Move to Jagran APP

‘जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झांसी की झलकारी थी’, इन्हें कहते हैं दूसरी लक्ष्मीबाई

उनकी मां के निधन के बाद पिता ने लड़कों की तरफ उनका पालन-पोषण किया था। बचपन से ही वह घुड़सवारी और हथियार चलाने में माहिर थीं। उन्होंने शादी भी एक तोपची सैनिक पूरण सिंह से की थी।

By Amit SinghEdited By: Published: Wed, 21 Nov 2018 04:28 PM (IST)Updated: Thu, 22 Nov 2018 09:14 AM (IST)
‘जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झांसी की झलकारी थी’, इन्हें कहते हैं दूसरी लक्ष्मीबाई
‘जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झांसी की झलकारी थी’, इन्हें कहते हैं दूसरी लक्ष्मीबाई

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। जब भी भारतीय वीरांगनाओं का नाम लिया जाता है, उसमें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम सबसे आगे आता है। उन्हें भारत की सबसे बड़ी वीरांगना माना जाता है, जिन्होंने अंग्रेजों का जमकर मुकाबला किया। हालांकि बहुत कम लोग ही जानते हैं कि देश में एक ऐसी भी वीरांगना रहीं हैं, जिसका नाम रानी लक्ष्मीबाई से भी पहले आता है। इस वीरांगना को भारत की दूसरी लक्ष्मीबाई भी कहा जाता है, वह दलित थीं।

loksabha election banner

इनका नाम झलकारी बाई है। 1857 की क्रांति के दौरान उन्होंने झांसी के युद्ध में भारतीय बगावत के समय महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आपको जानकर हैरानी होगी कि झलकारी बाई, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की महिला सेना में ही सैनिक थीं। उनका जन्म एक गरीब कोरी परिवार में हुआ था। वह रानी लक्ष्मीबाई की सेना में एक आम सैनिक की तरह भर्ती हुईं थीं। उनमें युद्ध के साथ ही अन्य मसलों पर भी असाधारण योग्यताओं थी, इसी के दम पर वह रानी लक्ष्मीबाई की विशेष सलाहकार बनीं। कहा जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई के महत्वपूर्ण निर्णयों में झलकारी बाई की अहम भूमिका रहती थी।

इसलिए कहा जाता है दूसरी लक्ष्मीबाई
इतिहासकारों के मुताबिक 23 मार्च 1858 को जनरल रोज ने अपनी विशाल सेना के साथ झांसी पर आक्रमण कर दिया था। ये 1857 के विद्रोह का दौर था। रानी लक्ष्मीबाई ने वीरतापूर्वक अपने 5000 सैनिकों के दल संग उस विशाल सेना का सामना किया। जल्द ही अंग्रेज सेना झाँसी में घुस गयी और लक्ष्मीबाई, झाँसी को बचाने के लिए उनका डटकर सामना कर रहीं थीं। इस दौरान झलकारीबाई ने रानी लक्ष्मीबाई के प्राणों को बचाने के लिये खुद को रानी बताते हुए लड़ने का फैसला किया। खास बात ये है कि इसी युद्ध में उनके पति शहीद हो चुके थे। बावजूद उन्होंने पति का शोक मनाने की जगह राज्य और अपनी रानी के लिए लड़ने को प्राथमिकता दी थी।

इस तरह झलकारीबाई ने पूरी अंग्रेजी सेना को अपनी तरफ आकर्षित कर लिया, ताकि दूसरी तरफ से रानी लक्ष्मीबाई सुरक्षित बाहर निकल सकें। इस तरह झलकारीबाई खुद रानी लक्ष्मीबाई बनकर लडती रहीं और जनरल रोज की सेना उनके झांसे में आकर उन पर प्रहार करने में लगी रही। काफी देर बाद उन्हें पता चला की वह रानी लक्ष्मीबाई नही हैं। झलकारी बाई की इस महानता को बुंदेलखंड में रानी लक्ष्मीबाई के बराबर सम्मान दिया जाता है। दलित के तौर पर उनकी महानता और हिम्मत ने उत्तर भारत में दलितों के जीवन पर काफी सकारात्मक प्रभाव डाला। उनकी मौत कैसे हुई थी, इतिहास में इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि ब्रिटिश सेना द्वारा झलकारी बाई को फांसी दे दी गई थी। वहीं कुछ जगहों पर जिक्र किया गया है कि वह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुई थीं। कुछ जगहों पर अंग्रेजों द्वारा झलकारीबाई को तोप से उड़ाने का जिक्र किया गया है।

लड़कों की तरह बीता था बचपन
झलकारी बाई, सदोबा सिंह और जमुना देवी की पुत्री थीं। उनका जन्म आज ही के दिन, 22 नवम्बर 1830 को झाँसी के भोजला गांव में हुआ था। उनकी मां के निधन के बाद पिता ने लड़कों की तरफ उनका पालन-पोषण किया था। बचपन से ही वह घुड़सवारी और हथियार चलाने में माहिर थीं। तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति में वह शिक्षा हासिल नहीं कर सकी थीं, लेकिन एक योद्धा के तौर पर वह युद्ध कला में काफी माहिर थीं।

तोपची से किया था विवाह
झलकारी बाई का युद्ध कला के प्रति इतना प्रेम था कि उन्होंने शादी भी एक तोपची सैनिक पूरण सिंह से की थी। पूरण सिंह भी लक्ष्मीबाई के तोपखाने की रखवाली किया करते थे। पूरण सिंह ने झलकारी बाई की मुलाकात रानी लक्ष्मीबाई से कराई थी। उनकी युद्ध कला से प्रभावित होकर रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें अपनी सेना में शामिल कर लिया था। जिस युद्ध में झलकारीबाई ने रानी लक्ष्मीबाई बनकर लड़ी थीं, उसी युद्ध में उनके पति शहीद हुए थे। बावजूद उन्होंने पति के शोक की जगह राज्य की सुरक्षा और अपने कर्तव्य को प्राथमिकता दी।

जारी हुआ है डाक टिकट
झलकारी बाई की बहादुरी और इतिहास में उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 में उनके नाम का डाक टिकट भी जारी किया था। इसमें झलकारी बाई, रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही हाथ में तलवार लिए घोड़े पर सवार दिखती हैं। उनके चित्र वाला टेलीग्राम स्टांप भी जारी किया गया था। भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने अपने पंच महल के म्यूजियम में झांसी के किले में झलकारीबाई का भी उल्लेख किया है। अजमेर, राजस्थान में उनकी प्रतिमा और स्मारक भी है। उत्तर प्रदेश सरकार ने उनकी एक प्रतिमा आगरा में भी स्थापित की है। उनके नाम से लखनऊ में एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी है।

साहित्य व उपन्यासों में लक्ष्मीबाई की तरह है जिक्र
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही झलकारीबाई का भी साहित्य, उपन्यासों और कविताओं में जिक्र किया गया है। 1951 में बीएल वर्मा द्वारा रचित उपन्यास ‘झांसी की रानी’ में झलकारी बाई को विशेष स्थान दिया गया है। रामचंद्र हेरन के उपन्यास माटी में झलकारीबाई को उदात्त और वीर शहीद कहा गया है। भवानी शंकर विशारद ने 1964 में झलकारीबाई का पहला आत्मचरित्र लिखा था। इसका बाद कई साहित्यकारों और लेखकों ने झलकारीबाई की बहादुरी की तुलना रानी लक्ष्मीबाई से की है। लक्ष्मीबाई पर लिखी गई कविता ‘खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी’ की तर्ज पर मैथिली शरण गुप्ता ने झलकारी बाई के बारे में लिखा है-

जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झांसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.