हिंदुत्व है भारत की मूल पहचान, ये एक राजनीतिक विचार न होकर है सांस्कृतिक अवधारणा
असदुद्दीन ओवैसी के बयानों से विपक्ष को राजनीतिक हलकों में भाजपा के खिलाफ उनसे जुगलबंदी करने का जरिया मिलता दिखाई दे रहा है। उनके बयानों का समर्थन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने भी किया है।
प्रणय कुमार। ठंड में कोरोना के बढ़ते प्रसार और उसकी चिंताओं के बीच पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और असदुद्दीन ओवैसी के बयानों ने पर्याप्त सुíखयां बटोरीं और संभवत: वे चाहते भी यही थे। ओवैसी को राजनीति करनी है, इसलिए उनके वक्तव्यों के निहितार्थ समझ आते हैं, पर आश्चर्य है कि उपराष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद पर दस वर्षो तक आरूढ़ रहे हामिद अंसारी भी उनके सुर में सुर मिलाते हुए वैसी ही बात कर रहे हैं। सवाल यह है कि ऐसा कौन-सा क्षेत्र है जहां अल्पसंख्यक प्रतिभाओं की प्रगति में अवरोध पैदा किया जाता है या उन्हें प्रोत्साहित करने में कोई संकोच दिखाया जाता है? सवाल यह भी कि इस देश में मुसलमानों से भी बहुत कम की संख्या में रहने वाले दूसरे समुदायों से कभी ऐसी कोई बात क्यों नहीं सामने आती? यदि आक्रामक राष्ट्रवाद या हिंदुत्व खतरा होता तो उनके लिए भी होना चाहिए था।
वस्तुत: हिंदुत्व का पूरा दर्शन ही सह-अस्तित्ववादिता पर केंद्रित है। जबकि उदार समझा जाने वाला पश्चिमी जगत प्रगति के अपने तमाम दावों के बावजूद अब तक केवल सहिष्णुता तक ही पहुंच सका है। सहिष्णुता में विवशता परिलक्षित होती है, वहीं सह-अस्तित्ववादिता में सहज स्वीकार्यता का भाव है। हिंदुत्व जड़-चेतन सभी में एक ही विराट सत्ता के पवित्र प्रकाश देखता है। वह प्राणी-मात्र के कल्याण की कामना करता है। वहां जय है तो धर्म की, क्षय है तो अधर्म की। वहां संघर्ष के स्थान पर सहयोग और सामंजस्य पर बल दिया जाता है।
हिंदुत्व एक राजनीतिक विचार न होकर सांस्कृतिक अवधारणा है। भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले सभी मत-पंथ के लोगों में उसके न्यूनाधिक प्रभाव देखे जा सकते हैं। चींटी से लेकर पहाड़, धरती से लेकर आकाश, वनस्पतियों से लेकर समस्त प्राणियों एवं जीव-जंतुओं तक की इसमें चिंता की जाती है। हिंदुत्व के सरोकार विश्व-मानवता और चराचर जगत के सरोकार हैं। जीवन और जगत का जहां इतना व्यापक एवं सूक्ष्म चिंतन किया गया हो, वहां किसी भिन्न विचार-पंथ के प्रति आक्रामकता एवं अनुदारता कैसे संभव है? हिंदुत्व के सभी ध्येय-वाक्यों का सार बस इतना है कि अलग-अलग रास्ते एक ही ईश्वर की ओर जाते हैं। और जो कुछ भेद या भिन्नता है, वह दृष्टि-भ्रम एवं अज्ञान का परिणाम है, बल्कि समस्त भेद को मिटाकर अणु-रेणु में व्याप्त उस सर्वव्यापी सत्ता के दर्शन और चेतना का निरंतर विकास एवं विस्तार ही हिंदुत्व का लक्ष्य है। उसने सदैव विस्तार को जीवन और संकीर्णता को मृत्यु का पर्याय माना है।
जहां तक ‘आक्रामक राष्ट्रवाद’ की बात है तो ध्यान रहे कि हिंदुत्व से नि:सृत राष्ट्रवाद पश्चिम की तरह का एकाकी और प्रभुत्ववादी राष्ट्रवाद नहीं है। यह यूरोप के नेशन स्टेट की तरह विस्तार की कामना और प्रभुत्व की भावना से प्रेरित-संचालित नहीं है। यह सत्ता (स्टेट) पर आधारित न होकर लोक (पीपुल) और जीवन-दृष्टि पर आधारित है। इसमें सर्वाधिकार की प्रवृत्ति नहीं, स्वत्व-बोध की जागृति है। यूरोपीय राष्ट्रवाद ने दुनिया को दो-दो विश्वयुद्ध दिए, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और साम्यवाद जैसी एकांगी अवधारणाएं दीं, पर भारतीय राष्ट्रीय विचार विश्व-दृष्टि रखता आया है।
यह ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की अवधारणा में विश्वास रखता है। यह अंधी एवं अंतहीन प्रतिस्पर्धा नहीं, संवाद, सहयोग और सामंजस्य पर बल देता है। यह संकीर्ण, आक्रामक और विस्तारवादी नहीं, अपितु सर्वसमावेशी है। यह राष्ट्रवाद यूरोप की तरह रक्त की शुद्धता पर बल नहीं देता। इसमें श्रेष्ठता का दंभ नहीं, जीवन-जगत-प्रकृति-मातृभूमि के प्रति कृतज्ञता की भावना है। यह समन्वयवादी है। यह सभी मत-पंथ-प्रांत, भाषा-भाषियों को साथ लेकर चलता है। यह एकरूपता नहीं, विविधता का पोषक है। यह एकरस नहीं, समरस एवं संतुलित जीवन-दृष्टि में विश्वास रखता है।
इसमें अस्वीकार और आरोपण नहीं, स्वीकार और नवीन रोपण के भाव निहित हैं, बल्कि राष्ट्र के साथ वाद जैसा शब्द जोड़ना ही पश्चिमी चलन है। यूरोपीय राष्ट्रवाद का प्रतिपादक जॉन गॉटफ्रेड हर्डर को माना जाता है, जिन्होंने 18वीं सदी में पहली बार इस शब्द का प्रयोग करके जर्मन राष्ट्रवाद की नींव डाली थी। तब यह सिद्धांत दिया गया कि राष्ट्र केवल समान भाषा, नस्ल, धर्म या क्षेत्र से बनता है। उसे आधार बनाकर ही कुछ लोग भारत के अतीत और मूल प्रकृति को जाने-समङो बिना उग्र या आक्रामक राष्ट्रवाद का रोना रोते रहते हैं।
वस्तुत: भारत के मर्म और मन को पहचान पाने में असमर्थ विचारधाराओं ने ही सार्वजनिक विमर्श में हिंदू, हिंदुत्व, राष्ट्रीय, राष्ट्रीयत्व जैसे विचारों एवं शब्दों को नितांत वर्जति और अस्पृश्य माना है। जो चिंतक-विचारक-राजनेता या सर्वसाधारण लोग भारत को भारत की दृष्टि से देखते, समझते और जानते रहे हैं उन्हें न तो इन शब्दों से कोई आपत्ति है, न इनके कथित उभार से, बल्कि हिंदू-दर्शन, हिंदू-चिंतन, हिंदू जीवन सबके लिए आश्वस्तकारी हैं। यहां सब प्रकार की कट्टरता और आक्रामकता का पूर्णत: निषेध है। यहां सामूहिक मतों-मान्यताओं-विश्वासों के साथ-साथ व्यक्ति-स्वातंत्र्य एवं सर्वथा भिन्न-मौलिक-अनुभूत सत्य के लिए भी पर्याप्त स्थान है।
(लेखक शिक्षक हैं)