समयसीमा में बंधे न्याय से भटक कर गलती तो नहीं कर रहे किसान, मुद्दों से भटका किसान संगठन
किसानों ने एसडीएम की जगह अदालत जाने की बात क्यों की। यह किसी से छिपा नहीं है कि अदालत में वैसे भी मामलों का अंबार है जहां सुनवाई और निर्णय में देरी सामान्य है। जबकि कानून में एसडीएम को एक महीने के अंदर निर्णय देने का प्रावधान है।
जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। कृषि कानूनों को रद करने की जिद पर अड़े किसान संगठनों की आशंकाओं को खत्म करने के लिए यूं तो सरकार की तरफ से संशोधन का खुला प्रस्ताव दिया गया है, लेकिन यह सवाल भी उठने लगे हैं कि किसान व्यावहारिक मुद्दों से भटककर कहीं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी तो नहीं मार रहे। कांट्रैक्ट फार्मिंग में किसी विवाद को सुलझाने के लिए मूल कानून में एसडीएम को अधिकार दिया गया था। किसानों की मांग पर अब अदालत तक जाने की छूट भी देने पर सहमति बनी है। इसके साथ ही यह मूल सवाल खड़ा होता है कि क्या सरकार अदालत के लिए कोई समय सीमा तय कर पाएगी। क्या महंगी हो रही न्यायिक व्यवस्था में गरीब किसान उद्योगपतियों का सामना करने में सक्षम हो पाएगा।
जमीन के मालिकाना हक को लेकर अब तक नहीं आई कोई शिकायत
प्रदर्शनकारी किसान संगठनों के साथ ही राजनीतिक दलों की तरफ से यह कहा जा रहा है कि कांट्रैक्ट फार्मिंग लागू हुई तो अंबानी जैसे उद्योगपतियों का जमीन पर कब्जा हो जाएगा। देश के कई हिस्सों में वर्षों से कांट्रैक्ट फार्मिंग औपचारिक या अनौपचारिक रूप में चल रही है, लेकिन कहीं से ऐसी घटनाएं सामने नहीं आईं जहां किसानों ने जमीन खोई हो। इसके अलावा अंबानी जैसा ग्रुप फिलहाल कही भी कांट्रैक्ट फार्मिंग में ही नहीं है, लेकिन जो कंपनियां इसमें शामिल हैं उनसे भी कहीं भी किसी बड़ी शिकायत की जानकारी नहीं आई है। खुद पंजाब में पेप्सिको के साथ हुए करार को लेकर बड़ी आपत्ति नहीं हुई।
कानून में एसडीएम को एक महीने के अंदर निर्णय देने का प्रावधान
सवाल यह है कि किसानों ने एसडीएम की जगह अदालत जाने की बात क्यों की। यह किसी से छिपा नहीं है कि अदालत में वैसे भी मामलों का अंबार है जहां सुनवाई और निर्णय में देरी सामान्य है। जबकि, कानून में एसडीएम को एक महीने के अंदर निर्णय देने का प्रावधान है, वह भी इस शर्त के साथ किसानों के मालिकाना हक के खिलाफ कोई फैसला नहीं होगा। अगर कंपनियों का बकाया निकलता है तो भी किसान बिना ब्याज ही उसे वापिस करेंगे।
कानून में अदालत के लिए समयसीमा तय करना नहीं होगा संभव
अगर व्यावहारिकता की बात की जाए तो राजनीति में किसानों का मामला संवेदनशील होता है और ऐसे में कोई भी सरकार कभी नहीं चाहेगी कि किसान बेवजह उग्र दिखें, यानी प्रशासन तंत्र किसानों के लिए काम करेगा। जबकि अदालत के लिए कानून में निर्णय देने की कोई समयसीमा तय नहीं हो सकती है। यह किसानों की आर्थिक क्षमता पर निर्भर करेगा कि वह अंतिम निर्णय तक केस लड़ते हैं या फिर कंपनियों के साथ समझौता करते हैं। वैसे भी ये सारे नियम उन किसानों के लिए होंगे जो अपनी मर्जी और लाभ की गुंजाइश देखकर कंपनियों के साथ कांट्रैक्ट करेंगे।