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सेहत के क्षेत्र में 'आशा' जगाते बिहार के ये कम खर्चीले उपाय

स्वास्थ्य पैमानों पर फिसड्डी माने जाते रहे बिहार में इन दिनों कई उत्साहजनक प्रयोग हो रहे हैं। जच्चा-बच्चा की जिंदगी बचाने व उन्हें सेहतमंद बनाने के लिए की जा रही कवायदें इनमें सबसे अहम हैं। इनकी खास बात यह है कि डॉक्टरों की भारी कमी की वजह से ये नर्स

By Sachin kEdited By: Published: Wed, 15 Apr 2015 02:06 PM (IST)Updated: Wed, 15 Apr 2015 02:50 PM (IST)

मुकेश केजरीवाल, पटना। स्वास्थ्य पैमानों पर फिसड्डी माने जाते रहे बिहार में इन दिनों कई उत्साहजनक प्रयोग हो रहे हैं। जच्चा-बच्चा की जिंदगी बचाने व उन्हें सेहतमंद बनाने के लिए की जा रही कवायदें इनमें सबसे अहम हैं। इनकी खास बात यह है कि डॉक्टरों की भारी कमी की वजह से ये नर्स व कार्यकर्ताओं के कंधों पर ही चल रही हैं। बेहद कम खर्च में अच्छे नतीजे ला रहे इन नुस्खों को अब देश भर में आशा भरी नजरों से देखा जा रहा है।

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सरकारी कार्यक्रमों में डाक्टरों की भारी कमी की वजह से देश भर में स्वास्थ्य कार्यक्रमों को लोगों तक पहुंचाने का भार मूल रूप से लगभग नौ लाख आशा, 12 लाख आंगनबाड़ी कार्यकर्ता व दो लाख एएनएम पर ही है। लेकिन पर्याप्त मानदेय, प्रशिक्षण, संसाधन, प्रोन्नति व प्रोत्साहन आदि की कमी की वजह से अधिकांश राज्यों में इनकी कार्यक्षमता बहुत सीमित है।

ऐसे में बिहार में पिछले कुछ वर्षों के दौरान खास तौर पर इन्हीं की कार्यक्षमता बढ़ाने पर ध्यान दिया गया है। राज्य सरकार व अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन 'बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन' की साझेदारी में हुए इस प्रयोग के नतीजे विभिन्न अध्ययनों में साबित हो रहे हैं और अब लगातार इन्हें दूसरी जगहों पर अपनाया जा रहा है।

सचल नर्स प्रशिक्षण
ज्यादातर स्वास्थ्य सुविधाओं में प्रसव की जिम्मेदारी नर्सों पर है। ऐसे में इन्हें इनके कार्यस्थल पर ही आधुनिकतम सिमुलेशन तकनीक व पुतलों के सहारे प्रशिक्षण उपलब्ध करवाया गया। पटना से लगभग 40 किलोमीटर दूर धनरुआ ब्लॉक के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में काम कर रही जीएनएम रीना कुमारी कहती हैं कि उपकरणों को स्टेरलाइज करने व उनके सही उपयोग करने से ले कर प्रसव व परिवार नियोजन संबंधी पूरी प्रक्रिया को इस दौरान वे आजमा कर सीखती हैं। रीना कहती हैं, 'अब समझ में आ रहा है कि पहले हमारी गलतियों की वजह से कितने लोगों की जान दाव पर लगी होती थी।'

नर्सों को कार्यस्थल पर ही ऐसा प्रशिक्षण देने का यह देश में पहला प्रयोग था। पहले चरण में 80 स्वास्थ्य केंद्रों पर किए गए इस प्रयोग के नतीजे इतने प्रभावशाली थे कि बिहार सरकार ने इसे 420 अन्य केंद्रों पर भी शुरू कर दिया है।

साझा टीम गठन
आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ता अगर अपनी जिम्मेदारियों को प्रभावशाली तरीके से पूरा करें तो जच्चा व बच्चा की मौतों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। इनको प्रोत्साहन देने व टीम भावना जगाने के लिए बेगूसराय जिले के 76 उप केंद्रों पर टीम आधारित लक्ष्य और प्रोत्साहन (टीबीजीआइ) योजना शुरू की गई। उप केंद्र की एएनएम के नेतृत्व में इलाके की सभी आंगनबाड़ी व आशा कार्यकर्ताओं का दल बनाया गया। टीके लगाने, प्रसव के लिए अस्पताल पहुंचाने आदि जिम्मेदारियों में से इन दलों ने अपने लिए लक्ष्य तय किए। तिमाही के अंत में स्वतंत्र रूप से इनका आकलन कर लक्ष्य पूरा करने वाली टीम को एक विशेष आयोजन कर जिला प्रशासन से पुरस्कृत करवाया जाता है। इससे दो अलग-अलग मंत्रालयों व व्यवस्था में काम करने वाली आंगनबाड़ी व आशा कार्यकर्ताओं के बीच पहली बार नियमित तालमेल हो सका है।

मोबाइल पर मदद
स्वास्थ्य से जुड़ी गलत धारणाएं दूर करने व जरूरी संदेश पहुंचाने के लिहाज से आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को 'मोबाइल कुंजी' दी गई हैं। इसमें चित्र और कार्टून आदि से सजे अलग-अलग संदेश वाले 40 कार्ड का एक पैक होता है, जिन्हें ये एक-एक कर लोगों को दिखाती हैं। इन कार्ड पर एक नंबर उपलब्ध होता है, जिसे डायल कर कार्यकर्ता उससे जुड़ा ऑडियो क्लिप भी लोगों को सुनवाती हैं। पटना जिले के खोरमपुर आंगनबाड़ी की कार्यकर्ता रिंकी कहती हैं, 'इसकी मदद से हम लोग भी हाई-फाई हो गई हैं। हम उन्हें बताती हैं कि इस पर डाक्टर अनीता आपसे बात करेंगी तो लोग बहुत ध्यान से सुनते हैं।'

पूरे देश की नजर
इन प्रयोगों के बारे में पूछे जाने पर राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के मिशन निदेशक सीके मिश्रा कहते हैं, 'राज्यों के ऐसे उदाहरणों का हम नियमित तौर पर आकलन कर उन्हें अपनाते हैं। मोबाइल कुंजी को तो हम राष्ट्रीय स्तर पर लागू कर ही रहे हैं। मेरा मानना है कि कार्यकर्ताओं को समूह में काम करने के लिए प्रोत्साहित करना बहुत उत्पादक हो सकता है। इस तरह वे बेहतर फैसले ले सकती हैं और जवाबदेही का भाव भी बढ़ता है।'

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