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परीक्षा तंत्र की पोल खोलता हालिया पेपर लीक मामला, आखिर कैसे बनेगी बात

पेपर लीक की ज्यादातर घटनाओं में परीक्षा तंत्र में शामिल लोगों की ही मुख्‍य भूमिका होती है

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Wed, 05 Sep 2018 02:56 PM (IST)Updated: Wed, 05 Sep 2018 02:58 PM (IST)
परीक्षा तंत्र की पोल खोलता हालिया पेपर लीक मामला, आखिर कैसे बनेगी बात
परीक्षा तंत्र की पोल खोलता हालिया पेपर लीक मामला, आखिर कैसे बनेगी बात

[अभिषेक कुमार सिंह]। अहम प्रतियोगी परीक्षाओं और प्रतिष्ठित कोर्सों के प्रवेश परीक्षाओं के पर्चे अगर पहले से लीक हो जाएं, भर्तियों में पैसे लेकर धांधली की जाए या साठगांठ कर नकल कराते हुए परीक्षार्थियों को उत्तीर्ण करा लिया जाए तो सबसे ज्यादा कष्ट उन मेहनतकश परीक्षार्थियों और उम्मीदवारों को होता है जो अपनी प्रतिभा के बल पर किसी परीक्षा में अपनी योग्यता साबित करने का जतन करते हैं। कुछ ऐसा ही दृश्य इधर उत्तर प्रदेश अधीनस्थ चयन की हालिया परीक्षा के दौरान हुई पेपरलीक की घटना के कारण उपस्थित हुआ है। ट्यूबवेल ऑपरेटर जैसा पद ऊपर से कोई बहुत आकर्षक मालूम नहीं पड़ता है, लेकिन इसके 3210 पदों के लिए बीते रविवार को आयोजित होने वाली परीक्षा का पेपर लीक हो जाने से एक बार फिर साबित हुआ कि परीक्षा तंत्र में ऊपर से नीचे तक घुन कितने गहरे तक लगे हुए हैं और जो पूरे सिस्टम को खोखला करने पर उतारू हैं।

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पेपरलीक से चंद कमजोर उम्मीदवारों-छात्रों को फायदा जरूर होता है, लेकिन ये घटनाएं अन्य हजारों उम्मीदवारों और छात्रों के लिए कितनी कष्टकर हैं, यह इस साल के आरंभ में साफ हो गया था। कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) के तहत 17-21 फरवरी को हुई संयुक्त स्नातक स्तरीय परीक्षा में ऑनलाइन एग्जाम के दौरान ही सोशल मीडिया पर प्रश्नपत्र लीक हो गया था। सोशल मीडिया पर पर्चा लीक होने के कारण 15 मिनट बाद ही परीक्षा रोक दी गई थी। पेपरलीक और परीक्षा रोकने की घटना पर छात्रों का आक्रोशित होना स्वाभाविक था, क्योंकि इससे उन्हें परीक्षा के लिए दोबारा मेहनत करने और पैसा खर्च करने की जरूरत पैदा हुई थी। परीक्षातंत्र में धांधली की इस घटना ने हजारों छात्रों को धरने-प्रदर्शन के लिए प्रेरित किया था। समाजसेवी अन्ना हजारे समेत

कुछ राजनीति दलों ने भी ऐसी घटनाओं की सीबीआइ जांच की मांग करते हुए आंदोलन को अपना समर्थन देने की घोषणा की थी।

आखिर सरकार पूरे प्रकरण की सीबीआइ जांच के लिए राजी हो गई थी। उस घटना ने यह तो साबित किया था कि अब छात्रों-उम्मीदवारों को यह बर्दाश्त नहीं कि सिस्टम की खामियों का नतीजा वे भुगतें, लेकिन भविष्य में ऐसी घटनाएं फिर नहीं होंगी-ऐसा आश्वासन कहीं से नहीं मिला, बल्कि उत्तर प्रदेश अधीनस्थ चयन आयोग की ताजा परीक्षा में पेपरलीक ने फिर साबित कर दिया कि इस मर्ज का कोई इलाज सरकारों के पास शायद ही हो।

पर्चे लीक होने का यह सिलसिला हाल के वर्षों में इतना बढ़ा है कि शायद ही कोई प्रतिष्ठित परीक्षा इसकी आंच से बच पाई हो। यूपी- पीसीएस, यूपी कंबाइड प्री-मेडिकल टेस्ट, यूपी-सीपीएमटी, एसएससी, ओएनजीसी और रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षाओं के पेपर हाल के कुछ वर्षों में बड़े पैमाने पर लीक हुए हैं। यह भी पता चला है कि पांच-पांच लाख में बिके प्रश्नपत्र सोशल मीडिया पर मुहैया कराए गए। यह भी संभव है कि जिन मामलों का खुलासा नहीं हुआ, वहां ऐसे चोर रास्तों से शायद सैकड़ों लोग नौकरी या प्रतिष्ठित कोर्स में दाखिला पा गए हों। ऐसे में यह सवाल शायद हमेशा की तरह आगे भी बचा रहेगा कि क्या कभी हमारी प्रतियोगी परीक्षाएं इस बीमारी से निजात पा सकेंगी। चूंकि ये हादसे लाख इंतजामों और इसके गिरोहों के भंडाफोड़ और धरपकड़ के बाद भी थम नहीं रहे हैं, इसलिए प्रश्न यह पैदा होता है कि इस समस्या की जड़ कहीं और तो नहीं है।

असल में आज देश का शायद ही कोई ऐसा कोना बचा हो, जहां पर्चा लीक कराने वाले गिरोहों ने अपना कोई कारनामा न किया हो। यहां तक कि सीबीएसई जैसे विश्वसनीय शैक्षणिक संगठन में भी पर्चाफोड़ गिरोह सेंध लगा चुका है और इसके पर्चे लीक हुए हैं। पेपरलीक कराने के लिए कई लोगों की गिरफ्तारी भी हुई है। बताते हैं कि ये लोग मेडिकल प्रवेश परीक्षा के पर्चे दस-बारह लाख रुपये तक में बेचा करते थे। ये घटनाएं योग्यता का मापदंड तय करने वाली परीक्षा प्रणाली की व्यवस्था के लुंजपुंज हो जाने का प्रमाण हैं। इससे यह भी साबित होता है कि शासक वर्ग पेपर लीक की घटनाओं को बहुत हल्के में लेता है, अन्यथा अब तक इस समस्या का इलाज हो चुका होता। नजदीकी से मुआयना करें तो इन घटनाओं के कुछ मौलिक कारणों का खुलासा होता है। ऐसी

ज्यादातर परीक्षाओं में कुछ सौ या हजार पदों के लिए आवेदकों की संख्या लाखों में होती है।

यूपी में ट्यूबवेल ऑपरेटर के पद 3210 हैं, पर इसके लिए दो लाख से ज्यादा आवेदक थे। अन्य सरकारी नौकरियों और मेडिकल व इंजीनियरिंग कॉलेजों के प्रवेश परीक्षाओं में तो आठ-दस लाख परीक्षार्थियों का शामिल होना तो अब आम बात है। इसका मतलब यह है कि चाहे प्रोफेशनल कोर्स की बात हो या नौकरी-हर जगह स्थिति एक अनार-सौ बीमार वाली है। मांग ज्यादा है, आपूर्ति कम। जहां भी ऐसे हालात पैदा होते हैं, वहां पैसे और अवैध हथकंडों की भूमिका स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है।

इस गोरखधंधे के फूलने-फलने का एक अनिवार्य पहलू यह भी है कि इन ज्यादातर घटनाओं में तंत्र में शामिल लोगों की ही भूमिका होती है। यूपी की हालिया परीक्षा का पेपर कोषागार में तैनात कर्मचारी ने आउट किया था। कोषागार में दोहरी सुरक्षा के बीच रखे पेपर तक आम अपराधी की पहुंच हो पाना असंभव ही था। पर्चा-फूट कांडों में अब तक पकड़े गए लोगों को नाममात्र सजाएं हुई हैं। कुछ महीने जेल में काटने के बाद ये लोग फिर उसी धंधे में लग जाते हैं। ऐसे उदाहरण कानून और दंड व्यवस्था को औचित्यहीन साबित कर डालते हैं।

समाजशास्त्रीय नजरिये से देखें तो ऐसे लोगों में हमारे समाज के ही कुछ वे लोग जिम्मेदार हैं जो पैसे के बल पर अपनी संतानों को नौकरी व सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए वैध-अवैध-हर हथकंडा अपना लेना चाहते हैं और ऐसा करने में कोई शर्म-झिझक महसूस नहीं करते हैं। देश का नवधनाढ्य और बेशुमार दौलत के गुरूर में झूमता-गाता यह वर्ग नैतिक रूप से इतना पतित हो चुका है कि उसे इसमें कोई दोष नजर नहीं आता है कि उसने पैसा खिलाकर या तो पर्चा लीक करवा लिया या भारी-भरकम डोनेशन देकर इंजीनियरिंग या मेडिकल कॉलेज की वह सीट खरीद ली, जिस पर कायदे से किसी प्रतिभावान और योग्य उम्मीदवार का हक होना चाहिए था।

हालांकि इसमें बाहर से ज्यादा दोष सिस्टम में बैठे उन लोगों का है, जो चंद पैसे के लिए प्रश्नपत्र मुहैया कराते हैं या अपने नाते-रिश्तेदार को पास कराने के लिए परीक्षा प्रणाली में सेंध लगाते हैं। आज चूंकि किसी भी तंत्र या व्यवस्था में चंद पैसे के लिए अपने ईमान से मुंह मोड़ लेने वालों की कमी नहीं है, इसलिए ऐसे लोगों को पकड़ना आसान नहीं है। असल में परीक्षाएं भले ही ऑनलाइन हो गई हों, पर इस सिस्टम कोई ऐसा मशीनी इंतजाम नहीं है जिसमें इंसान के गुणों-अवगुणों पर कोई लगाम लगती हो। इसलिए ऐसे भ्रष्ट लोगों की धरपकड़ से ही कोई राह सूझेगी।

वैसे बात चाहे प्रतियोगी परीक्षाओं की हो या भर्ती बोर्डों के जरिये मिलने वाली नौकरी की परीक्षाओं की, बेरोजगारी की दर और जनसंख्या का संतुलित अनुपात बिठाने पर यह समस्या सुलझाई जा सकती है। रोजगार और शिक्षा में- मैं आगे, तुम पीछे या मेरी सैलरी फलाने के वेतन से इतने गुना ज्यादा-यह भाव भी पेपरलीक की समस्या को गहरा करता है। जब तक कथित तौर पर मलाईदार नौकरियों के लिए मारामारी होती रहेगी, पेपर लीक जैसे चोर रास्तों का दरवाजा हमेशा खुला रहेगा। इसलिए दोषियों की धरपकड़ के साथ-साथ समस्या के सही निदान का प्रयास भी करना होगा।

पिछले कुछ दशकों में जिस तरह शिक्षा सीधे-सीधे रोजगार से जुड़ गई है, उसमें ऐसे नैतिक पतन की गुंजाइशों के लिए भी काफी बड़ा स्पेस पैदा हो गया है। असल में हमारे शिक्षाविद अरसे से जिस नैतिक शिक्षा (वैल्यू एजूकेशन) की बात देश में करते रहे हैं, उसे अपनाने की दिशा में कोई काम हो ही नहीं रहा है। ऐसी शिक्षा का मतलब यह है कि शिक्षा को सिर्फ रोजगार से जोड़कर न देखा जाए, बल्कि उसे समाज से भी जोड़ा जाए। यह काम सिर्फ समाजसेवक नहीं करेंगे, बल्कि नेताओं, शिक्षाविदों, प्रशासकों और अभिभावकों-इन सभी को मिलकर करना होगा।

अहम प्रतियोगी परीक्षाओं और पाठ्यक्रमों की प्रवेश परीक्षाओं के पर्चे अगर पहले से लीक हो जाएं, भर्तियों में पैसे लेकर धांधली की जाए या साठगांठ कर नकल कराते हुए परीक्षार्थियों को उत्तीर्ण करा लिया जाए तो सबसे ज्यादा कष्ट उन मेहनतकश परीक्षार्थियों को होता है जो अपनी प्रतिभा के बल पर किसी परीक्षा में अपनी योग्यता साबित करने का जतन करते हैं। कुछ ऐसा ही दृश्य उत्तर प्रदेश में हुई पेपर लीक की घटना के कारण सामने आया है।

[स्वतंत्र टिप्पणीकार] 


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