दवाओं से अधिक साझा मर्ज पर मरहम लगाती मानवता, मिसाल बने रिश्ते; बढ़ा विश्वास
अनिश्चितता का दौर है यह। मन में डर संशय सब समाया हुआ है। सबका दुख आपस में घुलमिल गया है। मुख से एक जैसी चीत्कार निकल रही है। लेकिन इसी के बीच मानवता की अद्भुत झलक देखने को भी मिल रही है।
अंशु सिंह। 30 मार्च की सुबह मंजरी और निशांत को कोविड के लक्षण आए। पति-पत्नी ने खुद को घर में ही आइसोलेट कर लिया। हां, बेटे शेखर को लेकर बेचैनी थी, सो उसे बाहर के कमरे में अकेला छोड़ दिया। दोनों काफी परेशान थे। अचानक एक दोस्त संजय का फोन आया, जिसे उन्होंने अपनी परेशानी बतायी। दोस्त का पहला सवाल था, बेटा कहां है? मंजरी ने उसे पूरी बात बतायी। दस मिनट बाद वह दोस्त उनके घर के नीचे गाड़ी लेकर खड़ा था। साथ में पत्नी और बेटा भी थे। दोनों ऊपर आये। शेखर का बैग पैक करवाया और मंजरी के मना करने के बावजूद उसे साथ अपने घर लेते गए।
बेशक संजय के घर में बुजुर्ग माता-पिता हैं। बेटा है। बावजूद इसके उन्होंने मानवता को सर्वोपरि रख जोखिम उठाया। 15-16 दिन शेखर उनके घर रहा। वहीं से ऑनलाइन क्लास अटेंड की। उन्होंने उसकी हर जरूरत का खयाल रखा, शायद अपने बेटे से ज्यादा। मंजरी बताती हैं, ‘इन दिनों सब के भीतर ऐसा डर समाया हुआ है कि अपने भी अपनों की मदद करने से कतराने लगे हैं। वैसे में जिस तरह एक दोस्त और उसके परिवार ने अपना फर्ज निभाया, मैं उनकी ऋणी हो गई हूं। आज हम दोनों कोरोना को मात देकर वापस अपने काम पर लौट चुके हैं। शुक्र यह है कि संजय के परिवार में भी सभी सकुशल हैं।‘ अमेरिकी नाटककार टेनेसी विलियम्स ने एक बार कहा था, ‘जिंदगी आधी वह है जो हम बनाते हैं और आधी वह है जो हमारे द्वारा चुने हुए दोस्त बनाते हैं।
मिसाल बने रिश्ते, बढ़ा विश्वास
कोरोना काल में रिश्तों को नया आयाम मिला है, इसमें कोई दो मत नहीं। इसकी बानगी राजेश और गजाला हैं। कोविड-19 की पहली लहर के बाद लगा था कि जिंदगी पटरी पर लौट रही है और सभी नये सामान्य (न्यू नॉर्मल) में जीने की आदत डाल रहे थे। स्कूल-कॉलेज, औद्योगिक संस्थान, दफ्तर, बाजार सभी जगह चहल-पहल शुरू हो गई थी। सहारनपुर के राजेश भी बेटे रोहन को देहरादून के बोर्डिंग स्कूल में पहुंचा आए थे। लेकिन अचानक दूसरी लहर और तीव्रता के साथ लौटी। उनके पास प्रबंधन की ओर से सूचना आयी कि स्कूल बंद कर दिए गए हैं, आप बच्चे को ले जाएं। अब मुश्किल यह थी कि राजेश और घर के बाकी सदस्य कोविड-19 से ग्रस्त थे। घर पर क्वारंटाइन में थे। कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करें?
उन्होंने गाजियाबाद में रह रही अपनी मुंहबोली बहन गजाला से अपनी परेशानी साझा की। बहन ने बिना देर किए रोहन को स्कूल से लाने का इंतजाम किया। आज वह गजाला के घर पर है। वहीं से अपनी ऑनलाइन क्लासेज करता है। फोन से अपने अभिभावकों के संपर्क में रहता है। कहती हैं गजाला, ‘अभी रमजान यानी इबादत का महीना चल रहा है, जिसमें हम रोजे रखते हैं। रोजे रखने का मतलब है कि सच्चे दिल से ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना। मैं खुशनसीब हूं कि अल्लाह ने इस काबिल बनाया है कि अपनों के काम आ सकूं। रोहन बहुत ही होनहार एवं संजीदा बच्चा है। पहली बार हमारे साथ रहने का मौका मिला है उसे। लेकिन जरा भी एहसास नहीं होता है कि यह उसका अपना घर नहीं है। वह मुझे बुआ कहता है। हम दोनों साथ में शाम के इफ्तार की तैयारी करते हैं। वह मेरी हर संभव मदद करने की कोशिश करता है। चंद दिनों में ही हमारे बीच एक खूबसूरत रिश्ता बन गया है। राजेश और पूनम भी निश्चिंत हैं कि उनका बेटा महफूज जगह पर है।‘
अनजानों की मिलीं दुआएं
नीलांश की कहानी भी दिल को छू लेने वाली है। वह घर में अकेले थे, जब कोविड ने उन्हें अपनी गिरफ्त में लिया। वह चाहकर भी अपने परिजनों, पत्नी को वापस नहीं बुला सकते थे। बड़ी बात यह भी थी कि परिजनों के अलावा उन्होंने किसी और को इसकी सूचना नहीं दी थी। हां, डॉक्टरों से संपर्क जरूर रखा था। हफ्ता गुजरने को आया था और नीलांश की मानसिक स्थिति बिगड़ रही थी। तभी अचानक एक दिन बिल्डिंग में रहने वाली मनोरमा आंटी का फोन आया। उन्होंने बिना कुछ पूछे नीलांश से कहा, ‘कल सुबह से तुम्हारे दरवाजे पर खाने-पीने का सामान पहुंच जाएगा। कुछ और जरूरत हो, तो बता देना।‘ आंटी, जो एक डॉक्टर भी थीं, ने नीलांश को कुछ और जरूरी सलाह भी दी। वह दिन था और आज का दिन है। नीलांश निराशा के भंवर में फंसने से न सिर्फ बच गये, बल्कि वह अब अन्य जरूरतमंदों की मदद के लिए तत्पर रहते हैं। वह कहते हैं, ‘हमें लगता है कि हम अकेले हैं और असहाय महसूस करने लगते हैं। लेकिन सच्चाई इसके विपरीत होती है। मन में जैसा संकल्प होगा, प्रकृति उसके अनुसार आपकी इच्छा की पूर्ति करती है। मैं मनोरमा आंटी को ठीक से जानता तक नहीं था। कभी-कभार लिफ्ट में दुआ-सलाम हो जाती थी। क्या पता था कि एक दिन उनका फोन दुआओं सरीखा कार्य करेगा।‘
नवजात बच्चे के लिए उमड़ी ममता
महामारी के दौरान हमने आम लोगों के जज्बे को देखा है कि कैसे वे अनजानों की नि:स्वार्थ सेवा कर रहे हैं। इंटनरेट मीडिया पर किसी प्रकार की मदद का पोस्ट आता नहीं कि हर ओर से लोग सक्रिय हो जाते हैं। जैसे भोपाल का ही एक मामला लें। वहां अस्पताल में एक मां ने कोविड-19 के कारण दम तोड़ दिया। आठ दिन के नवजात बच्चे को कृत्रिम दूध दिया जाने लगा, लेकिन उसकी हालत नाजुक होता देख पिता ने मदद की गुहार लगायी। कुछ ही समय में इंटरनेट मीडिया पर एक पोस्ट वायरल हुआ और स्वयंसेवियों के प्रयास से बच्चे को मां का दूध मिल सका। कोविड फ्रंटलाइन वॉलंटियर एवं समाजसेवी शिबानी घोष ने बताया कि कैसे इंटरनेट मीडिया पर घटना की सूचना साझा करते ही बच्चे के पिता के पास मांओं के फोन आने लगे। कोविड प्रोटोकॉल के कारण मांओं का अस्पताल जाना संभव नहीं था, तो वॉलंटियर्स ने उनके घर जाकर दूध का इंतजाम किया। कई तो बच्चे को अपने घर पर रखने को भी तैयार थीं जब तक कि वह मां के दूध पर निर्भर रहता है। ये घटनाएं दर्शाती हैं कि कैसे मायूसी के दौर में इंसानियत जिंदा है।
दूर बैठे अपनों की मदद
दुबई में रह रहे क्रिस्टोफर को जून 2020 में पता चला कि उनकी पत्नी के माता-पिता कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं, जो मुंबई के मीरा रोड इलाके में रहते हैं। दोनों की उम्र 55 वर्ष से ज़्यादा है। जब क्रिस्टोफर को यह खबर मिली तब वे दुबई में थे और फ्लाइट्स बंद होने के कारण मुंबई आना संभव नहीं था। उन्हें रेकी के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी थी। उन्होंने गूगल पर रेकी हीलर्स को ढूंढ़ना शुरू किया। वहां से उन्हें मुंबई के आयुष गुप्ता के बारे में पता चला। आयुष बताते हैं, ‘मैंने क्रिस्टोफ़र से बात की। वह काफी मायूस थे। उन्होंने बताया कि उनकी सास का ऑक्सीजन लेवल 90 से नीचे चला गया था और डॉक्टरों ने उन्हें तुरंत वेंटीलेटर पर रखने को कहा था। वह पूरी तरह टूट गए थे। पत्नी का रो-रोकर बुरा हाल था और वह कुछ कर नहीं पा रहे थे। मैंने उन्हें शांत एवं सकारात्मक रहने को कहा। दोनों की इस बातचीत के करीब 24 घंटे बाद क्रिस्टोफर की सास का ऑक्सीजन लेवल 90 से ऊपर आ गया। आज दोनों कोरोना को हरा चुके हैं।
इंटरनेट मीडिया निभा रहा कैटेलिस्ट की भूमिका: दुआएं फाउंडेशन के अध्यक्ष आशीष शर्मा ने बताया कि हमने फेसबुक पर ‘वॉलंटियर्स फॉर सोशल चेंज’ नाम से एक अभियान शुरू किया है, ताकि कोविड-१९ पीड़ितों एवं उनके परिजनों तक हर प्रकार की सामाजिक सहायता पहुंच सके। कोई भी इस ग्रुप को देख सकता है और इस पर पोस्ट कर सकता है। इंटरनेट मीडिया इन दिनों एक सकारात्मक कैटेलिस्ट की भूमिका निभा रहा है। हम देश के किसी भी कोने में लोगों की मदद कर पा रहे हैं। इसके अलावा, हमने कोरोना को मात देने वाले लोगों से अपील की है कि वे प्लाज्मा डोनेशन को लेकर स्वेच्छा से आगे आएं। बहुत से वॉलंटियर्स ने अपनी जिम्मेदारी निभायी है। जिंदगी का इन दिनों कोई भरोसा नहीं रहा। हर मिनट कोई न कोई संक्रमित हो रहा। इसलिए एक-दूसरे की नि:स्वार्थ मदद करने की जरूरत है। आपस में बात करने एवं सकारात्मक रहने की जरूरत है। जीवन को, अपने मन एवं शरीर को सम्मान देंगे, तो प्रकृति भी आपकी मदद करेगी।
हीलिंग करके मिलती है संतुष्टि मुंबई के रेकी हीलर: आयुष गुप्ता ने बताया कि रेकी इंसान की एनर्जी के साथ मिलकर काम करती है। यह एनर्जी भी दो तरह की होती है- सकारात्मक और नकारात्मक। रेकी की मदद से हम सकारात्मक एनर्जी को शरीर में बढ़ाने की कोशिश करते हैं जिससे इंसान की बीमारियों से लड़ने की इच्छाशक्ति बढ़ जाती है। आसान शब्दों में कहा जाए तो सकारात्मक एनर्जी शरीर में बढ़ने से इंसानी शरीर खुद-ब-खुद ठीक होने लगता है। इस मुश्किल समय में मेरी कोशिश है कि लोगों की पूरी मदद कर सकूं। पैसा तो कभी भी कमाया जा सकता है, इंसान नहीं। हमने एक गूगल फॉर्म बनाया है जहां लोग अपनी परेशानी के बारे में बता सकते हैं। कुछ घंटों बाद ही मेरी या मेरी टीम में से कोई भी उनसे संपर्क करेगा। मुझे आत्मिक संतुष्टि मिलती है, जब मेरे हीलिंग करने से कोई स्वस्थ हो जाता है।