Agricultural Reform Bill: तीनों कृषि सुधार कानूनों से पोंछे जा सकते थे किसानों के आंसू
Agricultural Reform Bill कृषि कानूनों की वापसी से छोटे और हाशिए पर जी रहे किसानों को फिर मंडी और बिचौलियों के दुष्चक्र में फंसना पड़ेगा। तीनों कृषि सुधार कानूनों से किसानों का दुखड़ा दूर किया जा सकता था।
आरएस देशपांडे। संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में सालभर से कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे प्रदर्शन के कारण अंतत: लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बनाए गए कृषि कानून वापस ले लिए गए। प्रधानमंत्री को उनकी मांगों को मानते हुए कानूनों की वापसी का एलान करना पड़ा। कुछ मुट्ठीभर लोगों के कारण 12.6 करोड़ छोटे एवं हाशिए पर जी रहे किसानों को सुधारों से वंचित होना पड़ा।
कानूनों के वापस होने का अर्थ है कि छोटे किसानों का शोषण होता रहेगा और किसानों की शक्ल लिए बैठे बिचौलिए उनका शोषण करते रहेंगे। कानूनों की वापसी से किसान को अपनी उपज देश में कहीं भी और किसी को भी बेचने का अधिकार नहीं रह जाएगा और उसे मंडी एजेंटों के भरोसे पर ही रहना होगा। कानून वापस होने से स्थानीय स्तर पर बिक्री की पाबंदी फिर लग जाएगी। क्या कथित आंदोलनकारी यही चाहते हैं? यह लाबी भ्रम फैला रही है कि किसानों को अपनी पूरी फसल बस दो बड़े कारपोरेट के हाथों बेचने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। क्या भारत में बस दो ही कारपोरेट हैं? क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है? क्या कानूनों के वापस होने से यह सुनिश्चित होगा कि ये कारपोरेट उन बिचौलियों से अनाज नहीं खरीदेंगे? राज्य सरकारें फिर सेस और मार्केट फीस लगाएंगी। सब जानते हैं कि कारोबारी ये सब शुल्क किसानों की कमाई से ही काटते हैं।
इसी तरह, कानून में प्रविधान किया गया था कि मंडी कारोबारियों को पूरा रिकार्ड रखना होगा और पैन देना होगा। कानून वापस होने से फिर बिना रिकार्ड की खरीद-बिक्री फले-फूलेगी और किसानों के दमन में कारोबारियों को मदद मिलेगी। क्या पूरे आंदोलन का यही उद्देश्य था? कानून के तहत किसानों को तीन दिन के भीतर उनकी उपज का मूल्य मिलने का प्रविधान किया गया था, लेकिन अब फिर किसानों को भुगतान पाने के लिए कारोबारियों की इच्छा पर निर्भर रहना पड़ेगा। क्या इन आंदोलनकारियों का यही एजेंडा था?
कानून में व्यवस्था की गई थी कि किसी भी तरह के विवाद का निपटारा व्यापार क्षेत्र के भीतर ही हो, लेकिन प्रदर्शनकारी चाहते हैं विवादों को सिविल कोर्ट में ले जाया जाए। अदालतों में ऐसे मामलों के निपटारे में पांच से 10 साल तक का समय लग जाता है। निश्चित तौर पर ये प्रदर्शनकारी चाहते हैं कि गरीब किसान सिविल अदालतों के चक्कर काटते रहें। दूसरे कानून में किसानों को किसी कांट्रेक्टर से अनुबंध के मामले में सुरक्षा प्रदान की गई थी। अब किसान के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं होगा। सब-डिवीजनल मजिस्ट्रेट और अपीलेट अथारिटी जैसी व्यवस्थाएं खत्म हो जाएंगी। एक स्पष्ट प्रविधान था कि किसान की तरफ से कुछ भी बकाया रह जाने की स्थिति में उसकी जमीन नहीं छिनेगी। तीसरे कानून में जमाखोरी पर प्रतिबंध का प्रविधान था। अक्सर जमाखोरी के कारण कीमतें आसमान छूने लगती हैं। कानून वापस हो जाने के बाद कारोबारियों द्वारा जमाखोरी को बढ़ावा मिलेगा।
कुल मिलाकर, कानूनों की वापसी से छोटे किसान मुश्किल में आएंगे। सरकार को इस स्थिति से निपटने के बारे में सोचना चाहिए। केंद्र सरकार को एडवाइजरी जारी करनी चाहिए कि राज्य इन कृषि कानूनों के बारे में अपने स्तर पर निर्णय लें। एमएसपी को लेकर कानून में प्रविधान किया जाना चाहिए कि कोई भी एमएसपी से नीचे खरीद नहीं करेगा। जरूरी है कि सरकार ऐसे कदम उठाए, जिनसे हाशिए पर जी रहे किसानों के आंसू पोंछे जा सकें।
[पूर्व निदेशक, इंस्टीट्यूट फार सोशल एंड इकोनामिक चेंज, बेंगलुरु]