ाव को ध्यान में रखकर अपनी नीति-रणनीति तय करते हैं। वहीं केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) जीडीपी के तिमाही अनुमान लगाते वक्त मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का जीवीए (ग्रॉस वैल्यू एडीशन) निकालने को आइआइपी का इस्तेमाल करता है। 'जागरण पाठशाला' के तीसरे अंक में हम आइआइपी को समझने का प्रयास करेंगे।
आइआइपी यानी इंडेक्स ऑफ इंडस्टि्रयल प्रोडक्शन। इसे हिन्दी में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक कहते हैं। यह एक निश्चित अवधि में देश के कारखानों में बनी चुनिंदा वस्तुओं के उत्पादन में उतार-चढ़ाव का एक सूचक है।सीएसओ हर माह 12 तारीख को आइआइपी के आंकड़े जारी करता है। अगर किसी महीने 12 तारीख को सरकारी अवकाश है तो आइआइपी के आंकड़े उसके अगले दिन आते हैं।
ऐसे जुटाए जाते हैं आइआइपी के आंकड़े
उदाहरण के लिए सीएसओ ने गत 12 मार्च को जनवरी 2018 के लिए आइआइपी के आंकड़े जारी किए। चूंकि चयनित कारखानों से वस्तुवार मासिक उत्पादन का ब्यौरा जुटाने और उसकी गणना करने में वक्त लगता है इसलिए आइआइपी के आंकड़े छह सप्ताह बाद उपलब्ध हैं। आइआइपी के लिए आंकड़े संगठित क्षेत्र के उन्हीं कारखानों से जुटाए जाते हैं जो फैक्ट्रीज एक्ट 1948 के तहत पंजीकृत हैं। इसका मतलब यह है कि जिन कारखानों में 10 या अधिक श्रमिक काम करते हैं, सिर्फ उन्हीं के उत्पादन का हाल आइआइपी के आंकड़े बताते हैं। इसका मतलब यह है कि आइआइपी से हमें असंगठित क्षेत्र में चल रहे छोटे-मझोले उद्यमों के उत्पादन का हाल पता नहीं चलता।
दरअसल एक माह में पूरे देश में फैक्टि्रयों में बनी सभी चीजों के उत्पादन आंकड़े को जुटाकर एक इंडेक्स (सूचकांक) तैयार करना व्यवहारिक नहीं है, इसीलिए चुनिंदा वस्तुओं के उत्पादन की जानकारी लेकर आइआइपी की गणना की जाती है। चुनिंदा वस्तुओं की इस सूची को आइआपी की 'आइटम बास्केट' कहते हैं। इसे एक आधार वर्ष पर फिक्स्ड कर दिया जाता है ताकि एक महीने की दूसरे महीने से तुलना करने में आसानी रहे। वर्तमान में आइआइपी का आधार वर्ष 2011-12 है। आइआइपी बास्केट में सिर्फ उन्हीं वस्तुओं को शामिल किया जाता है जिनका राष्ट्रीय उत्पादन में अहम योगदान होता है। वर्तमान में आइआइपी के बास्केट में जो वस्तुएं शामिल हैं उनसे राष्ट्रीय उत्पादन का 80 प्रतिशत हिस्सा आता है।
आइआइपी बास्केट की वस्तुओं को दो प्रकार से किया जाता है वर्गीकृत
आइआइपी के आइटम बास्केट (वस्तुओं की सूची) को 'बेस ईयर' यानी आधार वर्ष का चुनाव करते ही फिक्स कर दिया जाता है और उसके बाद उसमें बदलाव नहीं होता। उदाहरण के लिए बेस ईयर में अगर अधिकाधिक लोग डेस्कटॉप व फिक्स्ड टेलीफोन इस्तेमाल करते थे लेकिन अब स्मार्ट फोन और लैपटॉप बाजार में आ गए हैं तो आइआइपी में सिर्फ डेस्कटॉप व फिक्स्ड टेलीफोन के उत्पादन को ही संज्ञान में लिया जाएगा। यही वजह है कि एक निश्चित अंतराल पर बेस ईयर बदला जाता है ताकि समयानुकूल उसमें बदलाव हो सके।
आइआइपी बास्केट की वस्तुओं को 'उद्योग' व 'उपभोग' के आधार पर दो प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है। उद्योग के आधार पर इन्हें तीन कैटेगरी- खनन, मैन्युफैक्चरिंग और बिजली में वर्गीकृत किया जाता है। इसमें मैन्युफैक्चरिंग का वेटेज 77.63 प्रतिशत, खनन का 14.37 प्रतिशत और बिजली का 7.99 प्रतिशत है। वर्तमान में मैन्युफैक्चरिंग कैटेगरी में 405 समूहों में कुल 809 वस्तुएं शामिल हैं। वहीं खनन श्रेणी में कोयला, कच्चा तेल और सोना सहित 29 खनिज शामिल हैं जबकि बिजली की कैटेगरी में पारंपरिक स्त्रोतों से बिजली उत्पादन के साथ-साथ नवीकरणीय ऊर्जा भी शामिल है।
इस तरह होता है वर्गीकरण
वहीं 'उपभोग' के आधार पर, आइआइपी में शामिल वस्तुओं को छह कैटेगरी- प्राइमरी गुड्स, कैपिटल गुड्स, इंटरमीडियट गुड्स, इन्फ्रास्ट्रक्चर या कंस्ट्रक्शन गुड्स, कंज्यूमर ड्यूरेबल्स, कंज्यूमर नॉन-ड्यूरेबल्स में वर्गीकृत किया जाता है। उदाहरण के लिए प्राइमरी गुड्स में खनिज, बिजली, ईंधन और खाद आते हैं जबकि कैपिटल गुड्स में बड़ी-बड़ी मशीनें आती हैं। इसीलिए कैपिटल गुड्स के उत्पादन में उतार-चढ़ाव को निवेश का बैरोमीटर भी कहा जाता है। आइआपी में अगर कैपिटल गुड्स का ग्राफ ऊपर जा रहा है तो इसका अर्थ यह है कि अर्थव्यवस्था में निवेश की स्थिति बेहतर है। इंटरमीडियट गुड्स में धागे व रसायन जैसे उत्पाद आते हैं। इसी तरह इन्फ्रास्ट्रक्चर या कंस्ट्रक्शन गुड्स में पेंट्स, सीमेंट, केबल्स, ईट और टाइलें जैसी वस्तुएं आती हैं। वहीं कंज्यूमर ड्यूरेबल्स में कपड़े, टेलीफोन, कारें, फ्रिज और टीवी जैसी वस्तुएं आती हैं जबकि कंज्यूमर नॉन ड्यूरेबल्स में खाने-पीने की चीजें, दवाएं, साबुन और शेंपू जैसी चीजें आती हैं।
इस तरह इनके उत्पादन के आंकड़ों के आधार पर आइआइपी बनता है। इसमें वृद्धि या गिरावट को जब प्रतिशत के रूप में व्यक्त करते हैं तो इसे आइआइपी की दर कहते हैं।कुछ चीजें जैसे भारी मशीनें, जिन्हें बनने में एक महीने से अधिक समय लग जाता है। ऐसे में इन वस्तुओं के मूल्य को 'वर्क इन प्रोग्रेस' के रूप में दर्ज किया जाता है। चूंकि इन चीजों के उत्पादन को अगर उसी महीने में जोड़ा जाए जब ये बनकर तैयार हुई, तो अचानक से उस महीने में उत्पादन का आंकड़ा बढ़ जाएगा। ऐसे में किसी दूसरे महीने से तुलना करने पर आंकड़ों में विसंगति आ जाएगी।